सोमवार, 17 जून 2019

मोदी सरकार के मंत्रियों पर लगभग सभी तरह के अपराधिक मामले

0 सर्वाधिक भाजपा के 116 सांसदों पर आपराधिक मामले, कई गंभीर
0 223 सांसदों पर आपराधिक मामले, हर चुनाव बाद बढ़ रहे है ऐसे सांसद
विशेष प्रतिनिधि
देश के लोकतंत्र का मंदिर माने जाने वाले संसद में हर चुनाव के बाद अपराधिक मामले वाले सांसदों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी हो रही है। इस बार तो मोदी सरकार के 22 मंत्रियों पर भी आपराधिक मामले चल रहे हैं जिसमें 16 मंत्रियों पर तो अत्यंत गंभीर मामले है। कुछ मंत्री तो हिस्ट्रीशीटर भी हैं।
राजनीति के अपराधीकरण को हटाने लेकर राजनैतिक दलों का रवैया ठीक इसके उलट नजर आ रहा है। हैरानी की बात तो यह है कि जैसे जैसे देश साक्षर की ओर बढऩे की बात कर रहा है वैसे वैसे हर चुनाव के बाद लोकसभा में पहुंचने वाले आपराधिक मामलों के सांसदों की संख्या बढ़ते ही जा रही है। हैरानी की बात तो यह है कि सरकार में ऐसे गंभीर अपराधिक मामले वालों को मंत्री तक बना दिया जाता है। ऐसे में कानून व्यवस्था का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है।
मोदी सरकार में इस बार 22 ऐसे लोगों को मंत्री बनाया गया है जिनके खिलाफ आपराधिक मामले चल रहे हैं इनमें से 16 पर तो चोरी, डकैती, हत्या, बलात्कार जैसे गंभीर आरोप बताये जा रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक उड़ीसा से सांसद बने प्रताप सारंगी पर 7 तरह के गंभीर प्रकरण दर्ज है और ऐसे लोगों को भाजपा में उड़ीसा का मोदी कहकर महिमा मंडन किया जाता है। 
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेसी रिफार्म के रिपोर्ट के मुताबिक हैरानी की बात तो यह है कि ऐसे आपराधिक मामले वाले सांसदों के प्रकरणों को निपटाने की मांग की जाती रही है। लेकिन कुछ नहीं होता। 2014 में संसद में अपने पहले भाषण में ही प्रधानमंत्री मोदी ने इस मामले में लम्बा चौड़ा वक्तव्य देकर प्रकरणों के शीघ्र निराकरण के लिए विशेष पहल की बात कही थी लेकिन हालात जस के तस बने हुए हैं। बहरहाल मोदी सरकार में जिस तरह से गंभीर आपराधिक मामले वालों को मंत्री बनाया गया है वह न केवल हैरान करने वाला है बल्कि सरकार की मंशा पर भी सवाल उठा रहे हैं।

रविवार, 16 जून 2019

पैसा है तो पढ़ाई

मोदी सरकार में पैसा है तो शिक्षा है
नहीं तो स्कूलों में नाश्ता खाना तो है ही!
0 निजी शिक्षण संस्थाओं को फीस बढ़ाने की खुली छूट
0 स्वायत्तता, निजी संस्थानों व कार्पोरेट को प्राथमिकता
0 इन्फ्रास्ट्रक्चर और रिक्त पदों के लिए पैसा नहीं
0 हर जिले में हायर एजुकेशन की बात लेकिन जमीन नहीं
0 त्रिभाषा फार्मूला, फ्रेंच, जर्मन सहित कई विदेशी भाषा में शिक्षा
0 स्कूली शिक्षा में बड़ा बदलाव- 5+3+3+4
0 मिशन तक्ष शिक्षा- मिशन नालंदा
0 प्राथमिक शाला के बच्चों को मध्यान्ह भोजन के पहले नाश्ता भी
30 जून तक सुझाव मांगे गये हैं फिर लागू होगा
विशेष प्रतिनिधि
मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति के एक बात स्पष्ट कर दी कि सरकारें किसी की भी हो शिक्षा को लेकर उनका रवैया दोयम दर्जे का ही रहेगा। नई शिक्षा नीति में शिक्षा को लेकर सरकार का रवैया भी स्पष्ट हो गया है कि वे शिक्षा का स्तर तो बढ़ाना चाहते हैं लेकिन उनके पास पैसा नहीं है ऐसे में वह धीरे-धीरे निजी संस्थाओं, स्वयत्तता और कार्पोरेट पूंजी को प्राथमिकता देंगे। यदि आपके पास पैसा है तो उच्च शिक्षा ग्रहण करे वरना सरकार प्राथमिक शालाओं में नाश्ते में दूध केला और भोजन में दाल चावल देकर पेट भर रही है और मानसिक विकास तो हो ही जायेगा।
मोदी सरकार ने सत्ता में बैठते ही इस देश की नई शिक्षा नीति की घोषणा कर दी। 640 पृष्ठ के नई शिक्षा नीति के इस मसौदे में देश को सुपर नॉलेज पॉवर बनाने का सपना तो देखा गया है लेकिन बगैर पैसों का यह सब कैसे होगा यह चिंता का विषय है। क्योंकि यदि नीति का क्रियान्वयन ईमानदारी से किया जायेगा तो जो पैसे चाहिए उसका बीस फीसदी ही शिक्षा बजट है। ऐसे में नई शिक्षा नीति भी पिछले दोनों शिक्षा नीतियों की तरह मृगमरिचिका बनकर रह जाने वाला है। जबकि उच्च शिक्षा में जिस तरह से कार्पोरेट सेक्टर को आमंत्रित किया जा रहा है वह नए तरह के खतरे का संकेत है। शिक्षा नीति में भोजन के साथ नाश्ते का जिक्र तो किया गया है लेकिन शिक्षा के बाद रोजगार का क्या होगा इसका कहीं जिक्र नहीं है। नई शिक्षा नीति में इस बात का भी जिक्र नहीं है कि हर साल देश की लाखों प्रतिभा दूसरे देशों में पलायन कर रही है उसे कैसे रोका जाए और सबसे दुखद तो यह है कि निजी स्कूलों तक को फीस की खुली छूट दे दी गई है।
देश की पहली शिक्षा नीति 1968 में आई थी और इसके बाद 1986 में बनी। 1992 में संशोधन हुई तो अब तीसरी शिक्षा नीति 2019 में आई है। शिक्षा के गिरते स्तर पर सवाल उठाकर संसद तक ठप्प करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने अब जब नई शिक्षा नीति की घोषणा की है तो यह नीति भी पिछले नीतियों से ज्यादा कुछ अलग नहीं है। हैरानी की बात तो यह है कि नई शिक्षा नीति में सुपर नॉलेज पावर बनाने का जो सपना देखा गया है उसे पूरा करने का कोई ठोस उपाय भी नहीं दिया गया है। हालांकि इसे मिशन तक्षशिला और मिशन नालंदा का नाम देकर इतिहास के वैभव को याद तो किया गया है लेकिन यह बगैर पैसों का कैसे पूरा होगा यह सबसे बड़ा सवाल है।
640 पृष्ठ के इस मसौदे में सरकार ने ईमानदारी से स्वीकार किया है कि प्राथमिक शिक्षा से लेकर 12वीं तक की शिक्षा के लिए इन्फ्रास्क्ट्रक्चर ही नहीं है। यही नहीं पांचवी के बाद 5 फीसदी, आठवीं के बाद करीब 30 फीसदी और 10वीं के बाद लगभग 49 फीसदी तथा बारहवीं के बाद करीब 90 फीसदी बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं। हालांकि पढ़ाई छोडऩे का कोई स्पष्ट कारण सरकार ने नहीं बताया है। लेकिन सच तो यह है कि पढ़ाई छोडऩे की बड़ी वजह गरीबी के अलावा स्कूल कालेज की दूरी भी है। जब बच्चों को शिक्षा के लिए 20 किलोमीटर तक रोज जाना पड़े तो गांव का बच्चा यह सब कैसे कर सकता है। नई शिक्षा नीति में इसके कोई उपाय नहीं दिये हैं। यदि इन्फ्रास्ट्रक्चर आज से खड़ा भी किया जायेगा तो सरकार के पास जब पैसा ही नहीं है तो वह इसे कैसे करेगी।
यही नहीं जिस त्रिभाषा को लेकर 1968 में विवाद हुआ था और सरकार को कदम वापस लेने पड़े थे उसी त्रिभाषा का बेवजह जिक्र कर दक्षिण के राज्यों में विवाद और तनाव was की कोशिश की गई। इसी तरह 1995 से स्कूलों में लागू मध्यान्ह भोजन को अपर्याप्त मानते हुए नाश्ते भी देने का जिक्र किया गया है शिक्षा पर बात करते समय नाश्ते का जिक्र हैरानी भरा फैसला है जबकि अब तक मध्यान्ह भोजन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं के कंधे पर है और उनसे मध्यान्ह भोजन के अलावा दूसरे भी काम कराये जाते हैं इससे रुष्ठ देशभर के  आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आंदोलित है। इनका कहना है कि उनका वेतन बढ़ा जाए क्योंकि सरकार उनसे कई तरह का काम लेती है जिसकी वजह से उन्हें अपने घर परिवार के लिए समय ही नहीं मिल पाता। उत्तरप्रदेश, बिहार, झारखंड, पंजाब, राजस्थान सहित कई राज्यों के आंगनबाड़ी कार्यकर्ता आंदोलित है।
नीति का सबसे दोषपूर्ण पहलू यह है कि उच्च शिक्षा में कार्पोरेट जगत को लाने की कोशिश है ऐसे में पहले ही महंगी शिक्षा से त्रस्त लोगों के लिए यह कठिन हो जायेगा। जबकि शिक्षा के बाद रोजगार को लेकर नई शिक्षा नीति में कोई खास प्रावधान ही नहीं किया गया  है। एक आंकड़े के मुताबिक एमबीए करने वाले 90 फीसदी व इंजीनियरिंग करने वाले 70 फीसदी बच्चे पढ़ाई के बाद या तो बेरोजगार हो जाते है या अपनी पढ़ाई वाले कार्य को छोड़ दूसरा कार्य करते हैं। इसी तरह सीए से लेकर दूसरी तकनीकी शिक्षा का हाल है।
उच्च शिक्षा में पढ़ाई का हाल किसी से छिपा नहीं है। विश्वविद्यालयों में 70 से 80 फीसदी पद रिक्त हैं और इन्हें भर्ती के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। इसी तरह नई शिक्षा नीति में स्वायत्तता जैसी बात कही गई है यानी कुल मिलाकर नई शिक्षा नीति से पढ़ाई और महंगी होगी। यही नहीं निजी स्कूलों को फीस की खुली छूट दे दी गई है लेकिन कहा गया है कि फीस बढ़ाने में मनमानी न करे अब यह मनमानी कहां तक सीमित है कोई कैसे बता सकता है। नई शिक्षा नीति में जिस तरह से फीस बढ़ाने का अधिकार निजी संस्थानों को दिया है उसके बाद तो यह तय माना जा रहा है कि अब आने वाले दिनों में वही शिक्षा लेगा जिसके पास पैसा होगा। 
बहरहाल मोदी की सरकार की इस शिक्षा नीति को लेकर कई तरह के सवाल खड़े हो रहे हैं देखना है कि 30 मई को जारी इस ड्राफ्ट में 30 जून तक मांगे गये सुझाव को कैसे माना जायेगा। हालांकि यह ड्राफ्ट 2016 में ही तैयार हो गई थी।

मंगलवार, 7 मई 2019

झूठ बोलो, झूठ बोलो और सिर्फ झूठ बोलो!

झूठ बोलो, झूठ बोलो और सिर्फ झूठ बोलो...
केन्द्र की सत्ता के लिए संघर्ष चरम पर है, अमर्यादित भाषा ने अपनी सारी सीमाएं लांघ दी है, और इसमें कोई दल अछूता नहीं रह गया है। अमर्यादित भीड़ के बीच सोशल मीडिया और वाट्सअप युनिर्वसिटी के जरिये जिस तरह से झूठ परोसा गया वह भी इस चुनाव की पहचान बनी है।
वाट्सअप ने तो बकाया देशभर के सभी समाचार पत्रों और चैनलों में विज्ञापन देकर लोगों से अपील की है कि अफवाहें नहीं खुशियां बांटिये। वाट्सअप के इस विज्ञापन देने की वजह से आप जान सकते हैं कि मामला कितना गंभीर है और अफवाहें किस स्तर पर जाकर फैलाई जा रही है। 
चुनावी फायदों के लिए जिस तरह से सोशल मीडिया का इस्तेमाल हुआ है वह भी चुनाव आयोग के लिए चुनौती तो है ही राजनैतिक दलों के लिए भी गंभीर चुनौती है। एक तरफ जब चुनाव आयोग निष्पक्ष चुनाव कराने नए-नए नियम कानून बना रही है तब दूसरी तरफ सोशल मीडिया का इस्तेमाल चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन के लिए किया जाना लोकतंत्र के मूल्यों पर प्रहार है।
अमर्यादित भाषा को लेकर चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद कड़ा रुख अख्तियार तो किया है लेकिन इससे उन लोगों को कोई फर्क नहीं पड़ा है जो अमर्यादित भाषा के लिए जाने जाते है और न ही राजनैतिक दलों को ही कोई फर्क पड़ा है। राजनीति के गिरते स्तर को अभी और गिरते हुए देखना लोगों की मजबूरी है।
लेकिन हैरान करने वाली बात तो यह है कि इसमें वे लोग भी शामिल होते चले जा रहे हैं जिन्हें राजनीति से कोई खास लेना देना नहीं रहा है। सोशल मीडिया ने तो अफवाह उड़ाने की मशीन बन कर रह गई है। विभिन्न पार्टियों के आईटी सेल के द्वारा वाट्सअप युनिर्वसिटी के जरिये जिस तरह से झूठ परोसा जा रहा है आने वाले वक्त में इसका भयंकर दुष्परिणाम होंगे।
चुनाव तो इस देश में होते रहेंगे लेकिन सत्ता संघर्ष से जिस तरह से आम लोगों में वैमनस्यता का जहर बोया जा रहा है वह इस देश को कहां ले कर जायेगा? कहना कठिन है।
इस चुनाव में नफरत की फैक्ट्री का संचालन किया गया। ये कौन लोग है किसी से छिपा नहीं है। भक्तों की लंबी फेहरिश्त है और उनके सोशल साइट्स  पर आप जाकर देख सकते है कि वे किस हद तक गिरते चले जा रहे है। इससे पहले भी इस देश में चुनाव हुए हैं लेकिन ऐसी कटुता कभी नहीं रही।
संतोष सिंह ने तो फेसबुक में यहां तक लिख दिया कि 23 मई के बाद भक्तों से नाता खत्म। सुख-दुख में भी आना-जाना बंद। योगिता बाजपेयी ने तो आज से ही समाप्त करने की घोषणा की तो कमल शुक्ला ने यहां तक लिखा कि जिन भक्तों को वे पसंद नहीं उनके फ्रेंड लिस्ट से हट जाए। ऐसे सैकड़ों उदाहरण है जो मौजूदा वक्त में कटुता की पराकाष्ठा को इंगित करता है। सिर्फ असहमति होने पर गाली गलौज और धमकी से कोई अछूता नहीं रहा है और नफरत की फैक्ट्री चलाने वालों का तो एक ही काम था कि झूठ बोलो, झूठ बोलो और सिर्फ झूठ बोलो!

गुरुवार, 18 अप्रैल 2019

राज्य सत्ता के साथ रहे हैं नतीजे


लोकसभा में भाजपा की राह आसान नहीं
लोकसभा चुनाव को लेकर छत्तीसगढ़ में इस बार भी मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही है और अब तक के नतीजों में उसी पार्टी को फायदा मिला है जिसकी राज्य में सत्ता रही है। ऐसे में जब सरकार कांग्रेस की है तो क्या इस बार भी लोकसभा में कांग्रेस को ज्यादा सीटें मिलेगी।
छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव इसलिए भी रोमांचक हो गया है क्योंकि प्रदेश में कांग्रेस ने भारी बहुमत से सकार बनाई है और इस उत्साह के चलते कांग्रेस के मुख्यमंत्री भूपेश बघेलजहां 11 में से 11 सीटें जीतने का दावा कर रही है तो भाजपा अब भी कुछ नहीं बोल पा रही है।
छत्तीसगढ़ में तीन चरणों में मतदान के लिए दोनों ही पार्टियों ने अपने-अपने प्रत्याशियों की घोषणा कर दी है। भारतीय जनता पार्टी ने जहां सभी सीटों पर नये चेहरा उतारते हुए पुराने सभी दस सांसदों की टिकिट काट दी है तो कांग्रेस ने भी सभी सीटों पर रणनीतिक दांव खेला है। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ में 10 सीटों पर भाजपा ने जीत हासिल की थी तो कांग्रेस केवल दुर्ग सीट जीत पाई थी। यहां से चुनाव जीतने वाले ताम्रध्वज साहू राज्य की सत्ता में आ गए। इसलिए दुर्ग में भी कांग्रेस ने नये चेहरे दिये हैं।
छत्तीसगढ़ की राजनीति पर नजर डाले तो राज्य बनने के बाद यहां हुए पहली लोकसभा चुनाव बेहद दिलचस्प रहा और इस चुनाव में भाजपा ने दस सीटें जीती। भाजपा को केवल महासमुंद सीट से पराजय मिली। जहां से अजीत जोगी चुनाव जीते थे। भाजपा की राज्य सत्ता के बीच हुए इस चुनाव के बाद हुए दूसरे चुनाव में भी भाजपा ने दस सीटे जीत कर प्रदर्शन को दोहराया लेकिन इस बार कांग्रेस के चरणदास महंत ने कोरबा से जीत दर्ज की जबकि तीसरे चुनाव में कांग्रेस दुर्ग सीट ही जीत पाई।
तीनों चुनाव के दौरान भाजपा की राज्य में सरकारें थी और इसका फायदा भाजपा को मिला लेकिन इस बार राज्य की सत्ता कांग्रेस के पास है और ऐसे में पिछले तीन चुनाव से दस सीटें जीतने वाली भाजपा के लिए प्रदर्शन दोहरा पाना आसान नहीं है। अब तक के नतीजों से यह बात तो स्पष्ट है कि छत्तीसगढ़ में लोकसभा चुनाव का परिणाम राज्य सत्ता के अनुरुप रहा है यही वजह है कि छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने सभी सीटें जीतने का दावा कर रहे है जबकि भाजपा ने शायद यही वजह से अपने सभी सांसदों की टिकिट काटकर नये सिरे से रणनीति बनाई है।
इधर राजनीति के जानकारों का दावा है कि विधानसभा चुनाव में जिस तरह से कांग्रेस ने 68 सीट जीतकर भाजपा को पटखनी दी है उसके सदमें से भाजपा अभी भी उबर नहीं पाई है और यही वजह है कि नामांकन रैलियों में भी भाजपा के कार्यकर्ता उत्साहित नहीं दिखते। नामांकन रैलियां में जिस तरह से कांग्रेस में भीड़ दिख रही है वह एक संकेत माना जा रहा है। 

रविवार, 17 मार्च 2019

विरासत संस्कृति और काशी...



अब तक सरकारों पर जल-जंगल जमीन और आदिवासी संस्कृति को समाप्त करने का आरोप लगता रहा है लेकिन बनारस के सौंदर्यीकरण के नाम पर जो कुछ काशी में हुआ उससे हमारी सभ्यता, संस्कृति और विरासत पर खतरे के बादल मंडराने लगे है और यह सब वह सरकार कर रही है जो भारतीय संस्कृति की झलक के रुप में अपनी पहचान बताने की कोशिश करती है।
काशी में जिस तरह से सौंदर्यीकरण का खेल खेला गया वह हैरान और परेशान करने वाला इसलिए भी है कि आज पूरी दुनिया में प्राचीन धरोहरों, संस्कृति और शहरों को बचाने के उपाय किये जा रहे है। अपनी पुरानी पहचान को बनाने के इस जद्दोजहद में पुरातत्व विभाग से लेकर दुनियाभर के लोग लगे हैं तब सिर्फ एक सोमनाथ मंदिर की भव्यता को रेखांकित करने पुराने शङर को ही मिटा देने का काम शर्मनाक है जिस पर संस्कृति की दुहाई देने वालों का मौन इतिहास कभी नहीं भूलेगा और समय आने पर यह सवाल भी पूछा जायेगा कि हमारी प्राचीन पहचान को मिटा देने का अधिकार किसने दिया?
काशी आज से 7 साल पहले जब हम गये थे तब वहां पहुंचे विदेशी सैलानियों से जब हमने पूछा था कि वह काशी क्या बाबा विश्वनाथ के दर्शन करने आये हैं तब उनका उत्तर सुन हम हैरान थे और तब काशी को नये तरह से जानने की जिज्ञासा हुई थी। उस विदेशी ने कहा था 'काशी हम गंगा और यहां की गलियों में बसे शहर और 33 करोड़ देवी देवताओं को देखने समझने आये हैं।Ó  तब अनायास हमारा ध्यान गया था कि काशी की सिर्फ बाबा विश्वनाथ की नगरी नहीं है यह तो हमारी विरासत है हमारी सभ्यता और संस्कृति की पहचान है। छोटी-छोटी गलियों में विराजमान 33 करोड़ देवी देवताओं के प्रति हर गुजरने वालों की श्रद्धा ने ही इस प्राचीन नगरी को विश्व में अलग पहचान दी है। दुनिया के प्राचीन शहरों में गिना जाने वाला इस शहर को जब बदला जाने लगा तब किसी ने शोर क्यों नहीं किया। वहां रहने वालों ने इस बदलाव पर अपनी जुबान पर क्यों ताला लगाकर खून का आंसू टपकाते रह गये यह भी सवाल इतिहास में पूछा जायेगा।
इस बदलाव की वजह से बाबा विश्वनाथ अब अकेले हो गये हैं और पुराना काशी तस्वीरों और स्मृतियों में शेष रह जाएगा। पुराना चला गया और वर्तमान जो है क्या वह अंतिम विकल्प है। पौराणिक मान्यता और काशी के भीतर होने वाली अंतरग्रही यात्रा का क्या होगा। दीवारों और हर घर में मंदिर के इस शहर में हर कोई सेवाभाव से आते थे। काशी में स्वर्गद्वार यानी मोक्ष द्वार भी बने थे। घाट किनारे से बाबा विश्वनाथ तक गलियों की दीवारों में भी मंदिर थे और गलियों के कारण ही जिस काशी की विश्वव्यापी पहचान थी और विदेशी इन गलियों को देखने ही आते थे जो देश में और कहीं नहीं देखने को मिल सकता है। वहां के लोग तो यहां तक कह रहे हैं कि शरीर से प्राण निकाल दिया गया है। जहां 33 करोड़ देवी-देवताओं की मूर्तियां ही हटा दी गई यानी 33 करोड़ देवी-देवता ही नहीें रहेंगे तो काशी का क्या मतलब?
सवाल अनेक है लेकिन सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि आखिर इस तरह की प्राचीन शहरों की रक्षा कैसे हो। विकास और सौंदर्यीकरण के नाम पर कब तक सभ्यता का विनाश होता रहेगा। आने वाली पीढ़ी क्या देखेंगी? क्या वह समझ भी पायेगी कि भारतीय प्राचीन शहर कैसे होते थे? और सबसे बड़ा सवाल तो यह भी उठेगा की आखिर संस्कृति की दुहाई देने वाले ही सांस्कृतिक शहर को कैसे नष्ट करने का काम किया।

रविवार, 10 मार्च 2019

क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए?

  • क्या देश के प्रधानमंत्री को झूठ बोलना चाहिए? यह सवाल आम जनमानस में चर्चा का विषय है तो इसकी वजह प्रधानमंत्री के लगातार पकड़ाते झूठ ही है। वैसे तो झूठ बोलना पाप है यह बात बचपन में ही सिखाई जाती  है लेकिन जब देश के प्रधानमंत्री की कई बातें झूठी साबित हो तब यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि सत्ता शीर्ष पर बैठा व्यक्ति भी जब भरोसे के लायक नहीं रह गया है तब भला आम आदमी किसकी बातों पर भरोसा करे।लोकसभा चुनाव का बिगुल बज चुका है। नरेन्द्र मोदी की सरकार ने पांच साल क्या किया, जनता से किये वादों का क्या हुआ के बीच इन दिनों पूरे देश में सर्वाधिक चर्चा का विषय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का समय-समय पर झूठ बोलकर अपनी राजनीति चमकाने की शैली है। राजनीति चमकाने के इस खेल में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि क्या झूठ के बल पर आम जनमानस को असली मुद्दों से भटका दिया जाए और वे सिर्फ इस झूठ के सहारे सरकार चुन ले।

सवाल यह भी है कि क्या नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पद पर बैठकर जनसभा में झूठ बोलना चाहिए? सवाल इसलिए भी उठाये जा रहे हैं कि क्या लगातार बोले जाने वाले झूठ को भूल कहा जा सकता है। और इस पर जनमानस में क्या संदेश जायेगा।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की वाकपटुता के सभी कायल है उनके आक्रामक रवैये ने अनेक विरोधियों को धराशाही कर दिया है लेकिन इस सबके पीछे उनकी झूठ ने उनकी छवि को भी प्रभावित किया है। प्रधानमंत्री ने जनसभा में कितनी बार झूठ बोला इसका ठीक-ठाक आंकड़ा जारी करना मुश्किल हो सकता है लेकिन कहने वाले तो इसकी गिनती सौ से उपर गिन रहे है। हालांकि झूठ बोलने के मामले में हमारे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अभी भी अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप से बहुत पीछे है क्योंकि अमेरिकी मीडिया ने राष्ट्रपति ट्रंप के द्वारा झूठ बोलने की गिनती को 6 हजार से पार कर दिया है।
प्रधानमंत्री ने कब कहां और कितनी बार झूठ बोला इसे लेकर अलग-अलग दावे है। यू-ट्यूब और फेसबुक में किये जा रहे दावों के इतर हमने भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की झूठ को खोजने की कोशिश की तो प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने पहली झूठ कब कहा इसकी तारीख नहीं ढूंढ पाये लेकिन यह जरुर पता चला कि उन्होंने जनसभाओं में अनेकों बार झूठ बोला है। एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि संत कबीर, गुरुनानक देव और गुरु गोरखनाथ एक साथ बैठकर चर्चा करते थे जबकि तीनों के जन्म में शतकों का अंतर रहा है।
राजनीति चमकाने उनकी झूठ को लेकर इतने वीडियो वायरल हो रहे है कि इनमें सच को आसानी से छांटा जा सकता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक जनसभा में कहा कि महान क्रांतिकारी जब भगत सिंह जेल में बंद थे तब उनसे मिलने कोई कांग्रेसी नहीं गया लेकिन यह भी पूरी तरह से झूठ था क्योंकि तब जवाहरलाल नेहरु उनसे मिलने गए थे और 10 अगस्त की ट्यूबून में इस मुलाकात की पूरी रिपोर्ट छपी भी थी। इसी तरह भगत सिंह की फांसी को लेकर कहा गया कि महात्मा गांधी ने फांसी रुकवाने कोई प्रयास नहीं किया नहीं तो फांसी नहीं होती तब इसका भी खुलासा हो गया कि भगत सिंह की फांसी रुकवाने गांधी जी ने वायसराय को पत्र लिखा था।
इसी तरह एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बिहार में आयोजित जनसभा में कह दिया कि सिकन्दर जब भारत पर आक्रामण किया और राज्यों को जीतते हुए बिहार आया तो यहां के लोगों ने सिकन्दर को परास्त कर दिया। इस झूठ के बाद कुछ लोगों ने इसका वीडियो वायरल कर खूब मजा भी लिया। जबकि सिकन्दर ने कभी गंगा पार ही नहीं किया। लेकिन प्रधानमंत्री का भाषण मनोरंजन के लिए नहीं होना चाहिए और न ही मजाक बनना चाहिए लेकिन जब झूठ बोला जायेगा तो लोग मजाक उड़ायेंगे।
इसी तरह नरेन्द्र मोदी ने एक बार गुजरात की सभा में श्यामाप्रसाद मुखर्जी को गुजरात का सपूत बताते हुए कह दिया कि स्वामी विवेकानंद जी से श्री मुखर्जी चर्चा करते थे और दयानंद सरस्वती से उनकी चर्चा होती थी जबकि हकीकत यह है कि श्री मुखर्जी का जन्म 1901 को हुआ और स्वामी विवेकानंद 1902 को स्वर्ग सिधार गये थे। इतना ही नहीं दयानंद सरस्वती का निधन 1883 में ही हो गया था। अब यह बातचीत और दोस्ती कैसे संभव थी।
इतना कहकर ही नरेन्द्र मोदी नहीं रुकते है वे कहते हैं कि क्रांतिकारी मदनलाल ढिगरा ने श्यामप्रसाद मुखर्जी के कहने पर कर्नल वायली को मारा था जबकि हकीकत यह है कि जब मदनलाल ढीगरा ने कर्नल वायली को मारा था तब श्यामप्रसाद मुखर्जी की उम्र महज 8 साल थी। यही नहीं श्यामप्रसाद मुखर्जी का निधन 1930 में लंदन में होना बताया जबकि श्यामा प्रसाद जी का निधन कश्मीर में हुआ था और उनका जन्म गुजरात नहीं बंगाल में हुआ था। इसी तरह एक बार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि राहुल गांधी कहते हैं कि इस देश में 60 प्रतिशत अशिक्षित है तो आनलाईन बैकिंग की बात कैसे की जा सकती है जबकि राहुल गांधी ने यह बात कही ही नहीं थी। राहुल ने कहा था कि हिन्दुस्तान के एक प्रतिशत लोगों के पास हिन्दुस्तान का साठ प्रतिशत धन पकड़ा दिया है।
इसी तरह अमेरिका में नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि कोणार्क सूर्य मंदिर को दो हजार साल पुराना बताया तो वहां की मीडिया ने उनका खूब मजाक उड़ाया क्योंकि यह मंदिर सात सौ साल पुराना है। नवम्बर 2013 में एक रैली में महात्मा गांधी का पूरा नाम मोहनलाल करमचंद गांधी बता दिया इसे तकनीकी भूल मान भी ले तब भी स्वयं को गुजरात का बेटा कहने वाले के सामान्य ज्ञान पर सवाल तो उठेंगे ही। 
पटना के 2013 के बहुचर्चित रैली में कह दिया कि तक्षशिला बिहार की शान है जबकि तक्षशिला पाकिस्तान में हैं। इसी तरह उन्होंने जुलाई में अहमदाबाद की एक सभा कहा दिया कि आजादी के समय भारत का एक रुपया एक डालर के बराबर था कह दिया जबकि उस समय 1 रुपया एक पाउण्ड के बराबर थी। इसी तरह महाराष्ट्र में 26 मुख्यमंत्री होने की बात कही  जबकि यहां सिर्फ 17 मुख्यमंत्री हुए। इसी तरह जम्मू में मेजर सोमनाथ शर्मा को महावीर चक्र ब्रिगेडियर रजिन्दर सिंह को परमवीर चक्र मिला जबकि यह बिल्कुल उलट था।
नरेन्द्र मोदी का झूठ लगातार जारी है वे लालकिले से भी झूठ बोलने से परहेज नहीं किया। नरेन्द्र मोदी ने कह दिया कि स्वच्छता अभियान से 3 लाख बच्चों की जान बची है कह दिया जबकि आंकड़े कुछ और ही कहते है। लाल किले से ही उन्होंने कह दिया कि भारत के पासपोर्ट की बड़ी इज्जत है और वह नम्बर एक है जबकि वास्वत में इसमें जापान नम्बर एक पर है और भारत का नम्बर 65वां है। इसी तरह लाल किले में ही उन्होंने शहद के निर्यात के मामले में भी भारत का नम्बर एक बता दिया जबकि भारत इस मामले में 11वें नंबर पर है। इसी तरह मुद्रा लोन की तारीफ करते हुए कह दिया कि 13 करोड़ लोगों को बड़ा लोन दिया जबकि एक-डेढ़ प्रतिशत को ही इस तरह का लोन मिला। इसी तरह उनके चाय बेचने से लेकर डिग्री तक को लेकर सवाल कायम है। 
प्रधानमंत्री के झूठ पकड़े जाने का सवाल कितना बड़ा है और इसका चुनाव में क्या असर होगा यह तो भविष्य के गर्भ में है लेकिन आने वाली पीढ़ी के लिए यह शर्मसार करने वाली जरुर होगी। और यह भी संभव है कि किसी मां-बाप को झूठ बोलना पाप है समझाने के एवज में बच्चे ये न कह दे कि प्रधानमंत्री भी तो झूठ बोलते है।

राफेल की सीक्रेट फाइलें चोरी होने का अर्थ...
यह तो चोर की दाढ़ी में तिनका वाली कहावत को चरितार्थ करता है वरना राफेल घोटाले की जिन फाईलों को सरकार सीक्रेट बताती रही वह यूं इस तरह चोरी नहीं हो जाती। रक्षा मंत्रालय से फाईलों का वह भी राफेल का यूं चोरी चला जाना सरकार की नियत पर तो ऊंगली उठाता ही है। सरकार की मंशा भी स्पष्ट करने के लिए काफी है।
राफेल घोटाले के दस्तावेजों को देश हित में बताते नहीं थकने वाली सरकार इस दिशा में कितना गंभीर है कि महिने भर बाद भी न तो थाने में रिपोर्ट ही लिखी गई न ही चोर का ही पता चला। इतने महत्वपूर्ण दस्तावेज का चोरी होने का खुलासा सरकार सीधे सुप्रीम कोर्ट में तब करती है जब सुप्रीम कोर्ट के तेवर तल्ख होते हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि राफेल घोटाले को घर बैठे नकारने वाले भाजपा कार्यकर्ता भी इस बारे में सोशल मीडिया में खामोश रहकर अपनी देशभक्ति का प्रदर्शन कर रहे हैं। राफेल ख्ररीदी में घोटाला हुआ है या नहीं यह प्रश्न का खुलासा अब इसलिए भी जरुरी हो गया है क्योंकि इस मामले में जिस तरह से एक के बाद एक सरकार का झूठ सामने आ रहा है वह शर्मनाक है।
सुप्रीम कोर्ट में याचिका खारिज कराने जिस तरह से कैग की रिपोर्ट पेश करने का झूठ बोला गया और बाद में इसे टंकन त्रुटि बताया गया तभी से ही सरकार की नियत पर सवाल उठने लगा था। हालाकि सरकार की नियत पर सवाल तो उसी दिन से उठने लगा था जब डिफाल्टर हो चुकी अंबानी की नई नवेली कंपनी को पार्टनर बना दिया गया था। लेकिन प्रधानमंत्री इसे विपक्ष का झूठ बताते रहे। और अब जब रक्षा मंत्रालय जैसी जगह से सीक्रेट फाईलों का चोरी होना सरकार के कामकाज पर तो सवाल उठा ही रहे हैं नियत पर भी सवाल उठना स्वाभाविक है।

मोदी है तो मुमकिन है का नया जुमला..

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अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता तक पहुंची मोदी सरकार ने बालाकोट एयर स्ट्राईक के बाद मोदी है तो मुमकिन है के नये नारे के सहारे 2019 में होने वाली सत्ता की लड़ाई को जीत लेना चाहती है। युद्ध उन्माद से पैदा हुए इस नये नारे की गूंज पार्टी दफ्तर से लेकर सोशल मीडिया में हथियार के रुप में इस्तेमाल किया जाने लगा है और केन्द्र सरकार के हर विभाग ने प्रधानमंत्री नरेन्द्री मोदी के फोटो के साथ नामुमकिन अब मुमकिन है का नारा भी अपने विज्ञापनों में चिपकाने लगा है।
सूचना तंत्र की घोर लापरवाही और सरकार की असफलता के बीच मोदी राज में एक के बाद एक हुए बड़े आतंकवादी हमले के पहले ही अच्छे दिन आयेंगे का नारा जब जुमला में तब्दिल होकर किसान, बेरोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य का मुद्दा हावी होने लगा था। मोदी सरकार की हार साफ दिखलाई देने लगा था तब पुलवामा के बाद बालाकोट में हुए एयर स्ट्राईक ने एक बार फिर नरेन्द्र मोदी को संजीवनी देने की कोशिश की।
हिन्दू मुस्लिम मंदिर मस्जिद और भारत पाक का मुद्दा हमेशा से ही राजनेताओं के लिए सत्ता की सीढ़ी रहा है। ऐसे में जब-जब किसान और बेरोजगारी का मुद्दा बड़ा होने लगता है सत्ता के लिए परेशानी बढऩे लगती है और तब सत्ता में बने रहने के लिए ऐसे हथियारों का इस्तेमाल होता है जिसमें उसके अपने फायदे हो।
2014 में अच्छे दिन आयेंगे के नारे के साथ सत्ता में आई मोदी सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती किसान और बेरोजगारी के मुद्दे थे। भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल की नियुक्ति के अलावा स्वास्थ्य और शिक्षा के मुद्दे बड़ी चुनौती थी। आतंकवाद और भ्रष्टाचार के अलावा राम मंदिर से लेकर धारा 370 को हटाने का मामला भी मोदी सरकार के लिए चुनौती भरा था। इनमें से सरकार ने किस दिशा में बेहतर काम किया यह सरकार भी नहीं बता पायेगी। लोगों की सरकार से उम्मीद टूटने लगी और विपक्ष मुद्दों को लेकर सरकार पर तीखे हमले शुरु किये तो सरकार इससे बच निकलने का रास्ता ढूंढने लगी। उपर से नोटबंदी और जीएसटी की मार से व्यापार तो प्रभावित हुआ ही लाखों नौकरी भी चली गई।
कहां तो तय था चिरागा हर शहर के लिए
ज मयस्सर नहीं एक घर के लिए

हर साल दो करोड़ बेरोजगारों को नौकरी देकर अच्छे दिन लाने का वादा था लेकिन नौकरी छिनी जाने लगी। कम होती नौकरी में युवाओं ने स्वयं को ठगा महसूस करना शुरु कर दिया और लोग कहने लगे कि इससे अच्छा तो वही दिन थे। अच्छे दिन लाने का वादा जुमला साबित हो गया। तीन बड़े राज्यों के चुनाव को सेमीफाइनल बताने के बाद भी भाजपा सत्ता से बेदखल कर दी गई। संवैधानिक संस्थाओं के औचित्य का सवाल बड़ा होने लगा और सबसे बड़ी बात तो आतंकवाद के मसले जस के तस खड़े दिखाई दिये। मोदी राज में आतंकवादियों के बड़े हमलों की वजह से सीमा और कश्मीर से आती शहीदों की लाश से लोगों का गुस्सा बढऩे लगा। सरकार के खुफिया तंत्र की असफलता ने मोदी सरकार की परीक्षा ही नहीं ली बल्कि लोगों ने फेल करना भी शुरु कर दिया।
उरी हमले के बाद किये गये सर्जिकल स्ट्राइक की चमक को भुनाने में लगी भाजपा के लिए पुलवामा की घटना सत्ता छिनते नजर आई तब एक बार फिर राष्ट्रभक्ति और देशद्रोही का प्रमाण पत्र बांटने का सिलसिला शुरु हो गया। बालाकोट में किये हवाई हमले को भुनाने युद्ध उन्माद तक ले जाया जाने लगा। इस मामले में कई टीवी चैनलों ने तो बालाकोट में तीन साढ़े तीन सौ आतंकवादियों के मारे जाने की खबर बगैर पुष्टि किये चला दी। उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो हमले वाले दिन दोपहर को ही चार सौ आतंकवादियों को मारने का दावा कर दिया और भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह ने तो ढाई सौ मार गिराने का दावा किया गया। स्वयं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी अपनी हर सभा में बालाकोट की कार्रवाई का न केवल जिक्र करते रहे बल्कि घर में घुसकर मारने की घोषणा करते रहे।
युद्ध उन्माद के बीच किसान, बेरोजगार स्वास्थ्य-शिक्षा जैसी बुनियादी मुद्दों से जुड़ी खबरें गायब होने लगी। हिन्दू मुस्लिम और भारत पाक के इस उन्माद में भाजपा को अपनी बात दिखलाई देने लगी और यहीं से एक नया नारा निकला मोदी है तो मुमकिन है।
लेकिन अब सवाल यह है कि क्या मोदी है तो मुमकिन है का यह नारा अच्छे दिन आयेंगे की तरह आम जनमानस के विश्वास पर खरा उतरेंगी। इस नारे की विश्वसनियता बनाये रखने क्या देश की जनता में जारी युद्ध उन्माद को चुनाव तक बनाये रखा जा सकता है और युद्ध उन्माद बना रहे इसके लिए भाजपा क्या करेगी। यह उसके लिए बड़ी चुनौती है। 
क्योंकि जब यह उन्माद उतरेगा तब फिर जो सवाल उठेंगे वह मोदी सरकार की राह में बाधा डालेंगे। नोटबंदी और जीएसटी की मार से परेशान व्यापारी, नौकरी के अभाव में बेरोजगार युवा, किसान, शिक्षा और स्वास्थ्य का सवाल फिर खड़ा होगा तब लोग पूछेंगे कि मोदी के रहते जब सब मुमकिन है तो अच्छे दिन क्यों नहीं आयें?

सोमवार, 4 मार्च 2019

अडानी को परसा कोल ब्लॉक देने राजस्थान का सहारा लिया मोदी सरकार ने


सत्ता बदली पर अडानी की सत्ता बरकरार
विशेष प्रतिनिधि
केन्द्र में बैठी नरेन्द्र मोदी   सरकार पर अडानी प्रेम का जो आरोप लगता है वह कितना सही है यह जानने के लिए सरगुजा के परसा कोल ब्लॉक के आंबटन प्रक्रिया को जानना समझना होगा। परसा कोल ब्लॉक आबंटित करने जिस तरह से राजस्थान बिजली बोर्ड को माध्यम बनाया गया उससे यह सवाल तो उठता ही है कि आखिर अपने निजी हित के लिए जल जंगल जमीन की बर्बादी कब तक की जाती रहेगी।
छत्तीसगढ़ में जल जंगल जमीन का मसला नया नहीं है। विकास के नाम पर संसाधनों की लूट और बरबादी का आलम यह है कि अपने ही जमीन से बेदखल होते आदिवासियों की पीड़ा कौन सुने? पिछले 15 सालों में जनसुनवाई की आड़ में सरकारी गुण्डागर्दी चरम पर रही और औद्योगिक आतंकवाद ने सवाल उठाने वालों की गर्दन दबोचने की कोशिश की। अडानी प्रेम ने तो परसा कोल ब्लॉक में आदिवासियों की ही नहीं जल जंगल जमीन पर्यावरण सब की बरबादी का नया इतिहास लिख दिया।
केन्द्र में बैठी नरेन्द्र मोदी के कार्पोरेट प्रेम को लेकर विरोधियों ने जो सवाल खड़ा किये है उसका प्रमाण परसा कोल ब्लॉक सबके सामने है।

कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी से लेकर भूपेश बघेल के द्वारा अडानी पर सीधे हमला किया जाता है तो इसकी वजह परसा कोल ब्लॉक के आबंटन की प्रक्रिया और इससे बरबाद होता पूरा क्षेत्र है।
सवाल तो यह भी उठ रहा है कि अब जब सत्ता बदल गई है तब भी अडानी की सत्ता बरकरार क्यों है? हालांकि केन्द्र की नीति के चलते छत्तीसगढ़ सरकार के पास परसा कोल ब्लॉक के आबंटन को रद्द करने का कोई अधिकार नहीं है लेकिन वह आदिवासियों के साथ खड़ी होकर जल जंगल जमीन की बरबादी को रोकने कड़ा कदम उठा सकती है।
हमने इसी जगह पर पहले ही परसा कोल ब्लाक के आबंटन के तरीके को लेकर सवाल उठाते हुए राज्य सरकार के अधिकारों के हनन का सवाल उठाया है।
दरअसल मोदी सरकार ने जिस तरह से कोल ब्लॉक के आबंटन के नियमों में बदलाव किया है उसके बाद राज्य के लिए ज्यादा कुछ करने को नहीं रह गया है। नये नियम के चलते ही छत्तीसगढ़ सरकार के वन विभाग की आपत्ति के बाद भी अडानी को कोल ब्लॉक दे दिया गया। हालांकि तब राज्य में भाजपा की रमन सरकार थी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की मंशा के विपरित जब किसी भाजपा नेता में जाने का साहस नहीं रह गया हो तब राज्य की हित ही बेमानी हो जाती है।
सूत्रों की माने तो अडानी को परसा कोल ब्लॉक आबंटित करने जिस तरह से खेल खेला गया वह सत्ता और कार्पोरेट जगत के सांठगांठ का अनूठा उदाहरण है। केन्द्र पहले नीति बनाती  है कि कोल ब्लॉक के आबंटन में राज्य की राय कोई मायने नहीं रखेगा और सीधे आरोप से बचने के लिए नियम में यह भी जोड़ दिया जाता है कि कार्पोरेट घराने को कोल ब्लाक पाने का अधिकार तभी होगा जब वह किसी सरकारी या सार्वजनिक कंपनी से भागीदारी करनी होगी।
सूत्रों का कहना है कि अडानी को परसा कोल ब्लाक इसी नये नियम के तहत दिये गये और इसके लिए भाजपा शासित दो राज्यों को चुना गया। इस खेल के तहत सबसे पहले अडानी की कंपनी ने राजस्थान बिजली बोर्ड से समझौता करती है समझौते के तहत राजस्थान बिजली बोर्ड 76 फीसदी शेयर अडानी को देने राजी हो जाता है और सिर्फ 24 फीसदी में राजस्थान बिजली बोर्ड तैयार हो जाती है तो इसकी वजह राजस्थान में बैठी भाजपा सरकार को माना जाता है। 
सूत्रों की माने तो मोदी सरकार ने अडानी के लिए राजस्थान की वसुधरा रकार पर दबाव भी बनाया था और जैसे ही राजस्थान बिजली बोर्ड से अडानी की कंपनी का समझौता होता है। परसा कोल ब्लॉक को तमाम आपत्तियों और परिस्थितियों को नजर अंदाज कर अडानी की कंपनी को आबंटित कर दिया जाता है।
सूत्रों की माने तो इस आबंटन के बाद रमन सरकार पर अडानी को सहयोग करने का दबाव भी डाला गया। यही वजह है कि 21 सौ हेक्टेयर में परसा कोल ब्लाक के अंतर्गत आने वाले करीब दर्जनभर गांव के आदिवासियों की जमीन फर्जी जनसुनवाई और झूठे वादों के आधार पर कंपनी के पास चली जाती है। बताया जाता है कि जनसुनवाई के दौरान सामाजिक कार्यकर्ताओं को शांति भंग करने के आरोप में हिरासत में ले लिया जाता है तो जमीन नहीं देने पर अड़े आदिवासियों को भय दिखाया गया।
सूत्रों की माने तो कोल ब्लाक आबंटन से पहले यह क्षेत्र हाथी कारीडोर के लिए सुरक्षित क्षेत्र घोषित किया गया था, यही नहीं महत्वपूर्ण वन क्षेत्र के अलावा जीव जन्तुओं के लिए भी यह क्षेत्र सुरक्षित रहा है लेकिन खनन के लिए रोज होने वाले धमाकों ने इस क्षेत्र की सुख शांति छीन ली है और अब देखना है कि जब दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की सरकार सत्ता में है तब राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी का रुख क्या होता है।

रविवार, 3 मार्च 2019

अमेरिका, चीन का फिर सरपंच बनने की कोशिश


विशेष प्रतिनिधि
रायपुर। पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले और भारत की बालाकोटा में एयर स्ट्राईक के बाद दोनों देशों के बीच जिस तरह से युद्ध के हालात बने थे वह पायलट अभिनंदन की वापसी के बाद सुधरे हैं लेकिन आतंकवाद बीमारी समाप्त हो गये हैं यह सोचना ही गलत होगा। दोनों देश में युद्ध न हो इसकी कोशिश में दोनों ही देश के लोग लगे है लेकिन दोनों देशों के तनाव का फायदा उठाकर अमेरिका-चीन सहित कई देश सरपंच बनने की कोशिश में लगा है। भारत ने रणनीतिक जीत हासिल कर ली है लेकिन आतंकवाद पर जीत दर्ज करना बाकी है।
पुलवामा में आतंकवादी कार्रवाई में जिस तरह से हमारे चालीस जवान और अफसर शहीद हुए थे उसके बाद देश में आतंकवादियों के खिलाफ आक्रोश के स्वर फुटने लगे थे। सरकार के खिलाफ ही नहीं पाकिस्तान के खिलाफ गुस्सा फुटने लगा था। मोदी सरकार पर बदला लेने का दबाव बढ़ता ही जा रहा था। फिर सेना ने पाकिस्तान के बालाकोट में जिस तरह की कार्रवाई की उसके बाद दोनों देशों के बीच युद्ध का माहौल बनने लगा था। हालांकि बालाकोट की घटना के कुछ ही घंटों बाद पाकिस्तान ने भारतीय सीमा में घुसने की कोशिश की लेकिन हमारी सेना ने इसे नाकामयाब कर दिया। इस आपाधापी में हमारा एक पायलट पाकिस्तान के कब्जे में चला गया और फिर तनाव और बढ़ गया।
भारत और पाक के बीच युद्ध के हालात बनने लगे थे और भारत हर हाल में पाक के खिलाफ पूरे विश्व को एक करने की कोशिश को सफल बनाता जा रहा था। पायलट अभिनंदन की वापसी की घोषणा पाकिस्तान को करनी पड़ी।
दोनों देशों के बीच इस हालात का फायदा उठाकर अमेरिका-चीन सऊदी अरब सहित कई देश सरपंची हासिल करने में लग गये जबकि भारत का स्पष्ट मत है कि दोनों देश की लड़ाई में किसी की भी मध्यस्थता स्वीकार नहीं की जायेगी।
पाकिस्तान के द्वारा पायलट अभिनंदन की वापसी की घोषणा को भारत की रणनीतिक जीत के रुप में देखा जाना चाहिए लेकिन इस जीत की खुशी में हमें यह नहीं भुलना चाहिए कि इससे आतंकवाद की बीमारी खत्म नहीं हुई है और जब तक पाकिस्तान आतंकवादियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई नहीं करती तब तक पाकिस्तान पर पूरी तरह विश्वास कर लेना हमारी भूल होगी।
अंधी राष्ट्रीयता न कहे क्योंकि राष्ट्रीयता हमेशा अंधी होती है। भले ही रुस के इतिहासकार ने यह बात किसी और संदर्भ में कही हो लेकिन यह भारत-पाक के बीच तनाव के समय साफ तौर पर देखी जा सकती है। तनाव के इस माहौल में जिस तरह से कुछ दक्षिणपंथी और इलेक्ट्रानिक मीडिया ने विषवमन किया उससे आम लोगों के लिए खतरनाक माना जाना चाहिए। जिस तरह से न्यूज चैनलों ने मार डालो, काट डालो की भाषा का इस्तेमाल किया वह हैरान करने वाला ही नहीं शर्मनाक भी रहा। ये इस तरह की भाषा का इस्तेमाल कर रहे थे जिसे आतंक की भाषा कहना गलत नहीं होगा।
इस मामले में राजनीति साधने की कोशिश हुई। यहां तक की राममंदिर तक के मुद्दे गौण हो गये, राफेल, बेरोजगार, किसानों के मुद्दे की बात तो छोडिय़े, संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा वाले मुद्दे पर भी कोई बोलने को तैयार नहीं था। यह सही है कि 1971 के बाद पाकिस्तान के खिलाफ हुई इस सबसे बड़ी कार्रवाई ने भारतीय जनता पार्टी के लिए संजीवनी का काम किया है और अब तक सत्ता जाने का डर लिये बैठी भाजपा को अब सत्ता में वापसी का भरोसा मिला  है लेकिन अभी चुनाव में समय है देखना है कि भाजपा को इसका कितना फायदा मिलता है।
कर्नाटक भाजपा के नेता यदिरप्पा ने जिस तरह से एयर स्ट्राईक के बाद कर्नाटक में 28 सीटों में से 22 सीट जीतने का दावा किया है। उसके बाद राहत इंदौरी का यह शेर पुन: याद आता है कि 
सरहदों पर बहुत तनाव है क्या
पता तो करो कहीं चुनाव है क्या

मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

नजर...


लोकसभा के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। भाजपा कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दलों की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा टिकी है। जनता का समर्थन हासिल करने सभी पार्टियां अपने अपने ढंग से लुभाने की कोशिश में लगी है। इसके साथ ही एक दूसरे के पापों को गिनने का खेल भी शुरु हो गया है और इस खेल में भाषा की सारी मर्यादाएं लांघी जा रही है। बड़़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों की भाषा मोहल्लों के गुण्डों बदमाशों की भाषा से भी बदतर हो चली है।
2014 में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह से देशव्यापी माहौल अन्ना और रामदेव बाबा ने बनाया था उसका फायदा भाजपा को मिला था लेकिन जिस लोकपाल आंदोलन के चलते भाजपा को सत्ता मिली थी सरकार बनते ही वह भी भूल गई। लोकपाल नहीं बना क्योंकि कोई भी नेता नहीं चाहता कि लोकपाल बने। यही हाल अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर में धारा &70 और देश में एक समान कानून का है। नरेन्द्र मोदी की सरकार की ऐसी कोई उलब्धि नहीं है जिसकी वजह से इस सरकार की पीठ थपथपाई जाये। मोदी सरकार ने उन्हें मुद्दों को हवा दी जिसका राजनैतिक फायदा मिले। गाय, तीन तलाक और आर्थिक आरक्षण को लेकर बखेड़ा खड़ा किया गया लेकिन गंगा की सफाई को लेकर कोई खास काम नहीं हुआ। गंगा की चिंता करने वाले बाबा ्अग्रवाल जी को तो अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में बेरोजगारी और किसान के मुद्दे को हाशिये पर डाला गया तो नोटबंदी और जीएसटी की मार को लोग अब तक नहीं भूले हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मोदी सरकार पुन: सत्ता में आने के लिए क्या करेंगी।
बेरोजगारों और किसानों के घोर निराशावादी के इस दौर में सरकार को वेलफेयर का काम भी बोझ लगने लगा है। हालांकि किसानी इस चुनाव का बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है लेकिन क्या मुद्दा चुनाव तक रहेगा? और यदि चुनाव तक यह मुद्दा रहा तो क्या भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे को बना रहने देगी?
दरअसल भाजपा भले ही राजनीति सुचिता की दुहाई देते हुए विकास की बात करती है लेकिन हकीकत तो यही है कि वह इसके सहारे सत्ता को कायम नहीं रख पायेगी इसलिए ुउसकी कोशिश होगी कि अयोध्या, हिन्दू मुस्लिम ही मुद्दा बने ताकि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा मिल सके।
ऐसे में बरेली के उभरते हुए युवा कवि मध्यम सक्सेना की यह पंक्ति याद आती है-
नजर वालों की कहां रब पे नजर है साहेब
मगर जो रब है उसकी सबपे नजर है साहेब
जिस सियासत का खुद का ईमान ही नहीं उसकी
आपके और मेरे मजहब पे नजर है साहेब।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

अडानी का विकास सरगुजा का विनाश


0 परसा कोल ब्लॉक के नाम पर जंगल व आदिवासियों की बर्बादी
0
सामाजिक कार्यकर्ता प्रताडि़त कई आदिवासी जेल में 
0 नदी प्रदूषित, अवैध रुप से जंगल काटे जा रहे हैं
0 जमीन ले ली न नौकरी दी न मुआवजा
0 मोदी के कार्पोरेट प्रेम का नजारा
0 बरबाद होते जल जंगल जमीन पर खामोशी
0 वन्य जीवों के लिए मुसीबत
0 सरकार बदली पर अडानी की सत्ता बरकरार
0 टीएस बाबा भी निशाने पर, उनका विस क्षेत्र 
0 दस गांव के लोग आंदोलित

छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में मोदी सरकार ने जिस तरह से अपने कार्पोरेट प्रेम का उदाहरण देते हुए तमाम आपत्ति के बावजूद अडानी ग्रुप को परसा कोल ब्लॉक में खनन का ठेका दे दिया उससे पूरा इलाका बरबाद होने लगा है वन्य प्राणियों के लिए तो यह क्षेत्र मुसिबत तो बना ही है आदिवासियों के सामने उजड़ जाने का संकट खड़ा हो गया है। बरबाद होते जल जंगल जमीन के लिए नियमों की ही नहीं संविधान के मूल भावना का भी उल्लघन किया जा रहा है। एक तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सहित कई नेता सीधे अडानी पर हमला कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अडानी के उत्याचार का विरोध करने वालों को पिट कर जेल में ठूंसा जा रहा है। नदी प्रदूषित होने लगा है। अवैध रुप से जंगल काटे जा रहे हैं, जमीन ले ली लेकिन नौकरी नहीं दी और टीएस बाबा का प्रेम के चलते इस अत्याचार के खिलाफ दस गांव के आदिवासियों में आंदोलन की तपीश साफ महसूस की जा सकती है। (एक रिपोर्ट)
सरगुजा के उदयपुर का यह इलाका इन दिनों कोल ब्लॉक के धमाके से थर्राता हुआ साफ संकेत दे रहा है कि राज्य में सत्ता तो बदली लेकिन अडानी की सत्ता अब भी बरकरार है। परसा कोल ब्लॉक के नाम पर जिस तरह से जंगल व आदिवासियों को बरबाद किया जा रहा है उसका कोई विरोध भी नहीं कर सकता क्योंकि विरोध करने वालों को न केवल मारा पिटा जाता है बल्कि जेल में बंद करवा दिया जाता है। पूरे इलाके में भय का वातावरण है और पहले ही विकास से वंचित आदिवासी समाज अपने घर से बेदखल होने को मजबूर है।
दरअसल यह दर्दनाक कहानी मोदी सरकार के उस नीति से शुरु होती है जिसके तहत बगैर राज्य की मर्जी के केन्द्र सरकार किसी को भी कोयला ब्लाक का आबंटन कर सकती है और इसके लिए मोदी सरकार ने तत्कालीन भाजपा शासित राज्य राजस्थान को माध्यम बनाया। राजस्थान बिजली निगम को केवल 24 फीसदी का भागीदार बनाकर अडानी को सरगुजा में परसा कोल ब्लाक आबंटन कर जल जंगल जमीन आदिवासियों और वन्य जीवों को बरबाद करने की जो छूट दी गई वह सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है। तब राज्य में रमन सिंह की सरकार थी और रमन राज के शह में अडानी ने जल जंगल जमीन को बरबाद करने का ऐसा कुचक्र किया जिसमें आदिवासी भी बरबाद होने लगे। कुचक्र कर आदिवासियों की जमीने छीनी जाने लगी। उन्हें भरपूर मुआवजा और परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने के नाम पर ठगा गया। पक्का मकान का लालच दिया गया और जमीन लेने फर्जी तरीके से जन सुनवाई की गई। अडानी के इस अत्याचार का जब सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासियों ने विरोध किया तो उन्हें रमन सरकार के इशारे पर पुलिस ने शांति भंग करने का आरोप लगाकर पिटने लगी और जेल में ठूंसने लगी।
बरबाद होते जल जंगल जमीन और आदिवासी प्रताडऩा को लेकर तब कांग्रेस ने सीधे मोदी और अडानी पर हमले किये यहां तक कि राहुल गांधी और भूपेश बघेल ने अपने हर भाषण में अडानी और मोदी के गठजोड़ की सीधे हमले किये और यह हमला अब भी जारी है। हालांकि अडानी के मामले में उस क्षेत्र के विधायक टीएस सिंहदेव का रुख नमर रहा लेकिन अपना सब कुछ बरबाद होते देख रहे आदिवासियों को भूपेश बघेल से उम्मीद है।
सूत्रों की माने तो इस क्षेत्र को पहले राज्य सरकार हाथी अभ्यारण प्रोजेक्ट के लिए सुरक्षित रखा था और तत्कालीन वन सचिव ने यहां कोल ब्लॉक के लिए आबंटित करने की मंशा पर आपत्ति भी की थी लेकिन कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब अडानी को यह क्षेत्र कोल ब्लॉक के लिए देने की घोषणा की तो रमन सरकार खामोश रह गई।
दूसरी तरफ राहुल गांधी आदिवासियों और किसानों के हित में बात करते रहे और इस भरोसे का नतीजा है कि भाजपा को छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में हार का मुंह देखना पड़ा। भाजपा की सत्ता जाते ही अडानी को गरियाने वाले भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बन गये अब देखना है कि वे इस मामले को किस तरह से निपटते है जबकि मोदी सरकार परसा कोल ब्लॉक के बाजू की जमीन भी अडानी को देने की तैयारी कर रही है।
कौशल तिवारी

सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

झूमा-झटकी

बदलापुर...
कहते हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुंदक पाल कर चलने वाले नेता हैं और वे उन लोगों को कभी नहीं छोड़ते जो उनसे टेढ़ापन दिखाने की कोशिश करते हैं। यही वजह है कि डॉ. रमन सिंह इन दिनों परेशान है। दरअसल नरेन्द्र मोदी ने बहुत पहले ही डॉ. रमन सिंह को राÓय की राजनीति छोड़ केन्द्र में आने का न्यौता दिया था लेकिन मुख्यमंत्री के रुतबे की वजह से उन्होंने तब मोदी जी को न कर दिया था और फिर छत्तीसगढ़ में पराजय के बाद जब डॉक्टर साहब ने राÓय की ही राजनीति करने की घोषणा की तो मोदी जी को यह नागवार गुजरा और उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुलवा लिया। हार के सदमें से अभी वे उबर ही नहीं पाये थे कि इस नये उलटफेर ने उन्हें सकते में ला दिया और वे चुपचाप स्वीकार कर दिल्ली अधिवेशन में शामिल हो गए।
गुरता का हिसाब चुकता
कभी अजीत जोगी के शासन काल में ताकतवर पुलिस अफसर रहे मुकेश गुप्ता ने जब रायपुर एसएसपी रहते हुए भाजपाईयों के हाथ पैर तुड़वाये तब सत्ता बदलते ही उनके लूपलाईन में जाने का कयास लगाया जा रहा था लेकिन भाजपा सरकार में भी मुकेश गुप्ता ताकतवर बने रहे। हालांकि मार खाये भाजपाईयों की चाहत रही थी कि गुप्ता जी के खिलाफ कार्रवाई हो लेकिन रमन राज में जब अफसरशाही हावी हो तो गुप्ताजी जैसे अफसरों का कोई कैसे कुछ बिगाड़ सकता था लेकिन 15 साल का राज समाप्त हुआ तो पहली गाज मुकेश गुप्ता पर ही गिरी। इस कार्रवाई से जहां कांग्रेसी खुश है वहीं भाजपा का एक बड़ा वर्ग भी जश्न मना रहा है।

अमितेष का दर्द...
कभी प्रदेश और देश की राजनीति के प्रभावशील माने जाने वाले शुक्ल परिवार के इकलौते राजनीतिक वारिस अमितेष शुक्ल को इन दिनों अपने अस्तित्व के संकट के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है तो इसकी वजह वे स्वयं है। पिछला चुनाव हार जाने के बाद तो जैसे सब कुछ समाप्त माना जा रहा था लेकिन कांग्रेस ने राजनैतिक विरासत के नाम पर टिकिट दी और कांग्रेस की लहर के चलते वे जीत भी गए। लेकिन मंत्री  बनने की ई'छा पूरी नहीं हो सकी।
अमितेष के साथ ऐसा अविभाजित मध्यप्रदेश के समय भी हो चुका है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चाचा-पापा का खेल अमितेष के साथ खूब खेला था लेकिन इस बार तो सब कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है और यही स्थिति रही तो आने वाले दिनों में अमितेष की राजनीति को भी ग्रहण लगना तय है।
पैसे का प्रभाव
कोरबा से विधायक चुनकर आने वाले जयसिंह अग्रवाल का मंत्री बन जाना सबके लिए आश्चर्य का विषय था लेकिन जो लोग बिलासपुर की राजनीति को नजदीक से देख रहे थे उनके लिए यह हैरानी से Óयादा महंत की ताकत का आकलन का मौका था। दरअसल सोशल मीडिया के जमाने में कुछ भी चीज छुपाना आसान नहीं रह गया है फिर प्रदेश की राजनीति में कौन किसके साथ और किस दम पर है यह बात तो और भी आसानी से जाना जा सकता है। छत्तीसगढ़ी अभियान में जयसिंह के मंत्री बनने को लेकर तो सवाल किये जाते ही रहे, मंत्री बनने की वजह को लेकर भी दिलचस्प कारण गिनाये गये। जयसिंह के लिए दिक्कत यह है कि वे अपने पैसे के प्रभाव को नकार भी नहीं सकते।
प्रमोद का पीड़ा...
यह तो खाया पिया कुछ नहीं गिलास तोड़ा दो रुपये का वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना लोकसभा चुनाव लडऩे को इ'छुक प्रमोद दुबे को लेकर इन दिनों इस तरह की चर्चा नहीं होती।
अपनी वाक पटुता और न काहू से दोस्ती न काहू से बैर की तर्ज पर छात्र राजनीति से राजधानी के महापौर पद तक पहुंचने वाले प्रमोद दुबे के सामने लोकसभा की टिकिट को लेकर जिस तरह की चर्चा है वह प्रमोद दुबे के लिए भी चिंता का सबब बनता जा रहा है।
दरअसल कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ चुनाव लडऩे से मना करने की वजह से इस चर्चा को बल मिल रहा है कि उनकी टिकिट की राह में सेटिंग कहीं रोढ़ा न बन जाए। अब प्रमोद दुबे सफाई देने मजबूर है फिर चर्चा यह भी है कि एक बार मना करने वाले की मुसिबत कभी कम नहीं हुई है और राजनीति के जानकार सोमनाथ साहू का उदाहरण रखने से भी गुरेज नहीं करते।

न राम मिली न माया
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त्रीय पार्टी बनाकर छत्तीसगढ़ की राजनीति में किंग मेकर बनने की चाह रखने वाले अजीत प्रमोद जोगी की स्थिति इन दिनों न राम मिली न माया की तरह हो गई है। जकांछ सुप्रीमों को यह भरोसा था कि कांग्रेस और भाजपा को किसी भी हाल में बहुमत नहीं मिलेगी और वे 5-7 जीतकर किंग मेकर की भूमिका में होंगे लेकिन कांग्रेस की लहर ने उनका सारा गणित बिगाड़ दिया यहां तक कि उनकी बहु ऋचा जोगी भी चुनाव हार गई। ऐसे में भले ही वे राष्ट्रीय पार्टी बनाकर खुश हो रहे हो लेकिन पार्टी के भीतर जिस तरह से बवाल मचा है और पार्टी से जुड़े लोग कांग्रेस का दामन थाम रहे है वह उनके लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है। हालत यह है कि उनके साथ जुड़े पूर्व विधायक ही नहीं कुछ वर्तमान विधायक भी पार्टी दफ्तर जाना छोड़ दिये हैं।


दामाद बाबू दुलरु
इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति में दामाद बाबू फिर से विवाद में आ गये हैं। इस बार विवाद की वजह अंतागढ़ टेप कांड है और इस टेप कांड के मुताबिक कांग्रेस प्रत्याशी से लेन देन का मामला है।
ऐसा नहीं है कि दामाद बाबू पहली बार विवाद में आये हैंं। इनका विवादों से पुराना नाता है यही वजह है कि शहर के प्रसिद्ध डाक्टर जेबी गुप्ता के इस पुत्र का मेडिकल की पढ़ाई के दौरान के कारनामें चर्चा में रहे और उनका पहला विवाह भी चर्चा और विवादों से बच नहीं पाया। इसके बाद उनका तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह का दामाद बनना भी विवाद में रहा और कहा जाता है कि इस दामाद के लिए बमुश्किल से डॉक्टर साहब बड़ी मुश्किल से राजी हुए थे।
इसके बाद उन्हें जब डीकेएस का प्रभार सौंप कर लंबा-चौड़ा बजट बनाया गया तब डीकेएस में भर्ती और खर्च का भी विवाद होता रहा और फिर मामला अंतागढ़ टेपकांड का आया। लेकिन दामाद बाबू तो दामाद बाबू है और इसके लिए डाक्टर साहब क्या कुछ करेंगे यह भी चर्चा में है।
मनोज की उम्मीद...
छत्तीसगढ़ की राजनीति में कभी अजीत जोगी के नाक की बाल माने जाने वाले मनोज मंडावी को अब भी भरोसा है कि जोगी खेमा छोडऩे का फायदा उन्हें मिलेगा और मंत्रिमंडल में जो एक जगह बची है उस पर उसके नाम की मुहर लगेगी।
अजीत जोगी के लिए सीट छोडऩे की घोषणा करने की वजह से कभी मंत्री रहे मनोज मंडावी के बारे में कहा जाता था कि वे जोगी के ईशारे पर ही बागी होकर चुनाव लड़े थे। ऐसे में उनका जोगी खेमा छोडऩा अ'छे-अ'छे राजनैतिक विश्लेषकों को चौका देने वाला था। जोगी बनाम भूपेश की लड़ाई में भूपेश का साथ देने के कारण उन्हें टिकिट भी मिली और वे जीत भी गए लेकिन मंत्री नहीं बनाये गए तो इसके कई कारण गिनाये जा रहे हैं। अपने क्षेत्र में दबंग माने जाने वाले मनोज को लगता है कि देर-सबेर उन्हें मंत्री बनाया ही जायेगा।
शिकार करने को आये...
ये तो फिल्मी गाना शिकार करने को आये शिकार हो गये की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना पूर्व मंत्री विधान मिश्रा की यह हालत नहीं होती। कभी विद्याचरण शुक्ल के खास माने जाने वाले विधान मिश्रा को जब टिकिट नहीं मिली तो वे अजीत जोगी को गरियाते घुमते थे लेकिन जब जोगी ने पार्टी बनाई तो वे उनके साथ शामिल हो गए और भूपेश बघेल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। कहा जाता है कि विधान मिश्रा के कंधे पर बंदूक रखने का काम भाजपा के एक दिग्गज नेता भी कर रहे थे और कांग्रेस की सत्ता कभी नहीं आयेगी यह सोचकर भूपेश बघेल के खिलाफ विधान ने जमकर विषवमन किया और अब जब कांग्रेस की सत्ता आ गई तो वे कांग्रेस में शामिल होने छटपटा रहे है।


रविवार, 17 फ़रवरी 2019

वैचारिक पत्रकारिता और दलाली




यह सच है कि वैचारिक पत्रकारिता करना बहुत कठिन है। किसी एक विचारधारा के समर्थन में खड़ा होना वह भी सीना ठोंक के आसान नहीं है। वह भी तब जब आप सत्ता के बाहर हो। छत्तीसगढ़ में वैचारिक पत्रकारिता की शुरुआत कब से हुई यह कहना कठिन है लेकिन इसकी शुरुआत युगधर्म से होने की बात कही जाती है। अपना पक्ष रखने दक्षिणपंथियों ने अखबार निकाला और फिर एक विचारधारा को लेकर संघर्ष करते रहे लेकिन यह स्वीकार्य तब भी नहीं था और न ही दैनिक स्वदेश के खुलने के बाद ही स्वीकार्य हो पाया। परिणाम स्वरुप इस एक विचारधारा के साथ खड़ा रहना मुश्किल कार्य रहा इस तरह की पत्रकारिता से न केवल अखबार को खड़ा रखना मुश्किल है बल्कि एक विचारधारा को लेकर चलने वाले पत्रकारों की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं। यही वजह है कि सत्ता के दौरान फलने-फूलने वाले ऐसे पत्रकार सत्ता जाते ही गड़बड़ा जाते है।
ताजा उदाहरण छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के बाद देखा जा सकता है। भाजपा की सत्ता जाते ही कल तक स्वयं को भाजपाई विचारधारा का समर्थक बताने वाले ऐसे अधिकांश पत्रकारों में स्वयं को भाजपा विरोधी साबित करने की होड़ सी मच गई है। कुछ तो पत्रकारिता छोड़ दूसरा काम धाम में रुचि ले रहे हैं तो कुछ कांग्रेसियों के सामने स्वयं को कांग्रेसी साबित करने में लग गए हैं। इनमें वे पत्रकार भी शामिल है जिन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत गद्रे भवन (पुराने भाजपा कार्यालय) में पनाह लेते थे या रात गुजारते थे। एक पत्रकार तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से अपनी नजदीकी का हवाला देते नहीं थकते और कोई भी काम करा लेने का दावा करते घूम रहा है। हालांकि यह पहले भी रमन राज में पत्रकारिता से Óयादा कमीशनखोरी का काम भी करा रहा है।
इसी तरह का एक पत्रकार जो चुनाव से पहले किसी भी सूरत में कांग्रेस की सत्ता नहीं आने का दावा करता था वह चुनाव परिणाम आते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को अपने कालेज के जमाने का साथी बताता घूम रहा है।
इसी तरह 5 हजार की तनख्वाह से रायपुर में पत्रकारिता शुरु करने वाले का ठाठ इन दिनों चर्चा में है।
भाजपा की बौखलाहट...
चुनाव में बुरी तरह बौखलाई भाजपा को अब पत्रकार कांग्रेसी नजर आने लगे। पिछले दिनों भाजपा प्रभारी अनिल जैन को एक पत्रकार का सवाल इतना नागवार गुजरा कि वे प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ही एक पत्रकार को कांग्रेसी बता गये जबकि एक अन्य घटनाक्रम में भाजपा कार्यालय में एक पत्रकार की न केवल पिटाई की गई बल्कि एक महिला पत्रकार को अभद्रतापूर्वक कक्ष से बाहर निकाला गया। इस पत्रकार की सिर्फ इतनी गलती थी कि हार की समीक्षा के दौरान हंगामा कर रहे कार्यकर्ताओं की वीडियो बनाने वह बैठ गया था।
भाजपा नेताओं के शह पर हुई इस गुण्डागर्दी के खिलाफ प्रदेशभर के पत्रकार आंदोलन पर है लेकिन भाजपा नेतृत्व को इससे कोई लेना देना नहीं है। जबकि प्रेस क्लब रायपुर ने अनिश्चितकालीन धरना दे दिया है।
फर्जी के चक्कर में असली भी गये...
रमन राज में पत्रकारिता की आड़ में कई भाजपाई धंधा करने लग गये थे और फर्जी न्यूज एजेंसी बनाकर सरकार से लाखों रुपये महिना वसूल भी रहे थे। ऐसा नहीं है कि रमन राज के इस करतूत की जानकारी किसी को नहीं थी लेकिन सत्ता बदलते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जैसे ही इस करतूत की जानकारी मिली उन्होंने तुरन्त ऐसे 17 एजेंसियों का दाना पानी बंद कर दिया। कहा जाता है कि इन एजेंसियों की आड़ में कई भाजपाई लाल हो गये थे।
और अंत में...
जब से सत्ता बदली है जनसंपर्क विभाग में भी अमूल चूल परिवर्तन दिखने लगा है। एक अधिकारी के लम्बी छुट्टी पर चले जाने को लेकर चर्चा गर्म है।