भारतीय संविधान में महिलाओं के 10 कानूनी अधिकार ( Women's Rights)
सोशल कंडीशनिंग के कारण हमारे समाज में रहने वाले लोगों का महिलाओं के प्रति पक्षपाती नजरिया रहता है। लिंगवाद (Sexism) और पितृसत्ता (Patriarchy) अक्सर लोगों के फैसले को प्रभावित करती है।
भारत में हर मिनट महिलाओं के खिलाफ अपराध होते हैं। महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं, चाहे वह अपने घरों में हों, सार्वजनिक स्थानों पर हों या कार्यस्थल पर हों। महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों की संख्या को देखते हुए, यह उचित है कि महिलाएं उन कानूनों के बारे में जागरूक हों जो उनकी सुरक्षा के लिए मौजूद हैं।
1. कार्यस्थल पर उत्पीड़न के खिलाफ अधिकार -
RIGHT AGAINST WORKPLACE HARASSMENT: ) अधिनियम, 2013:-
यह अधिनियम महिलाओं को उनके कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न से बचाने के लिए बनाया गया है। इस अधिनियम से पूर्व कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न के लिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने विशाखा बनाम राजस्थान राज्य[8] में दिशा निर्देश दिए थे। माननीय न्यायालय ने यौन उत्पीड़न को नए रूप में परिभाषित किया है जिसमे शारीरिक संपर्क, लैंगिक अनुकूलता की मांग या अनुरोध, लैंगिक अत्युक्त टिप्पणियाँ करना, अश्लील साहित्य दिखाना या कोई लैंगिक प्रकृति का कोई अन्य अवांछनीय शारीरिक मौखिक या अमौखिक आचरण करना शामिल किया गया।
2. महिलाओं का अश्लील चित्रण (प्रतिषेध) अधिनियम, 1986:-
इस अधिनियम के तहत विभिन्न ऐसे प्रावधान है, जिनमे महिलाओ के अश्लील चित्रण को व्यापक अर्थ देने के साथ इस अपराध में शामिल व्यक्तियों के लिए सख्त सजा का प्रावधान किया गया है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य विज्ञापन, प्रकाशन, लेखन एवं पेंटिंग या किसी अन्य रूप में महिलाओं के अश्लील चित्रण या महिलाओं के वस्तुकरण को रोकना है।
3. घरेलू हिंसा के खिलाफ अधिकार –
भारत में महिलाओं द्वारा उत्पीड़न में सबसे अधिक मामले घरेलू हिंसा के रहते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) द्वारा महिलाओं के खिलाफ दर्ज किए गए 4.05 लाख मामलों में से 1.26 लाख सिर्फ घरेलू हिंसा के मामले थे। जीवन के सभी क्षेत्रों की महिलाओं को घरेलू हिंसा का शिकार होना पड़ता है। महिलाओं के घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005. Protection of Women from Domestic Violence Act 2005 में बनाया गया। माता-पिता, भाइयों, पति या लिव-इन पार्टनर द्वारा पीड़ित की गयीं महिलाओं को इस अधिनियम के तहत संरक्षित किया जाता है।
4. गुमनामी का अधिकार-
उन महिलाओं की पहचान की रक्षा करने के लिए महत्वपूर्ण है जो जीवित हैं या उत्पीड़न या यौन हमले की शिकार हैं, यह अधिकार उन्हें एक विचाराधीन मामले में जिला मजिस्ट्रेट के समक्ष गुमनाम रूप से अपना बयान दर्ज करने की भी अनुमति देता है। नाम न छापने का अधिकार भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा- 228 (ए) के तहत आता है।
5. मैटरनिटी लाभ का अधिकार-
गर्भवती महिलाओं के लिए मैटरनिटी लाभों को किसी एक विशेषाधिकार के रूप में नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि वे मैटरनिटी लाभ अधिनियम, 1961 के तहत आते हैं। अधिनियम प्रत्येक वर्किंग महिला को अपने और अपने बच्चे की देखभाल के लिए काम से फुल पेड लीव का अधिकार देता है। कोई भी संगठन जिसमें 10 से अधिक कर्मचारी हैं, इस अधिनियम का पालन करने के लिए बाध्य है।
6. गिरफ्तारी से सुरक्षा का अधिकार -
भारतीय नागरिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा-46 के अनुसार, किसी भी महिला को सुबह 6 बजे से पहले और शाम 6 बजे के बाद गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है, भले ही पुलिस के पास गिरफ्तारी वारंट हो। इतना ही नहीं, एक महिला को पूछताछ के लिए थाने जाने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 160 के तहत महिलाएं यह मांग कर सकती हैं कि किसी कांस्टेबल, परिवार के सदस्यों या दोस्तों की मौजूदगी में उनके पर पूछताछ की जाए।
7. समान पारिश्रमिक अधिनियम, 1976-
यह कानून सैलरी या रेम्यूनरेशन के मामले में होने वाले भेदभाव को रोकता है। यह पुरुष और महिला श्रमिकों को समान मुआवजे मिलने पर आवाज़ बुलंद करता है। महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए इन कानूनों को जानना आवश्यक है। अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होने पर ही आप अपने साथ घर, कार्यस्थल या समाज में होने वाले किसी भी अन्याय के खिलाफ लड़ सकते हैं।
8. बाल विवाह प्रतिषेध अधिनियम, 2006-
इंटरनेशनल रिसर्च सेंटर फॉर वीमेन के अनुसार, लगभग 47 प्रतिशत लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है। वर्तमान में, भारत बाल विवाह के मामले में दुनिया में 13 वें स्थान पर है। चूंकि बाल विवाह सदियों से भारतीय संस्कृति और परंपरा में डूबा हुआ है, इसलिए इसे समाप्त करना कठिन रहा है। बाल विवाह निषेध अधिनियम को 2007 में प्रभावी बनाया गया था। इस कानून के अनुसार दुल्हन की उम्र 18 वर्ष से कम हो या लड़के की उम्र 21 वर्ष से कम हो। कम उम्र की लड़कियों की शादी करने की कोशिश करने वाले माता-पिता इस कानून के तहत कार्रवाई के अधीन हैं।
9. दहेज़ प्रतिषेध अधिनियम 1961–
इस अधिनियम के अनुसार विवाह के समय वर या वधू और उनके परिवार को दहेज लेना या देना दंडनीय है। दूल्हे और उसके परिवार द्वारा अक्सर दुल्हन और उसके परिवार से दहेज मांगा जाता है। इस प्रणाली ने मजबूत जड़ें जमा ली हैं क्योंकि शादी के बाद महिलाएं अपने जीवनसाथी और ससुराल वालों के साथ चली जाती हैं। जब शादी के बाद भी दहेज की मांग लड़की के परिवारों द्वारा पूरी नहीं की जाती है, तो कई महिलाओं को प्रताड़ित किया जाता है, पीटा जाता है और यहां तक कि जला दिया जाता है।
10. फ्री लीगल एड (मुफ़्त क़ानूनी सहायता) -
भारत में महिलाओं को फ्री लीगल एड का अधिकार है और इसके लिए किसी महिला की आमदनी कितनी है या फिर मामला कितना बड़ा या छोटा है, इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता है। महिलाएं किसी भी तरह के मामले के लिए फ्री लीगल एड की मांग कर सकती हैं। हमारे देश में महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, मानव तस्करी से पीड़ित व्यक्ति, स्वतंत्रता सेनानी, प्राकृतिक आपदा से पीड़ित व्यक्ति और 18 साल से कम उम्र के बच्चों को भी फ्री लीगल एड का अधिकार है। सामान्य श्रेणी के लोगों के लिए इन्कम का दायरा रखा गया है। हाईकोर्ट के मामलों में जहां उनकी सालाना इन्कम 30 हज़ार रुपए से कम होनी चाहिए, वहीं सुप्रीम कोर्ट के मामलों में वह 50 हज़ार से कम हो।
•••••••••••••••••••
महिला हित में समय समय पर हुए कुछ अन्य प्रावधान -
• भारतीय सेना में समान अवसर:-
सचिव, रक्षा मंत्रालय बनाम बबीता पुनिया[9] ने माननीय सर्वोच्च न्यायालय के एक ऐतिहासिक निर्णय में कहा, महिलाओं को भारतीय सेना में समान अवसर प्रधान करे और शॉर्ट सर्विस कमीशन में महिलाओं को स्थायी कमीशन दें और उन्हें युद्ध के अलावा अन्य सभी सेवाओं में कमांड पोस्टिंग दें। माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय में माही यादव बनाम भारत संघ[10] जनहित याचिका में अधिवक्ता माही यादव ने देश के सभी सैनिक स्कूलों एवं मिलिट्री स्कूलों में छात्राएं को उनके लिंग के कारण उक्त स्कूलों में प्रवेश वर्जित होने का मुद्दा न्यायालय के समक्ष उठाया। जिसके उपरांत माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इसी विषय में केंद्र सरकार को निर्देश दिए कि शिक्षा का अधिकार छात्राएं को मौलिक अधिकार हैं। इन्ही के फलस्वरूप आज सैनिक स्कूलों में लड़को के साथ लड़कियों को भी प्रवेश दिया जाने लगा हैं।
• विवाहित बेटी का अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी का अधिकार:-
ADVERTISEMENT ADVERTISEMENT माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक सरकार बनामN. Apporva Shree[11] में फैसला सुनाया कि एक विवाहित बेटी अनुकंपा के आधार पर सरकारी नौकरी की हकदार है। न्यायालय ने कहा कि यह धारणा कि एक बेटी अब शादी के बाद अपने पिता के घर का हिस्सा नहीं है और अपने पति के घर का एक विशेष हिस्सा बन जाती है, पुरानी मानसिकता को दर्शाता है। माननीय राजस्थान उच्च न्यायालय ने शेफाली सांखला बनाम राजस्थान राज्य[12] में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के उक्त निर्णय के मद्देनज़र विवाहिता बेटी को नियुक्ति प्रदान की हैं।
• मातृत्व लाभ (संशोधन) अधिनियम, 2017 -
मातृत्व लाभ अधिनियम (1961) में संशोधन पारित किया गया है। इस अधिनियम ने महिला कर्मचारियों के लिए (जिनके दो से कम जीवित बच्चे हो) उपलब्ध सवैतनिक मातृत्व अवकाश की अवधि को मौजूदा 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह कर दिया है। इसके अंतर्गत महिलाओं को घर से काम करने की सुविधा भी उपलब्ध हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने मातृत्व लाभ अधिनियम, 1961 के प्रावधानों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली याचिका (हमसानंदिनी नंदूरी बनाम भारत संघ) पर सुनवाई की, जिसमें कहा गया है कि एक महिला जो क़ानूनी रूप से तीन महीने से कम उम्र के बच्चे को गोद लेती है 12 सप्ताह की अवधि के लिए मातृत्व अवकाश के लिए पात्र होगी। महिलाओं के मातृत्व के समय के दौरान उनके रोजगार की रक्षा करता है और उन्हें मातृत्व लाभ और कुछ अन्य लाभों का अधिकार देता है।
• लिंग चयन का निषेध अधिनियम (1994):-
गर्भाधान से पहले या बाद में लिंग चयन को प्रतिबंधित करता है और लिंग निर्धारण के लिए प्रसव पूर्व निदान तकनीकों के दुरुपयोग को रोकता है जिससे कन्या भ्रूण हत्या होती है।
• सरोगेसी (विनियमन) अधिनियम, 2021:-
जो वाणिज्यिक सरोगेसी को प्रतिबंधित करता है लेकिन परोपकारी सरोगेसी की अनुमति देता है। यह अधिनियम ‘प्रगतिशील’ है और इसका उद्देश्य सरोगेट मदर के शोषण को रोकना है।
• मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट, 1971:-
भारत में महिलाओं को मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेन्सी एक्ट, 1971 कुछ शर्तों पर मेडिकल डॉक्टरों (विशिष्ट स्पेशलाइजेशन वाले) द्वारा अबॉर्शन कराने की अनुमति देता है। अबॉर्शन अधिकारों को तीन कैटेगरी में बांटा गया है। जहां प्रेग्नेंसी के 0 हफ्ते से 20 हफ्ते के बीच अबॉर्शन कराने के लिए कुछ कंडीशन दी गई हैं। अगर कोई महिला मां बनने के लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं है, या फिर कॉन्ट्रासेप्टिव मेथड या डिवाइस फेल हो जाने के कारण न चहते हुए भी महिला प्रेग्नेंट हो गई है, तो वह अपना अबॉर्शन करा सकती है।
इसके साथ ही अगर सोनोग्राफी की रिपोर्ट में यह बात सामने आए कि भ्रूण में किसी तरह की शारीरिक या मानसिक विकलांगता हो सकती है, तो भी महिला को एबॉर्शन कराने का हक़ है।
अब तक हमारे देश में विवाहित महिलाओं को ही एबॉर्शन का हक़ था, पर हाल ही में सुप्रीम कोर्ट द्वारा कुछ मामलों में अविवाहित लड़कियों को भी यह अधिकार मिल गया है।
• नए मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी (संशोधन) अधिनियम 2021-
इस को व्यापक देखभाल के लिये सार्वभौमिक पहुँच सुनिश्चित करने हेतु चिकित्सीय, उपचारात्मक, मानवीय या सामाजिक आधार पर सुरक्षित और वैध गर्भपात सेवाओं का विस्तार करने हेतु लाया गया है। एयर इंडिया बनाम नरगेश मीर्ज़ा[13] में, एयर इंडिया और इंडियन एयरलाइंस के लिए काम करने वाली एयर होस्टेस ने रोजगार नियमों की संवैधानिकता को चुनौती दी है जो पहली गर्भावस्था पर रोजगार समाप्ति के लिए प्रदान करते हैं। माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस नियामक आवश्यकता को मनमाना और अनुचित बताया, और भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन माना । इसके बजाय, न्यायालय ने एक संशोधन का समर्थन किया कि वास्तव में उनकी तीसरी गर्भावस्था पर दो जीवित बच्चों के साथ एयरहोस्टेस की सेवानिवृत्ति की आवश्यकता होगी और कहा कि ऐसा संशोधन महिलाओं के स्वास्थ्य और राष्ट्रीय परिवार नियोजन योजना के हित में होगा।
• महिलाओं के खिलाफ अपराधों के लिए मुआवजा:-
बलात्कार मानव जाति के खिलाफ सबसे जघन्य अपराधों में से एक है, क्योंकि किसी भी अन्य अपराध में अपने आप में सभी लागतें शामिल नहीं होती हैं जैसे लेनदेन लागत + सामाजिक लागत + मनोवैज्ञानिक लागत। बोधिसत्व गौतम बनाम सुभ्रा चक्रवर्ती में, सर्वोच्च न्यायालय ने इसे दोहराया। “बलात्कार केवल एक महिला (पीड़ित) के व्यक्ति के खिलाफ अपराध नहीं है, यह पूरे समाज के खिलाफ अपराध है। यह एक महिला के पूरे मनोविज्ञान को नष्ट कर देता है और उसे गहरे भावनात्मक संकट में डाल देता है। इसलिए, बलात्कार सबसे घृणित अपराध है। यह बुनियादी मानवाधिकारों के खिलाफ अपराध है और इसका उल्लंघन भी है है, अर्थात् जीवन का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 में निहित है।” महिलाओं और बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों से संबंधित कानून में अपर्याप्तता को दूर करने के लिए आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम, 2013 अधिनियमित किया गया था, जिसके कारण निर्भया फंड (Nirbhya Fund) का निर्माण हुआ। इसके बाद बनी एक समिति ने महिला पीड़ितों/यौन उत्पीड़न/अन्य अपराधों की उत्तरजीवियों के लिए मुआवजा योजना – 2018 को अंतिम रूप दिया।
योजना के अनुसार, सामूहिक बलात्कार की पीड़िता को न्यूनतम 5 लाख रुपये और अधिकतम 10 लाख रुपये तक का मुआवजा मिलेगा। इसी तरह, बलात्कार और अप्राकृतिक यौन उत्पीड़न के मामले में पीड़िता को न्यूनतम 4 लाख रुपये और अधिकतम 7 लाख रुपये मिलेंगे। एसिड अटैक के पीड़ितों को चेहरे की विकृति के मामले में न्यूनतम 7 लाख रुपये का मुआवजा मिलेगा, जबकि ऊपरी सीमा 8 लाख रुपये होगी। अदालत ने तब उक्त योजना को पूरे भारत में लागू होने के लिए स्वीकार कर लिया, जो कि देश का कानून है।
निष्कर्ष – भारत में महिलाएं अब हर एक क्षेत्र में , चाहे वो शिक्षा, रक्षा, खेल, राजनीति, मीडिया, कला एवं संस्कृति, और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी आदि क्षेत्रों में भाग लेती हैं। भारतीय महिलाओं को पुरुष प्रधान समाज, वर्ग और धर्म के उत्पीड़न के तहत विकसित होने के लिए बेहद कठिन समय मिला है, लेकिन अब चुप्पी तोड़ने का समय है। हमारी मानसिकता और पितृसत्तात्मक विचारों को बदलने की जरूरत है, जिन्होंने सदियों से भारतीय मानसिकता को अपनी चपेट में लिया है ताकि महिलाओं के लिए एक सुरक्षित समाज मिल सके। उन्हें भी अपनी प्रतिभा और विकास का समुचित अवसर मिल सके।
(Copied गूगल पर तमाम स्रोतों से)
thankings-roopam gangwar
#roopnotes
#repost #women #womenrights