बुधवार, 6 नवंबर 2024

टिकिट मांगने वाले भाजपा के ब्राम्हण नेताओं की मुश्किलें बढ़ी



टिकिट मांगने वाले भाजपा के ब्राम्हण नेताओं की मुश्किलें बढ़ी 


दक्षिण विधानसभा चुनाव में ब्राम्हण प्रत्याशी की मांग करने वाले भारतीय जनता पार्टी के ब्राम्हण नेताओं के सामने अब नई तरह की दिक्कत आ गई है। कहा जा रहा है कि कई नेता तो मुंह छिपाते घुम रहे है तो कई नेताओं ने चुप्पी ओढ़ ली है। 

दरअसल दक्षिण विधानसभा उपचुनाव में ब्राम्हण समाज ने ब्राम्हण प्रत्याशी उतारने दोनों ही प्रमुख दल कांग्रेस और भाजपा पर दबाव बनाया था। समाज के इन नेताकों के साथ भाजपा और कांग्रेस से जुड़े नेताओं ने भी न केवल शिरकत की थी, बल्कि मीडिया के ज़रिये भी अपनी मांगों को जोर-शोर से हवा दी थी।

भाजपा ने ब्राम्हण समाज की मांग की परवाह नहीं करते हुए सुनील सोनी को प्रत्याशी घोषित कर दिया, तब समाज ने कांग्रेस पर दबाव बनाया तो कांग्रेस ने ब्राम्हण समाज की मांग के अनुरूप आकाश शर्मा को टिकिट दे दिया।

ऐसे में भाजपा से जुड़े ब्राह्मण  नेता के सामने मुश्किल यह है कि वे सेठ की तिजोरी के आगे न तो कुछ बोल पा रहे है और न ही समाज में जाकर सुनील सोनी का प्रचार ही कर पा रहे हैं।

इसकी बड़ी वजह आने  वाले दिनों में निगम चुनाव है। यदि वे अभी ब्राह्मण प्रत्याशी के खिलाफ वोट माँगेंगे तो फिर निगम चुनाव में वे किस मुंह से ब्राह्मण वोट हासिल कर पायेंगे। 

कहा तो यहां तक जा रहा है कि समाज के कई पदाधिकारियों ने भाजपा के ब्राम्हण नेताओं को दो टूक कह दिया है कि वे ब्राम्हण प्रत्याशी की खिलाफत न करे।

ऐसे में ब्राम्हण वोटरों को साधने गृह मंत्री विजय शर्मा को पार्टी ने लगा दिया। लेकिन कहा जाता है कि ब्राम्हण समाज के कुछ पदाधिकारियों ने उन्हें भी दो टूक कह दिया कि वे दक्षिण में प्रचार करने की बजाय प्रदेश की कानून व्यवस्थ पर ध्यान दें तो उनके लिए बेहतर होगा।

रविवार, 20 अक्तूबर 2024

जब एक युवा भारतीय वैज्ञानिक ने बताया सितारों का भविष्य

 जब एक युवा भारतीय वैज्ञानिक ने बताया सितारों का भविष्य



11 जनवरी 1935. शाम के 6.15 मिनट होने वाले हैं. लन्दन स्थित बर्लिंगटन हाउस में  रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी का सम्मेलन पिछले डेढ़ घंटे से चल रहा है. पूरा हॉल गणमान्य वैज्ञानिकों, खगोलवेत्ताओं से भरा हुआ है. पहली पंक्ति में आर्थर एडिंग्टन, जेम्स जीन्स, मिलने, फाउलर इत्यादि जैसे विश्व विख्यात खगोलविद और वैज्ञानिक बैठे हैं. उसके पीछे वाली पंक्ति में युवा उभरते हुए वैज्ञानिक, खगोलविद, गणितज्ञ इत्यादि बैठे हैं. उसे पंक्ति में एक 24 वर्षीय युवा भारतीय वैज्ञानिक भी बैठे हुए हैं जिनके लिए आज का यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है. इनका नाम है सुब्रमण्यम चंद्रशेखर, जिनके चाचा सी,वी. रमण को 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था. 


पिछले 5 सालों से वे अपने जिस शोध कार्य में लगे हुए हैं आज उसकी परीक्षा होने वाली है. आज वे अपना शोध पत्र अब से कुछ देर बाद पढने वाले हैं. अगर उनका शोध पत्र खगोल विज्ञान के इस मक्का में स्वीकार कर लिया जाता है तो ये उनके वैज्ञानिक करियर के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी. बचपन से जो उनका सपना था कि उनका नाम भी उनके हीरो न्यूटन,आइंस्टीन और रामानुजम की तरह विज्ञान और गणित की दुनिया एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और गणितज्ञ की तरह लिया जाए, उसे प्राप्त करने में आज का उनका शोध पत्र एक मील का पत्थर साबित होगा. हालाँकि उन्हें घबराहट नहीं है क्योंकि उन्हें अपने गणितीय गणना पर पूरा विश्वास है और वे पहले भी इस हॉल में कई पत्र पढ़ चुके हैं, फिर भी अपने अब तक के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पल को निकट आता देख उन्हें थोड़ी बेचैनी हो जाती है. वे थोड़ा कसमसा के अपने टाई के नॉट को ढीला करने का प्रयास करने लगते हैं.


शायद इसका एक कारण जनवरी की उस सर्द शाम में भी हॉल के अन्दर दरवाजे और खिड़कियों के बंद रहने और हॉल खचाखच भरे रहने के चलते उत्पन्न उष्णता भी हो सकती है. हॉल के अन्दर लग रहा कि ये जुलाई की शाम हो, बहुत कुछ उनके गृहनगर मद्रास के मौसम के जैसा. तभी ठीक 6.15 बजे सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे स्ट्रैटन उस भारतीय युवा का नाम पुकारते हैं. वे पोडियम पर आकर एक बार हॉल में बैठे लोगों को देखते हैं. खगोल विज्ञान के सभी गणमान्य वैज्ञानिकों को देखकर उन्हें आज के दिन का महत्व का अहसास प्रखरता से होता है. शायद आइंस्टीन ने भी जब पेटेंट क्लर्क की नौकरी करते हुए ''सापेक्षता के विशेष सिद्धांत'' की खोज की होगी तो वे भी इसी मनस्थिति से गुजरे होंगें कि वैज्ञानिक समुदाय उसे किस रूप में लेगा. वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने दक्षिण भारतीय एक्सेंट वाली अंग्रेजी में अपना शोध पत्र पढने लगते हैं जो कि मृत सितारों के भविष्य को लेकर है.


दरअसल जबसे सितारों के निर्माण प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों को पता चला कि सितारों के कोर में नाभिकीय प्रक्रिया के चलते तारे अस्तित्व में आते हैं और जब तक उनके कोर में नाभिकीय प्रक्रिया चलती रहती है तब तक तारों का आकार स्थायित्व लिए होता है. पर किसी तारे में मौजूद हाइड्रोजन समाप्त हो जाता है तो उसके कोर में चल रही नाभकीय प्रक्रिया रुक जाती है और कोर सिकुड़ने लगता है और इसके साथ ही मृत तारे का आकार सिकुड़ कर लगभग पृथ्वी के आकार का हो जाता है. इसे ''सफ़ेद बौना तारा''( white drwarf) कहा जाता है. यानी हर तारा अपने ईंधन की समाप्ति के बाद ''सफ़ेद बौना तारा'' में बदल जाता है, ऐसा खगोविदों का मानना था. पर आज चंद्रा, लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं, इसी मान्यता प्राप्त सिद्धांत को चुनौती देने वाले हैं. ठीक आइंस्टीन की तरह जब उन्होंने प्रचलित मान्यताओं के विपरीत अपने ''सापेक्षता के विशेष सिद्धांत'' का प्रतिपादन किया था.


वे कह रहे हैं कि किसी तारे का सफ़ेद बौने तारे में बदलने की प्रक्रिया उसके मौजूदा द्रव्यमान पर निर्भर करती है और सफ़ेद बौने तारे में बदलने के लिए तारे के द्रव्यमान की एक उपरी सीमा ( upper limit) होती है. उस सीमा के ऊपर द्रव्यमान वाले तारे ईंधन की समाप्ति के बाद सिकुड़ते हुए सफ़ेद बौना बनने के बजाये और भी सिकुड़ता चला जाता है, शायद सिंगुलारिटी की तरफ.सिर्फ सूर्य के द्रव्यमान या उससे 1.4 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारे ही सफ़ेद बौने में परिवर्तित होते हैं. उसके अधिक द्रव्यमान वाले तारे की सिकुड़ने की कोई सीमा नहीं होती है. वे ये कहते हुए अपना शोध पत्र पढ़ना समाप्त करते हैं कि - '' कम द्रव्यमान वाले तारे का जीवन अधिक द्रव्यमान वाले तारे से भिन्न होता है..... कम द्रव्यमान वाले तारे मृत होने बाद सफ़ेद बौना में बदल जाते है जबकि अधिक द्रव्यमान वाले तारे मृत होने के सफ़ेद बौना तारा में न बदलकर और भी सिकुड़ते चले जाते हैं जिसके बारे में अनुमान ही लगाया जा सकता है कि वे कहाँ रुकते हैं...''. इसके बाद वे अपने कागजात समेटकर एक बार फिर हॉल में मौजूद लोगों को आशाभरी नज़रों से देखते हैं.


उनकी निगाहें खासकर एडिंग्टन की ओर लगी है क्योंकि खगोलविज्ञान की दुनिया में, खासकर आइंस्टीन के ''सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत'' की उनके द्वारा प्रयोगात्मक पुष्टि के बाद, सबसे बड़े नाम बन गए हैं. उनके इस शोधपत्र के लिखने दौरान गणितीय गणना करने में आ रही कठिनाई को दूर करने के लिए एडिंग्टन ने ही उन्हें कैलकुलेटर की व्यवस्था करवाई थी. इसके अलावा बीते वर्षों के दौरान उन्होंने एक मित्र की तरह अनेकों बार उन्हें इस शोधपत्र लिखने के लिए प्रोत्साहित भी किया था. देखा जाए तो आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर 1926 में एडिंग्टन ने खुद एक बार मजाक में कहा था कि जब किसी तारे में गैस समाप्त हो जाएगी तो गैस के चलते मौजूद सेंट्रिपेटल फ़ोर्स की समाप्ति के बाद वह तारा गुरुतावाकर्षण बल के चलते सिकुड़ते हुए विलुप्त हो जायेगा. हालाँकि बाद में उनके एक सहयोगी फाउलर ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि तारे के कोर में मौजूद इलेक्ट्रॉन डिजेनेरेसी दबाव उस तारे को और सिकुड़ने से रोककर ''सफ़ेद बौना'' की स्थिति में ही रोक देगा. चंद्रा ने फाउलर के इसी सिद्धांत की खामी को आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर दूर कर अपना ये शोध पत्र तैयार किया है.


चंद्रा के पोडियम पर से उतरने के बाद एडिंग्टन, जिन्हें वैसे भी उनके बाद अपना पत्र पढ़ना था, अपने चिर परिचित ड्रामाई अंदाज में पोडियम पर चढ़ते हैं और ड्रामाई अंदाज में कहते हैं कि चंद्रशेखर के शोध पत्र की बुनियाद जो कि आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है, एकदम से बेतुका है. उनके द्वारा प्रतिपादित ऊपरी सीमा का कोई आधार नहीं है. किसी भी तारे के सफ़ेद बौना तारे बनने के लिए उसमें मौजूद द्रव्यमान की कोई उपरी सीमा नहीं होती है. पूरे हॉल में सन्नाटा छा जाता है. चंद्रा स्तब्ध हो जाते हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि एडिंग्टन ऐसा क्यों कह रहे हैं. इसके बाद एडिंग्टन अपना पत्र '' "Relativistic Degeneracy" पढ़ने लगते हैं जो कि उन्होंने खास तौर पर चंद्रा के सिद्धांत को ध्वस्त करने के लिए ही तैयार किया था.उस पत्र में एक तरह से उन्होंने फाउलर के शोधपत्र को ही सही ठहराते हैं जिसमें तारों के सफ़ेद बौने में बदलने के लिए द्रव्यमान कि कोई उपरी सीमा नहीं है.


चंद्रा एडिंग्टन की इस स्थापना के विरोध करने के लिए अपने सीट पर खड़े हो जाते हैं, पर सभा के अध्यक्ष स्ट्रैटन ये कहकर बोलने से रोक देते हैं कि दोनों ने अपना-अपना शोध पत्र पढ़ लिया है और अब इन पत्रों में मौजूद तर्कों पर वैज्ञानिकों द्वारा जांच-पड़ताल के बाद ही बहस हो सकती है. चंद्रा निराश हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि उनका करियर बनने से पहले ही समाप्त हो गया है. पिछले 5 सालों की उनकी मेहनत पर पानी फिर गया है. पर एडिंग्टन जैसे संसार के श्रेष्ठ खगोलविद द्वारा अपने सिद्धांत की धज्जियाँ उदय जाने के बाद भी निराश नहीं होते हैं क्योंकि उन्हें अपने गणितीय गणना पर पूरा विश्वास रहता है. 1939 में वे अपना शोध पत्र को परिष्कृत कर प्रकाशित करवाते हैं. वर्षों तक उनका सिद्धांत सिर्फ निरा सिद्धांत ही रहा, पर 60 के दशक में न्यूट्रॉन स्टार और ब्लैक होल की खोज के बाद उनके सिद्धांत की सत्यता प्रमाणित हो गयी और 1983 में उन्हें इसी शोधपत्र पर संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया. उनके द्वारा प्रतिपादित उपरी सीमा का नाम उनके सम्मान में '' चंद्रशेखर लिमिट'' रखा गया, ठीक उनके चाचा '' रमन इफ़ेक्ट'' की तरह. परसों यानी 19 अक्टूबर को उनकी 114 वीं जयंती थी.


डॉ॰ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता चंद्रशेखर सुब्रमण्यम अय्यर रेलवे में अकाउंटेंट थे. उनके छोटे भाई प्रसिद्द भौतिकविद सी.वी.रमन थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मद्रास में हुई. मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि लेने तक उनके कई शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे. उनमें से एक `प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी' में प्रकाशित हुआ था, जो इतनी कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए गौरव की बात थी. दिलचस्प तथ्य ये है कि सितारों के रहस्य जानने की उत्सुकता उनके मन में तब आई जब ने अपने चाचा सी.वी.रमन के द्वारा लायी आर्थर एडिंग्टन की प्रसिद्ध पुस्तक '' सितारों की आन्तरिक संरचना'' ( Internal constitution of the stars) पढ़ा. उस समय वे उनके साथ ही कोलकाता में उनकी प्रयोगशाला में सहायक के तौर पर कार्य कर रहे थे. इसी समय उन्होंने जर्मन भौतिकविद अर्नाल्ड सोमरफील्ड की क्लासिक पुस्तक '' Atomic structure and spectral lines'' भी पढ़ी. संयोग से 1928  में समरफील्ड मद्रास आये थे और चंद्रा ने उनसे मुलाकात की. इसी मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी.


जून 1930 में भौतिकी में स्नातक की डिग्री, बीएससी (ऑनर्स) करने बाद उसी साल जुलाई सरकार द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान किये जाने के बाद चंद्रशेखर को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में स्नातक अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड गए. अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान ही उन्होंने फाउलर के सिद्धांत में व्याप्त खामी की गणना कर अपने सिद्धांत की रूपरेखा तैयार कर ली थी. 1933 की गर्मियों में, चंद्रशेखर को कैम्ब्रिज में घूर्णन स्व-गुरुत्वाकर्षण पॉलीट्रोप्स पर अपने चार शोधपत्रों में से एक शोध प्रबंध के लिए पीएचडी की डिग्री प्रदान की गई. इसी साल 9 अक्टूबर को, उन्हें 1933-1937 की अवधि के लिए ट्रिनिटी कॉलेज में पुरस्कार फैलोशिप के लिए चुना गया. 16 साल पहले रामानुजम के बाद ये फेलोशिप प्राप्त करने वाले दुसरे भारतीय थे. यही उनकी मुलाकात आर्थर एडिंगटन से हुए जिन्होंने उनके शोध में गहरी दिलचस्पी दिखाई. जनवरी की उस घटना के बाद भी दोनों के सम्बन्ध बने रहे और उनका आपस में पत्राचार बना रहा. 1944 में एडिंग्टन की मृत्यु हो जाती है. अपने मृत्यु तक वे चंद्रा के सिद्धांत को गलत ही मानते रहे. पर जब डॉक्टर चंद्रा को 1983 में नोबेल मिला तो उन्होंने एडिंग्टन का नाम काफी सम्मान से लिया.


पर 1935 की जनवरी के उस शाम के बाद कैंब्रिज से उनका मन उचट गया. वे दो साल बाद अमेरिका चले आए. चंद्रशेखर अपने पूरे करियर के दौरान शिकागो विश्वविद्यालय में ही रहे. 1941 में उन्हें एसोसिएट प्रोफेसर और दो साल बाद 33 साल की उम्र में पूर्ण प्रोफेसर के पद पर पदोन्नत किया गया. 1946 में, जब प्रिंसटन विश्वविद्यालय ने चंद्रशेखर को हेनरी नॉरिस रसेल द्वारा खाली किए गए पद पर शिकागो के वेतन से दोगुना वेतन देने की पेशकश की, तो हचिन्स ने प्रिंसटन के वेतन के बराबर उनका वेतन बढ़ा दिया और चंद्रशेखर को शिकागो में रहने के लिए राजी कर लिया.1952 में, वे एनरिको फर्मी के निमंत्रण पर, सैद्धांतिक खगोल भौतिकी और एनरिको फर्मी संस्थान के मॉर्टन डी. हल प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर बन गए. 1953 में, उन्होंने और उनकी पत्नी ललिता चंद्रशेखर ने अमेरिकी नागरिकता ले ली.


डॉ॰ चंद्रा सेवानिवृत्त होने के बाद भी जीवन-पर्यंत अपने अनुसंधान कार्य में जुटे रहे.वे लगभग 20 वर्ष तक एस्ट्रोफिजिकल जर्नल के संपादक भी रहे. उन्होंने खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी पर बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी. उनकी पुस्तक '' ट्रुथ एंड ब्यूटी '' गणितीय और वैज्ञानिक सत्य और सुन्दरता के संबंधों पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है. वे नास्तिक थे, पर सत्य की सुन्दरता में उनका विश्वास था. अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, यद्यपि मैं नास्तिक हिंदू हूं पर तार्किक दृष्टि से जब देखता हूं, तो यह पाता हूं कि मानव की सबसे बड़ी और अद्भुत खोज ईश्वर है. हालाँकि बाद में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता ले ली, पर भारत से और खासकर अपने गृह नगर मद्रास से उनका लगाव अंत तक बना रहा. बीसवीं सदी के विश्व-विख्यात वैज्ञानिक तथा महान खगोल वैज्ञानिक डॉ॰ सुब्रह्मण्यम् चंद्रशेखर का 22 अगस्त 1995 को 84 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से शिकागो में निधन हो गया. हालाँकि आज डॉ॰ चंद्रा हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी विलक्षण उपलब्धियों की धरोहर हमारे पास है जो भावी पीढ़ियों के खगोल वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी.


साभार : आर्थर मिलर की पुस्तक '' एम्पायर ऑफ़ द स्टार्स'' और विकिपीडिया.

शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

अम्बेडकर और आरएसएस

 अम्बेडकर और आरएसएस


इन दिनों पूरे देश में संविधान को लेकर चल रही बहस के बीच आरएसएस और बीजेपी में संविधान निर्माता अम्बेडकर से निकटता

दिखाने के लिए तरह तरह के तर्क प्रस्तुत किए जा रहे है, और इन तर्को की पुष्टि के लिए कांग्रेस से बाबा साहेब के मतभेद को बढ़ा चढ़ाकर पेश भी किया जा रहा है ताकि उस झूठ को सच साबित किया जा सके ।

जबकि बाबा साहेब ने अपनी किताब पाकिस्तान एंड पाकिस्तान ऑफ़ इंडिया में हिन्दूराष्ट्र को स्वतंत्रता, मानवता और बंधुत्व का दुश्मन बता चुके है। ऐसे में हिन्दूराष्ट्र की वकालत करने वाले मोहन भागवत और बीजेपी  का अम्बेडकर के प्रति प्रेम उमड़ना क्या दर्शाता है?

अम्बेडकर को लेकर निकटता दर्शाने की कोशिश को लेकर अम्बेडकरवादी दिलीप मण्डल का यह लेख सब कुछ स्पष्ट करता है, उनके द्वारा उठाये सवाल गंभीर है…

सबसे पहले जान लेते हैं कि आरएसएस डॉ. आंबेडकर के साथ अपने संबंधों को स्थापित करने के लिए कौन सी बातों को सामने रख रहा है.

आरएसएस का पूरा तर्क इन चार बिंदुओं पर खड़ा है-

1. बाबा साहेब का आरएसएस से कोई वैचारिक विरोध नहीं था. वे तो संघ के एक कार्यक्रम में भी आए थे.

2. बाबा साहेब के चुनाव में इलेक्शन एजेंट दत्तोपंत ठेंगड़ी थे, जो आरएसएस के नेता थे

3. ठेंगड़ी बाबा साहेब के संगठन शिड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन के सेक्रेटरी थे.

4. बाबा साहेब ने भारतीय जनसंघ के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था.

ये चारों बातें अप्रामाणिक हैं. आरएसएस इन बातों के समर्थन में दत्तोपंत ठेंगड़ी की लिखी एक किताब और अपनी ही पत्रिका ऑर्गनाइजर के लेख आदि को प्रमाण के तौर पर पेश करता है, जिसकी कोई विश्वसनीयता नहीं है.

इतिहास लेखन में स्रोत के चयन का निर्णायक महत्व है. स्रोत अगर गलत होंगे तो गलत बात स्थापित हो जाएगी.

इस बुनियादी सिद्धांत के आधार पर अगर आरएसएस की स्थापनाओं को देखें तो आप समझ पाएंगे कि आरएसएस की बातें क्यों अप्रामाणिक हैं. बाबा साहेब ने अपने तमाम लेख और भाषणों का ब्यौरा रखा था. वे पश्चिमी शिक्षा परंपरा में दीक्षित थे और वहां डॉक्युमेंटेशन का बहुत महत्व माना जाता है. बाबा साहेब धुरंधर लेखक थे. उनके रचना संग्रह का वजन ही कई किलो है. उनका सारा लेखन महाराष्ट्र सरकार और भारत सरकार ने प्रकाशित किया है. उनके जीवन काल और उनकी जीवन की घटनाओं और विचारों को समझने का सबसे प्रामाणिक स्रोत उनके लेख और भाषणों का संग्रह है, जिसे भारत सरकार ने डिजिटल रूप में भी प्रकाशित किया है.

आश्चर्यजनक है कि आरएसएस जब बाबा साहेब से अपनी नजदीकी दिखाता है तो स्रोत सामग्री के रूप में उसके पास डॉ. आंबेडकर के रचना संग्रह से कोई प्रमाण नहीं है.

बाबा साहेब के समय की घटनाओं का दूसरा प्रमाण उस समय के अखबार और पत्रिकाएं भी हो सकती हैं. मिसाल के तौर पर बाबा साहेब अगर संघ संस्थापक हेडगेवार से मिलते या संघ की शाखा देखने के लिए जाते तो ये दोनों अपने समय के इतने बड़े नेता थे कि उस समय पुणे के अखबारों में इसका कवरेज जरूर मिलता. यह दिलचस्प है कि आरएसएस के पास स्रोत के नाम पर उस समय के अखबार या पत्रिकाएं भी नहीं हैं.

बाबा साहेब और आरएसएस के तथाकथित अंतर्संबंधों के बारे में तीसरा स्रोत आरएसएस के तत्कालीन सरसंघचालकों का लेखन भी हो सकता है. मैं तो उन्हें भी प्रमाण मानने के लिए तैयार हूं. लेकिन हेडगेवार या गोलवलकर के लेखन में भी उन चार बातों का जिक्र नहीं है, जिसका जिक्र करके आज आरएसएस के लोग भ्रम फैला रहे हैं.

चौथी सामग्री उस समय प्रकाशित आरएसएस की पत्रिकाएं भी हो सकती हैं. लेकिन आरएसएस की उपर्युक्त चारों बातों के लिए उन पत्रिकाओं में भी कोई प्रमाण नहीं है.

एक और बात, आज जो लोग आरएसएस और बाबा साहेब के बारे में भ्रम फैला रहे हैं वे न तो आरएसएस के शीर्ष नेता हैं और न ही प्रवक्ता. कल आरएसएस आसानी से कह सकता है कि वे तो निजी विचार थे और आरएसएस उनके विचारों से सहमत नहीं है.

आरएसएस चीफ मोहन भागवत ने सिर्फ एक बार इस बारे में अपनी बात कही है. उनका कहना है कि बाबा साहेब 1939 में पुणे में संघ के प्रशिक्षण शिविर में गए थे और वहां दलित विषय पर उनके भाषण की व्यवस्था संघ के संस्थापक हेडगेवार ने की थी. सवाल उठता है कि बाबा साहेब का वह भाषण बाबा साहेब के भाषण और लेखों के संग्रह में क्यों नहीं है? सिर्फ वहीं क्यों, पुणे के तत्कालीन अखबारों में इसकी रिपोर्टिंग है तो उसे ही पेश किया जाए. ये भी नहीं है तो हेडगेवार की जीवनी या उनके लेखन से ही इसका प्रमाण प्रस्तुत किया जाए. जाहिर है कि ऐसा कोई प्रमाण कभी प्रस्तुत नहीं किया गया.

बाबा साहेब का हर अध्येता जानता है बाबा साहेब और आरएसएस दो परस्पर विरोधी विचार परंपराओं से आते हैं. 1936 में एनिहिलेशन ऑफ कास्ट भाषण में बाबा साहेब कहते हैं कि वे हिंदू धर्म छोड़ देंगे और इसके 20 साल बाद 1956 में वे हिंदू धर्म का त्याग कर देते हैं. इस दौरान हिंदू धर्म औऱ हिंदू राज को लेकर उनके विचारों की निरंतरता कहीं नहीं टूटती. हिंदू धर्म और उसकी समाज व्यवस्था के पक्ष में बाबा साहेब ने न कहीं कुछ लिखा है और न कुछ बोला है. ये बात मैं पूरी प्रामाणिकता से कह रहा हूं.

अपनी इस बात के पक्ष में मैं बाबा साहेब के लेखन से सैकड़ों प्रमाण दे सकता हूं और इसके लिए मुझे दत्तोपंत ठेंगड़ी की किताब जैसे सेकेंडरी सोर्स या आरएसएस की पत्रिका के 2019 के लेख जैसे अपुष्ट और अप्रामाणिक स्रोत का हवाला देने की जरूरत नहीं पड़ेगी.

मिसाल के तौर पर, अगर मैं ये लिखूं कि बाबा साहेब ने कहा था कि ‘आदर्श हिंदू को एक चूहे की तरह अपने ही बिल में रहना चाहिए’ या कि हिंदू धर्म में सुधार करना है तो उसके धर्म ग्रंथों ‘वेदों और शास्त्रों में डायनामाइट लगा देना होगा’ को तो मैं इसके प्रमाण के तौर पर ठेंगड़ी जैसे किसी लेखक की किताब नहीं, भारत सरकार या कोलंबिया यूनिवर्सिटी द्वारा प्रकाशित बाबा साहेब के रचना समग्र का हवाला दूंगा और कहूंगा कि ये बात एनिहिलेशन ऑफ कास्ट के क्रमश: 6ठें और 22वें अध्याय में दर्ज है.

या अगर मैं ये कहूं बाबा साहेब हिंदू राज के विरोधी थे और उन्होंने कहा था कि ‘अगर हिंदू राष्ट्र बनता है तो ये इस देश के लिए बड़ी आपदा होगी. हिंदू चाहें जो भी कहें, हिंदूवाद स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व का दुश्मन है. हिंदू राष्ट्र को हर कीमत पर रोकना होगा.’ तो इस बात के प्रमाण के तौर पर मैं 2019 में छपी किसी पत्रिका के लेख को नहीं, बल्कि फिर भारत सरकार द्वारा प्रकाशित बाबा साहेब के रचना समग्र को ही कोट करूंगा और कहूंगा कि ये बात बाबा साहेब ने अपनी किताब पाकिस्तान एंड पार्टिशन ऑफ इंडियामें कही थी.


संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था

संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था 

भले ही बीजेपी अब राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए घर घर तिरंगा का आयोजन कर रही हो लेकिन तिरंगा को लेकर संघ का रवैया नकारात्मक रहा है ।
संघ पर तिरंगा विरोधी का तमगा यूँ ही नहीं लगा है
संघ के इस रवैये को लेकर उठते सवालों में यह घटना बेहद ही महत्वपूर्ण है 
1950 के बाद आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा तब तक नहीं फहराया गया जब तक कि 26 जनवरी 2001 को राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन सदस्यों ने आरएसएस प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध आरएसएस स्मृति भवन में जबरन राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया। इसके बाद तीनों पर मामला दर्ज किया ... 
ये तीनों युवकों को २०१३ में बरी किया गया
पीटीआई के मुताबिक़ इन तीनों युवाओं को झंडा फहराने से रोकने वाले का नाम सुनील कोठाले था जो प्रभारी था।

२००१ के इस घटना के बाद २६ जनवरी २००२ से संघ ने अपनी मर्ज़ी से तिरंगा फहराना शुरू किया।
दरअसल तिरंगा को लेकर आरएसएस की सोच के तथ्य पर गौर करे तो विवाद की शुरुआत गुरु गोवलकर और ऑर्गनाइज़र में छपे लेख से समझ सकते है-
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के कांग्रेस के फैसले की आलोचना की थी।

"हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा बनाया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ़ बहकने और नकल करने का मामला है। यह झंडा कैसे अस्तित्व में आया? फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, फ्रांसीसियों ने 'समानता', 'बंधुत्व' और 'स्वतंत्रता' के तीन विचारों को व्यक्त करने के लिए अपने झंडे पर तीन पट्टियाँ रखीं। इसी तरह के सिद्धांतों से प्रेरित अमेरिकी क्रांति ने कुछ बदलावों के साथ इसे अपनाया। इसलिए तीन पट्टियाँ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी एक तरह का आकर्षण थीं। इसलिए, इसे कांग्रेस ने अपनाया," गोलवलकर ने लिखा था।
आरएसएस नेता ने तिरंगे की भी आलोचना करते हुए कहा कि यह "सांप्रदायिक" है, उन्होंने लिखा, "फिर इसे विभिन्न समुदायों की एकता के रूप में व्याख्यायित किया गया- भगवा रंग हिंदू का, हरा रंग मुस्लिम का और सफेद रंग अन्य सभी समुदायों का प्रतीक है। गैर-हिंदू समुदायों में से, मुस्लिम का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया गया क्योंकि उनमें से अधिकांश प्रतिष्ठित नेताओं के मन में मुस्लिम प्रमुख थे और उनका नाम लिए बिना वे नहीं सोचते थे कि हमारी राष्ट्रीयता पूरी हो सकती है! जब कुछ लोगों ने बताया कि यह सांप्रदायिक दृष्टिकोण की बू आती है, तो एक नया स्पष्टीकरण सामने लाया गया कि 'भगवा' बलिदान का प्रतीक है, 'सफेद' शुद्धता का और 'हरा' शांति का प्रतीक है और इसी तरह।"

1947 में आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने भी तिरंगे पर आपत्ति जताते हुए लिखा था कि भारतीय नेता "हमारे हाथों में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन हिंदू इसका कभी सम्मान नहीं करेंगे और इसे अपनाएंगे नहीं। तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है।"

आरएसएस ने 2015 में यह भी कहा था कि “राष्ट्रीय ध्वज पर केवल भगवा रंग ही होना चाहिए क्योंकि अन्य रंग सांप्रदायिक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं।"

हालाँकि, वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में कहा था कि आरएसएस “अपने जन्म से ही तिरंगे के सम्मान के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।”
यानी आरएसएस और बीजेपी को तिरंगा को स्वीकार करने में दर्शकों लगे।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

सुभाष बाबू को क्या संघ ने धोखा दिया...

सुभाष बाबू को क्या संघ ने धोखा दिया...


अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ़ जब समूचा देश खड़ा हो रहा था , तभी ब्रिटिश रणनीतिकारों के ने आक्रोश को दबाने का कुचक्र किया। इस कुचक्र के दौर में ही पहले मुस्लिम लीग फिर हिन्दू‌महासभा और संघ का गठन हुआ । इनका ब्रिटिश कुचक्र से कितना लेना देना था कहना कठिन है।

लेकिन इसी दौर में देश के नौजवानों ने सर पर कफ़न बांध कर ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ हथियार भी उठाये तो गांधी ने अहिंसक आदोलन की सोच पर कांग्रेस को अपनी मुट्ठी में रख लिया, सरदार पटेल, पंडित नेहरू और सुभाष बापू ने गांधी के विचार पर मतमेद को अपने अपने ढंग से प्रद‌र्शित भी किया । 

और सुभाष बाबू ने तो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़कर एक तरह से गांधी को खुली चुनौती तक दे डाली। सुभाष बाबू चुनाव भी जीत गए लेकिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और वे फारवर्ड ब्लाद बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए अलग रास्ता चुन लिया। 

इस दौर में सुभाष बाबू की लोकप्रियता चरम पर थी और ऐतिहासिक तथ्य कहते है कि संघ के पास इस दौर में 60 हजार से अधिक स्वयं सेवक थे। लेकिन संघ का ध्येय हिदुत्व पर टिका था। उन्हें केबी हेगडेवार को संघ के विस्तार की चिंता थी।

केबी हेगड़‌वार का संघ पर पूरी तरह से पकड़ थी, और सरसंघ कार्यवाह हुद्‌दार जन भावना के अनुरुप चाहते थे कि संघ भी ब्रिटिश अत्याचार के खिलाफ खुलकर आ जाए।

इ‌धर नेताजी सुभाष भी ब्रिटिश विरोधी संघर्ष के लिए विकल्प तलाश कर रहे थे और इसी प्रयास में हेगड़े‌वार को मनाने के लिए हुद्‌दार को शामिल किया गया लेकिन हुद्‌दार असफल हो गये।  कहते है कि हेगडे‌वार ने तबियत खराब होने का हवाला देकर सुभाष बाबू से दूरी बना ली।

इसके  बाद एक सितम्बर 1939-40 में सुभाष बाबू के दो विश्वासपात्र करीबी जोगेश चन्द्र चटर्जी और त्रैलोक्य नाथ चक्रवती ने हेगड़ेवार को मनाने का एक और प्रयास किया । वह भी असफल रहा । 

आज भले ही संघ और समूची बीजेपी सुभाष बाबू को लेकर कुछ भी दावा करते हो लेकिन ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही बयान करता है । 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

हिन्दू महासभा ने रखी थी संघ कि नींव…

 हिन्दू महासभा ने रखी थी संघ कि नींव…

 


यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि आरएसएस की स्थापना हिंदू महासभा के उन नेताओं ने करवाई जो मदन मोहन मालवीय के प्रभाव में अपनी बात शायद नहीं रख पाते रहे होंगे, लेकिन शायद हिंदू महासभा से अलग दिखाने की कोशिश में यही प्रचारित किया गया कि आरएसएस की स्थापना के बी हेगडेवार ने किया , हेगडेवार ने इसकी घोषणा ज़रूर की और वे आजीवन मुखिया भी रहे । 

आरएसएस के गठन में कौन कौन शामिल थे और हिंदू महासभा की क्या भूमिका थी यह बताये उससे पहले इसके गठन के समय देश की परिस्थिति को जानना ज़रूरी है…

 आर एस एस की स्थापना ऐसे समय में हुई जब देश ब्रिटिश अत्याचार के चरम को झेल रहा था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को छिन्न-भिन्न करने ब्रिटिश हुकुमत का बंगाल विभाजन के फैसले को लेकर हिन्दू-मुस्लिम एकता में दरार डालने की कोशिश का असर होने लगा था।

1906 में सबसे पहले मुसलमानों का एक संगठन बन गया, मुस्लिम लीग ।  जिन्हें लगता था कि भारत पर मुसलमानो का अधिकार है, और वे मुस्लिम हित की आड़ लेकर अंग्रेजों के साथ मिलकर  अलग राह चुनने भी लगे ।

कहा जाता है कि मुस्लिम लीग के गठन के बाद भी निष्कंटक  राज्य चलाने को लेकर अंग्रेज आस्वस्त नहीं थे, क्योंकि कांग्रेस  का जन आन्दोलन बड़ा होता जा रहा था और कांग्रेस के साथ अब भी बड़ी संख्या में मुसलमान जुड़े हुए थे।

ऐसे में हिन्दू महासमा का गठन भी हो गया। अब राष्ट्रीय आदोलन से जुड़े हिंदू और मुसलमानों का एक बड़े वर्ग को धर्म के आधार पर बाँटने  की  ब्रिटिश सोच को परवान चढ्ने लगा।

स्वाभाविक तौर पर नाम के अनुरुप मुस्लिम लीग और हिन्दू महासमा का जो भी आंदोलन  होता वह अपने धर्म के अनुरूप होता।

कहा जाता है कि इस बीच हिन्दू महासमा में में बीएस मुंजे ताकतवर हो गये और  फिर आर एस एस की स्थापना की नींव रखी गई।आरएसएस 

की स्थापना में बी एस मुंजे की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।आरएसएस  की स्थापना हिन्दू‌महासभा  ने की कहा जाय तो गलत इसलिए नहीं होगा क्योंकि प्रारंभिक बैठक में हेगडे‌वार के अलावा हिन्दू महासभा के चार नेता बीएस मुजे, गणेश सावरकर, एल वी परांजपे और बीबी ठोकलकर के बीच हुई थी।

हालाँकि अब संघ कभी हिंदूमहासभा की भूमिका को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि वह प्रारंभ से स्थापना की श्रेय हेगडेवार को ही देता आया है जबकि हेगडेवार ने घोषणा की थी और वे इसके प्रथम प्रमुख थे ।



सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….


भाजपा को सांगठित व वैचारिक ताकत प्रदान करने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन जब 1925 में किया गया तब समूचा देश कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ रहा था ।

सावरकर के हिन्दूत्व से प्रभावित केबी हेगडेवार के इससे पहले कांग्रेस में मंझोले कद के नेता थे और वे जेल भी जा चुके थे, लेकिन हिन्दू‌महासभा के सावरकर से प्रभावित होकर या अंग्रेजी हुकूमत के प्रभाव,  में से उन पर कौन ज्यादा हावी हुआ यह कहना मुश्किल है क्योंकि  इतिहास में इसके तथ्य नहीं मिलते ।

लेकिन यदि आरएसएस के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को लेकर जब खोज हुई तो जो तथ्य सामने आये वह चौंकाने वाले है। 

1925 से अपने गठन के बाद से आजादी मिलने तक 1947 तक के  इतने साल के सफर में उन लोगों का कोई नामो निशान नहीं मिलता जो आज प्रखर स्वर में राष्ट्र‌वादी होने का दंभ भरते है। इस साफ दिखाई देने वाली अनुपस्थति की वजह से संघ को अंग्रेजों के शुभचिंतक के तौर पर या वफादार के तौर पर जोड़ा जाता है।


तथ्य यहीं कि 1925 से लेकर 1947 तक संघ ने कांग्रेस या किसी अन्य समूह या दल द्वारा  चलाए गए अंग्रेजों के खिलाफ किसी अभियान या आन्दोलन में भागीदारी की ही नहीं , और न ही अपने संगठन के द्वारा ही अंग्रेजो के खिलाए कोई आन्दोलन ही चलाया।

राष्ट्रवाद को अपना धर्म बताने वाले आरएसएस के लिए वास्तव में यह एक काला अध्याय है।

दरअसल इस तथ्यों से एक बात और स्पष्ट होता है कि इनका धर्म भारतीय राष्ट्रवाद नहीं हिन्दू राष्ट्रवाद है।

मृदुला मुखर्जी जेएनयू के इतिहास विभाग की पूर्व प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक ने अपने एक लेख में लिखा है कि  तथ्य यह है कि इसके संस्थापक हेडगेवार नागपुर में कांग्रेस के एक मझोले दर्जे के नेता थे और असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे. लेकिन वे इटली की यात्रा करने वाले और वहां मुसोलिनी से मिलने वाले, इटली के फासीवादी संस्थानों का अध्ययन करने वाले और उनसे जबरदस्त तरीके से प्रभावित हिंदू महासभा के एक नेता बीएस मूंजे के कट्टर अनुयायी थे.

यह भी माना जाता है कि वे वीडी सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’ से प्रभावित थे, जो प्रकाशित 1923 में हुई थी, लेकिन प्रसार में इससे पहले से थी, जिसमें सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा का मूल विचार दिया था कि भारत हिंदुओं की भूमि है और उनकी जिनकी पुण्यभूमि और पितृभूमि भारत में है. यह विचार इस तरह से मुस्लिमों और ईसाइयों और इस परिभाषा की कसौटी पर खरा न उतरने वाले किसी भी अन्य को भारतीय राष्ट्र से बाहर कर देता है.

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि हेडगेवार मुख्य तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे और बौद्धिक और वैचारिक इनपुट या निर्देश वास्तव में सावरकर से ही आता था, जो अंडमान जेल से रिहा होने के बाद भी रत्नागिरी तक ही सीमित थे, क्योंकि वो इस शर्त से बंधे थे कि वे राजनीति में भाग नहीं लेंगे और रत्नागिरी के बाहर कहीं यात्रा नहीं करेंगे.

इस अनुमान को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि सावरकर के बड़े भाई बाबूराव सावरकर 1925 में नागपुर में हुई उस बैठक में मौजूद पांच लोगों में से थे, जिसमें आरएसएस की स्थापना हुई थी. और बाद में उन्होंने अपने संगठन तरुण भारत संघ का विलय आरएसएस में कर दिया था.

आरएसएस के गठन के दो साल बाद देशभर में साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, लेकिन इनमें आरएसएस कहीं नहीं था. कुछ समय बाद दिसंबर, 1929 में जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज को फहराया और पूर्ण स्वराज को पार्टी का मकसद घोषित किया. कांग्रेस ने 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस के तौर पर मनाने का भी फैसला लिया, जिसमें राष्ट्र ध्वज को हर शहर और गांव-गांव में फहराया जाना था और सभी उपस्थित लोगों को एक राष्ट्रीय शपथ लेनी थी.

हेडगेवार ने दावा किया कि चूंकि आरएसएस पूर्ण स्वराज में यकीन करता है, इसलिए यह स्वतंत्रता दिवस तो मनाएगा, लेकिन यह तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराएगा. यह आरएसस की राष्ट्रवादी जैसे दिखने मगर वास्तविक राष्ट्रीय आंदोलन से खुद को दूर रखनेवाली  कार्यपद्धति का एक सटीक उदाहरण था.

इसी तरह से जब उस साल बाद में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया गया, हेडगेवार ने फैसला किया कि वे निजी तौर पर इसमें शामिल होंगे, लेकिन एक संगठन के तौर पर आरएसएस इसमें शिरकत नहीं करेगा. इसलिए वे अपनी राष्ट्रवादी साख को बनाए रखने और साथ ही, बकौल उनके आधिकारिक जीवनीकार, जेल में बंद कांग्रेस के कैडर को आरएसएस की तरफ आकर्षित करने के लिए जेल गए.

पूरे 1930 के दशक के दौरान आरएसएस का ध्यान संगठन खड़ा करने की तरफ रहा. आरएएस और हिंदू महासभा के बीच कुछ तनाव हुआ था, खासकर सावरकर के खुलकर सामने आने के बाद, क्योंकि महासभा ज्यादा सक्रिय राजनीतिक भूमिका, खासकर चुनावी क्षेत्र में निभाना चाहती थी.