जब एक युवा भारतीय वैज्ञानिक ने बताया सितारों का भविष्य
11 जनवरी 1935. शाम के 6.15 मिनट होने वाले हैं. लन्दन स्थित बर्लिंगटन हाउस में रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी का सम्मेलन पिछले डेढ़ घंटे से चल रहा है. पूरा हॉल गणमान्य वैज्ञानिकों, खगोलवेत्ताओं से भरा हुआ है. पहली पंक्ति में आर्थर एडिंग्टन, जेम्स जीन्स, मिलने, फाउलर इत्यादि जैसे विश्व विख्यात खगोलविद और वैज्ञानिक बैठे हैं. उसके पीछे वाली पंक्ति में युवा उभरते हुए वैज्ञानिक, खगोलविद, गणितज्ञ इत्यादि बैठे हैं. उसे पंक्ति में एक 24 वर्षीय युवा भारतीय वैज्ञानिक भी बैठे हुए हैं जिनके लिए आज का यह सम्मेलन बेहद महत्वपूर्ण है. इनका नाम है सुब्रमण्यम चंद्रशेखर, जिनके चाचा सी,वी. रमण को 1930 में भौतिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था.
पिछले 5 सालों से वे अपने जिस शोध कार्य में लगे हुए हैं आज उसकी परीक्षा होने वाली है. आज वे अपना शोध पत्र अब से कुछ देर बाद पढने वाले हैं. अगर उनका शोध पत्र खगोल विज्ञान के इस मक्का में स्वीकार कर लिया जाता है तो ये उनके वैज्ञानिक करियर के लिए सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी. बचपन से जो उनका सपना था कि उनका नाम भी उनके हीरो न्यूटन,आइंस्टीन और रामानुजम की तरह विज्ञान और गणित की दुनिया एक महत्वपूर्ण वैज्ञानिक और गणितज्ञ की तरह लिया जाए, उसे प्राप्त करने में आज का उनका शोध पत्र एक मील का पत्थर साबित होगा. हालाँकि उन्हें घबराहट नहीं है क्योंकि उन्हें अपने गणितीय गणना पर पूरा विश्वास है और वे पहले भी इस हॉल में कई पत्र पढ़ चुके हैं, फिर भी अपने अब तक के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण पल को निकट आता देख उन्हें थोड़ी बेचैनी हो जाती है. वे थोड़ा कसमसा के अपने टाई के नॉट को ढीला करने का प्रयास करने लगते हैं.
शायद इसका एक कारण जनवरी की उस सर्द शाम में भी हॉल के अन्दर दरवाजे और खिड़कियों के बंद रहने और हॉल खचाखच भरे रहने के चलते उत्पन्न उष्णता भी हो सकती है. हॉल के अन्दर लग रहा कि ये जुलाई की शाम हो, बहुत कुछ उनके गृहनगर मद्रास के मौसम के जैसा. तभी ठीक 6.15 बजे सम्मेलन की अध्यक्षता कर रहे स्ट्रैटन उस भारतीय युवा का नाम पुकारते हैं. वे पोडियम पर आकर एक बार हॉल में बैठे लोगों को देखते हैं. खगोल विज्ञान के सभी गणमान्य वैज्ञानिकों को देखकर उन्हें आज के दिन का महत्व का अहसास प्रखरता से होता है. शायद आइंस्टीन ने भी जब पेटेंट क्लर्क की नौकरी करते हुए ''सापेक्षता के विशेष सिद्धांत'' की खोज की होगी तो वे भी इसी मनस्थिति से गुजरे होंगें कि वैज्ञानिक समुदाय उसे किस रूप में लेगा. वे धीरे-धीरे पूरे आत्मविश्वास के साथ अपने दक्षिण भारतीय एक्सेंट वाली अंग्रेजी में अपना शोध पत्र पढने लगते हैं जो कि मृत सितारों के भविष्य को लेकर है.
दरअसल जबसे सितारों के निर्माण प्रक्रिया के बारे में वैज्ञानिकों को पता चला कि सितारों के कोर में नाभिकीय प्रक्रिया के चलते तारे अस्तित्व में आते हैं और जब तक उनके कोर में नाभिकीय प्रक्रिया चलती रहती है तब तक तारों का आकार स्थायित्व लिए होता है. पर किसी तारे में मौजूद हाइड्रोजन समाप्त हो जाता है तो उसके कोर में चल रही नाभकीय प्रक्रिया रुक जाती है और कोर सिकुड़ने लगता है और इसके साथ ही मृत तारे का आकार सिकुड़ कर लगभग पृथ्वी के आकार का हो जाता है. इसे ''सफ़ेद बौना तारा''( white drwarf) कहा जाता है. यानी हर तारा अपने ईंधन की समाप्ति के बाद ''सफ़ेद बौना तारा'' में बदल जाता है, ऐसा खगोविदों का मानना था. पर आज चंद्रा, लोग उन्हें इसी नाम से पुकारते हैं, इसी मान्यता प्राप्त सिद्धांत को चुनौती देने वाले हैं. ठीक आइंस्टीन की तरह जब उन्होंने प्रचलित मान्यताओं के विपरीत अपने ''सापेक्षता के विशेष सिद्धांत'' का प्रतिपादन किया था.
वे कह रहे हैं कि किसी तारे का सफ़ेद बौने तारे में बदलने की प्रक्रिया उसके मौजूदा द्रव्यमान पर निर्भर करती है और सफ़ेद बौने तारे में बदलने के लिए तारे के द्रव्यमान की एक उपरी सीमा ( upper limit) होती है. उस सीमा के ऊपर द्रव्यमान वाले तारे ईंधन की समाप्ति के बाद सिकुड़ते हुए सफ़ेद बौना बनने के बजाये और भी सिकुड़ता चला जाता है, शायद सिंगुलारिटी की तरफ.सिर्फ सूर्य के द्रव्यमान या उससे 1.4 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारे ही सफ़ेद बौने में परिवर्तित होते हैं. उसके अधिक द्रव्यमान वाले तारे की सिकुड़ने की कोई सीमा नहीं होती है. वे ये कहते हुए अपना शोध पत्र पढ़ना समाप्त करते हैं कि - '' कम द्रव्यमान वाले तारे का जीवन अधिक द्रव्यमान वाले तारे से भिन्न होता है..... कम द्रव्यमान वाले तारे मृत होने बाद सफ़ेद बौना में बदल जाते है जबकि अधिक द्रव्यमान वाले तारे मृत होने के सफ़ेद बौना तारा में न बदलकर और भी सिकुड़ते चले जाते हैं जिसके बारे में अनुमान ही लगाया जा सकता है कि वे कहाँ रुकते हैं...''. इसके बाद वे अपने कागजात समेटकर एक बार फिर हॉल में मौजूद लोगों को आशाभरी नज़रों से देखते हैं.
उनकी निगाहें खासकर एडिंग्टन की ओर लगी है क्योंकि खगोलविज्ञान की दुनिया में, खासकर आइंस्टीन के ''सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत'' की उनके द्वारा प्रयोगात्मक पुष्टि के बाद, सबसे बड़े नाम बन गए हैं. उनके इस शोधपत्र के लिखने दौरान गणितीय गणना करने में आ रही कठिनाई को दूर करने के लिए एडिंग्टन ने ही उन्हें कैलकुलेटर की व्यवस्था करवाई थी. इसके अलावा बीते वर्षों के दौरान उन्होंने एक मित्र की तरह अनेकों बार उन्हें इस शोधपत्र लिखने के लिए प्रोत्साहित भी किया था. देखा जाए तो आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर 1926 में एडिंग्टन ने खुद एक बार मजाक में कहा था कि जब किसी तारे में गैस समाप्त हो जाएगी तो गैस के चलते मौजूद सेंट्रिपेटल फ़ोर्स की समाप्ति के बाद वह तारा गुरुतावाकर्षण बल के चलते सिकुड़ते हुए विलुप्त हो जायेगा. हालाँकि बाद में उनके एक सहयोगी फाउलर ने यह सिद्धांत प्रतिपादित किया कि तारे के कोर में मौजूद इलेक्ट्रॉन डिजेनेरेसी दबाव उस तारे को और सिकुड़ने से रोककर ''सफ़ेद बौना'' की स्थिति में ही रोक देगा. चंद्रा ने फाउलर के इसी सिद्धांत की खामी को आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत के आधार पर दूर कर अपना ये शोध पत्र तैयार किया है.
चंद्रा के पोडियम पर से उतरने के बाद एडिंग्टन, जिन्हें वैसे भी उनके बाद अपना पत्र पढ़ना था, अपने चिर परिचित ड्रामाई अंदाज में पोडियम पर चढ़ते हैं और ड्रामाई अंदाज में कहते हैं कि चंद्रशेखर के शोध पत्र की बुनियाद जो कि आइंस्टीन के सापेक्षता के सिद्धांत पर आधारित है, एकदम से बेतुका है. उनके द्वारा प्रतिपादित ऊपरी सीमा का कोई आधार नहीं है. किसी भी तारे के सफ़ेद बौना तारे बनने के लिए उसमें मौजूद द्रव्यमान की कोई उपरी सीमा नहीं होती है. पूरे हॉल में सन्नाटा छा जाता है. चंद्रा स्तब्ध हो जाते हैं. उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि एडिंग्टन ऐसा क्यों कह रहे हैं. इसके बाद एडिंग्टन अपना पत्र '' "Relativistic Degeneracy" पढ़ने लगते हैं जो कि उन्होंने खास तौर पर चंद्रा के सिद्धांत को ध्वस्त करने के लिए ही तैयार किया था.उस पत्र में एक तरह से उन्होंने फाउलर के शोधपत्र को ही सही ठहराते हैं जिसमें तारों के सफ़ेद बौने में बदलने के लिए द्रव्यमान कि कोई उपरी सीमा नहीं है.
चंद्रा एडिंग्टन की इस स्थापना के विरोध करने के लिए अपने सीट पर खड़े हो जाते हैं, पर सभा के अध्यक्ष स्ट्रैटन ये कहकर बोलने से रोक देते हैं कि दोनों ने अपना-अपना शोध पत्र पढ़ लिया है और अब इन पत्रों में मौजूद तर्कों पर वैज्ञानिकों द्वारा जांच-पड़ताल के बाद ही बहस हो सकती है. चंद्रा निराश हो जाते हैं. उन्हें लगता है कि उनका करियर बनने से पहले ही समाप्त हो गया है. पिछले 5 सालों की उनकी मेहनत पर पानी फिर गया है. पर एडिंग्टन जैसे संसार के श्रेष्ठ खगोलविद द्वारा अपने सिद्धांत की धज्जियाँ उदय जाने के बाद भी निराश नहीं होते हैं क्योंकि उन्हें अपने गणितीय गणना पर पूरा विश्वास रहता है. 1939 में वे अपना शोध पत्र को परिष्कृत कर प्रकाशित करवाते हैं. वर्षों तक उनका सिद्धांत सिर्फ निरा सिद्धांत ही रहा, पर 60 के दशक में न्यूट्रॉन स्टार और ब्लैक होल की खोज के बाद उनके सिद्धांत की सत्यता प्रमाणित हो गयी और 1983 में उन्हें इसी शोधपत्र पर संयुक्त रूप से नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया. उनके द्वारा प्रतिपादित उपरी सीमा का नाम उनके सम्मान में '' चंद्रशेखर लिमिट'' रखा गया, ठीक उनके चाचा '' रमन इफ़ेक्ट'' की तरह. परसों यानी 19 अक्टूबर को उनकी 114 वीं जयंती थी.
डॉ॰ सुब्रह्मण्याम चंद्रशेखर का जन्म 19 अक्टूबर 1910 को लाहौर (अब पाकिस्तान में) में एक तमिल ब्राह्मण परिवार में हुआ था. उनके पिता चंद्रशेखर सुब्रमण्यम अय्यर रेलवे में अकाउंटेंट थे. उनके छोटे भाई प्रसिद्द भौतिकविद सी.वी.रमन थे. उनकी प्रारंभिक शिक्षा-दीक्षा मद्रास में हुई. मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज से स्नातक की उपाधि लेने तक उनके कई शोध पत्र प्रकाशित हो चुके थे. उनमें से एक `प्रोसीडिंग्स ऑफ द रॉयल सोसाइटी' में प्रकाशित हुआ था, जो इतनी कम उम्र वाले व्यक्ति के लिए गौरव की बात थी. दिलचस्प तथ्य ये है कि सितारों के रहस्य जानने की उत्सुकता उनके मन में तब आई जब ने अपने चाचा सी.वी.रमन के द्वारा लायी आर्थर एडिंग्टन की प्रसिद्ध पुस्तक '' सितारों की आन्तरिक संरचना'' ( Internal constitution of the stars) पढ़ा. उस समय वे उनके साथ ही कोलकाता में उनकी प्रयोगशाला में सहायक के तौर पर कार्य कर रहे थे. इसी समय उन्होंने जर्मन भौतिकविद अर्नाल्ड सोमरफील्ड की क्लासिक पुस्तक '' Atomic structure and spectral lines'' भी पढ़ी. संयोग से 1928 में समरफील्ड मद्रास आये थे और चंद्रा ने उनसे मुलाकात की. इसी मुलाकात ने उनके जीवन की दिशा बदल दी.
जून 1930 में भौतिकी में स्नातक की डिग्री, बीएससी (ऑनर्स) करने बाद उसी साल जुलाई सरकार द्वारा छात्रवृत्ति प्रदान किये जाने के बाद चंद्रशेखर को कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में स्नातक अध्ययन करने के लिए इंग्लैंड गए. अपनी इंग्लैंड यात्रा के दौरान ही उन्होंने फाउलर के सिद्धांत में व्याप्त खामी की गणना कर अपने सिद्धांत की रूपरेखा तैयार कर ली थी. 1933 की गर्मियों में, चंद्रशेखर को कैम्ब्रिज में घूर्णन स्व-गुरुत्वाकर्षण पॉलीट्रोप्स पर अपने चार शोधपत्रों में से एक शोध प्रबंध के लिए पीएचडी की डिग्री प्रदान की गई. इसी साल 9 अक्टूबर को, उन्हें 1933-1937 की अवधि के लिए ट्रिनिटी कॉलेज में पुरस्कार फैलोशिप के लिए चुना गया. 16 साल पहले रामानुजम के बाद ये फेलोशिप प्राप्त करने वाले दुसरे भारतीय थे. यही उनकी मुलाकात आर्थर एडिंगटन से हुए जिन्होंने उनके शोध में गहरी दिलचस्पी दिखाई. जनवरी की उस घटना के बाद भी दोनों के सम्बन्ध बने रहे और उनका आपस में पत्राचार बना रहा. 1944 में एडिंग्टन की मृत्यु हो जाती है. अपने मृत्यु तक वे चंद्रा के सिद्धांत को गलत ही मानते रहे. पर जब डॉक्टर चंद्रा को 1983 में नोबेल मिला तो उन्होंने एडिंग्टन का नाम काफी सम्मान से लिया.
पर 1935 की जनवरी के उस शाम के बाद कैंब्रिज से उनका मन उचट गया. वे दो साल बाद अमेरिका चले आए. चंद्रशेखर अपने पूरे करियर के दौरान शिकागो विश्वविद्यालय में ही रहे. 1941 में उन्हें एसोसिएट प्रोफेसर और दो साल बाद 33 साल की उम्र में पूर्ण प्रोफेसर के पद पर पदोन्नत किया गया. 1946 में, जब प्रिंसटन विश्वविद्यालय ने चंद्रशेखर को हेनरी नॉरिस रसेल द्वारा खाली किए गए पद पर शिकागो के वेतन से दोगुना वेतन देने की पेशकश की, तो हचिन्स ने प्रिंसटन के वेतन के बराबर उनका वेतन बढ़ा दिया और चंद्रशेखर को शिकागो में रहने के लिए राजी कर लिया.1952 में, वे एनरिको फर्मी के निमंत्रण पर, सैद्धांतिक खगोल भौतिकी और एनरिको फर्मी संस्थान के मॉर्टन डी. हल प्रतिष्ठित सेवा प्रोफेसर बन गए. 1953 में, उन्होंने और उनकी पत्नी ललिता चंद्रशेखर ने अमेरिकी नागरिकता ले ली.
डॉ॰ चंद्रा सेवानिवृत्त होने के बाद भी जीवन-पर्यंत अपने अनुसंधान कार्य में जुटे रहे.वे लगभग 20 वर्ष तक एस्ट्रोफिजिकल जर्नल के संपादक भी रहे. उन्होंने खगोल विज्ञान और खगोल भौतिकी पर बहुत सारी पुस्तकें भी लिखी. उनकी पुस्तक '' ट्रुथ एंड ब्यूटी '' गणितीय और वैज्ञानिक सत्य और सुन्दरता के संबंधों पर एक महत्वपूर्ण पुस्तक मानी जाती है. वे नास्तिक थे, पर सत्य की सुन्दरता में उनका विश्वास था. अपने अंतिम साक्षात्कार में उन्होंने कहा था, यद्यपि मैं नास्तिक हिंदू हूं पर तार्किक दृष्टि से जब देखता हूं, तो यह पाता हूं कि मानव की सबसे बड़ी और अद्भुत खोज ईश्वर है. हालाँकि बाद में उन्होंने अमेरिकी नागरिकता ले ली, पर भारत से और खासकर अपने गृह नगर मद्रास से उनका लगाव अंत तक बना रहा. बीसवीं सदी के विश्व-विख्यात वैज्ञानिक तथा महान खगोल वैज्ञानिक डॉ॰ सुब्रह्मण्यम् चंद्रशेखर का 22 अगस्त 1995 को 84 वर्ष की आयु में दिल का दौरा पड़ने से शिकागो में निधन हो गया. हालाँकि आज डॉ॰ चंद्रा हमारे बीच नहीं हैं, पर उनकी विलक्षण उपलब्धियों की धरोहर हमारे पास है जो भावी पीढ़ियों के खगोल वैज्ञानिकों के लिए प्रेरणा स्रोत बनी रहेगी.
साभार : आर्थर मिलर की पुस्तक '' एम्पायर ऑफ़ द स्टार्स'' और विकिपीडिया.