सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….


भाजपा को सांगठित व वैचारिक ताकत प्रदान करने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन जब 1925 में किया गया तब समूचा देश कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ रहा था ।

सावरकर के हिन्दूत्व से प्रभावित केबी हेगडेवार के इससे पहले कांग्रेस में मंझोले कद के नेता थे और वे जेल भी जा चुके थे, लेकिन हिन्दू‌महासभा के सावरकर से प्रभावित होकर या अंग्रेजी हुकूमत के प्रभाव,  में से उन पर कौन ज्यादा हावी हुआ यह कहना मुश्किल है क्योंकि  इतिहास में इसके तथ्य नहीं मिलते ।

लेकिन यदि आरएसएस के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को लेकर जब खोज हुई तो जो तथ्य सामने आये वह चौंकाने वाले है। 

1925 से अपने गठन के बाद से आजादी मिलने तक 1947 तक के  इतने साल के सफर में उन लोगों का कोई नामो निशान नहीं मिलता जो आज प्रखर स्वर में राष्ट्र‌वादी होने का दंभ भरते है। इस साफ दिखाई देने वाली अनुपस्थति की वजह से संघ को अंग्रेजों के शुभचिंतक के तौर पर या वफादार के तौर पर जोड़ा जाता है।


तथ्य यहीं कि 1925 से लेकर 1947 तक संघ ने कांग्रेस या किसी अन्य समूह या दल द्वारा  चलाए गए अंग्रेजों के खिलाफ किसी अभियान या आन्दोलन में भागीदारी की ही नहीं , और न ही अपने संगठन के द्वारा ही अंग्रेजो के खिलाए कोई आन्दोलन ही चलाया।

राष्ट्रवाद को अपना धर्म बताने वाले आरएसएस के लिए वास्तव में यह एक काला अध्याय है।

दरअसल इस तथ्यों से एक बात और स्पष्ट होता है कि इनका धर्म भारतीय राष्ट्रवाद नहीं हिन्दू राष्ट्रवाद है।

मृदुला मुखर्जी जेएनयू के इतिहास विभाग की पूर्व प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक ने अपने एक लेख में लिखा है कि  तथ्य यह है कि इसके संस्थापक हेडगेवार नागपुर में कांग्रेस के एक मझोले दर्जे के नेता थे और असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे. लेकिन वे इटली की यात्रा करने वाले और वहां मुसोलिनी से मिलने वाले, इटली के फासीवादी संस्थानों का अध्ययन करने वाले और उनसे जबरदस्त तरीके से प्रभावित हिंदू महासभा के एक नेता बीएस मूंजे के कट्टर अनुयायी थे.

यह भी माना जाता है कि वे वीडी सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’ से प्रभावित थे, जो प्रकाशित 1923 में हुई थी, लेकिन प्रसार में इससे पहले से थी, जिसमें सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा का मूल विचार दिया था कि भारत हिंदुओं की भूमि है और उनकी जिनकी पुण्यभूमि और पितृभूमि भारत में है. यह विचार इस तरह से मुस्लिमों और ईसाइयों और इस परिभाषा की कसौटी पर खरा न उतरने वाले किसी भी अन्य को भारतीय राष्ट्र से बाहर कर देता है.

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि हेडगेवार मुख्य तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे और बौद्धिक और वैचारिक इनपुट या निर्देश वास्तव में सावरकर से ही आता था, जो अंडमान जेल से रिहा होने के बाद भी रत्नागिरी तक ही सीमित थे, क्योंकि वो इस शर्त से बंधे थे कि वे राजनीति में भाग नहीं लेंगे और रत्नागिरी के बाहर कहीं यात्रा नहीं करेंगे.

इस अनुमान को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि सावरकर के बड़े भाई बाबूराव सावरकर 1925 में नागपुर में हुई उस बैठक में मौजूद पांच लोगों में से थे, जिसमें आरएसएस की स्थापना हुई थी. और बाद में उन्होंने अपने संगठन तरुण भारत संघ का विलय आरएसएस में कर दिया था.

आरएसएस के गठन के दो साल बाद देशभर में साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, लेकिन इनमें आरएसएस कहीं नहीं था. कुछ समय बाद दिसंबर, 1929 में जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज को फहराया और पूर्ण स्वराज को पार्टी का मकसद घोषित किया. कांग्रेस ने 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस के तौर पर मनाने का भी फैसला लिया, जिसमें राष्ट्र ध्वज को हर शहर और गांव-गांव में फहराया जाना था और सभी उपस्थित लोगों को एक राष्ट्रीय शपथ लेनी थी.

हेडगेवार ने दावा किया कि चूंकि आरएसएस पूर्ण स्वराज में यकीन करता है, इसलिए यह स्वतंत्रता दिवस तो मनाएगा, लेकिन यह तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराएगा. यह आरएसस की राष्ट्रवादी जैसे दिखने मगर वास्तविक राष्ट्रीय आंदोलन से खुद को दूर रखनेवाली  कार्यपद्धति का एक सटीक उदाहरण था.

इसी तरह से जब उस साल बाद में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया गया, हेडगेवार ने फैसला किया कि वे निजी तौर पर इसमें शामिल होंगे, लेकिन एक संगठन के तौर पर आरएसएस इसमें शिरकत नहीं करेगा. इसलिए वे अपनी राष्ट्रवादी साख को बनाए रखने और साथ ही, बकौल उनके आधिकारिक जीवनीकार, जेल में बंद कांग्रेस के कैडर को आरएसएस की तरफ आकर्षित करने के लिए जेल गए.

पूरे 1930 के दशक के दौरान आरएसएस का ध्यान संगठन खड़ा करने की तरफ रहा. आरएएस और हिंदू महासभा के बीच कुछ तनाव हुआ था, खासकर सावरकर के खुलकर सामने आने के बाद, क्योंकि महासभा ज्यादा सक्रिय राजनीतिक भूमिका, खासकर चुनावी क्षेत्र में निभाना चाहती थी.