रविवार, 18 अप्रैल 2021

जन की बात-२

 

न समय रुक रहा था, न करोनो का कहर ही रुक था। हां सत्ता का चरित्र पल-पल बदल रहा था । अपनी जिम्मेदारी और दायित्व से मुंह मोड़ते सत्ता की जब आलोचना बढऩे लगी तो वह तमाम विरोधी दलों से सुझाव का आबंडर करने लगी, दरबारी मीडिया को सरकार की प्रशंसा में लगा दिया और इस महामारी के बढ़ते प्रकोप के लिए जन मानस को ही जिम्मेदार ठहराया जाने लगा।

जबकि हकीकत यही है कि सत्ता ने इस महामारी के कम होते प्रभाव को लेकर घोर लापरवाही बरती। जिसकी वजह से जब कोरोना का दूसरा लहरा आया तो अस्पताल, दवाई, चिकित्सकों की अनदेखी का पोल खुल गया। विश्व के दूसरे संस्थानों से मिले 50 हजार करोड़ के अलावा पीएम केयर फंड के पैसों का समुचित उपयोग नहीं किया गया जिसकी वजह से चिकित्सा सुविधा बदहाल की बदहाल रही।

जिस तरह से निजी अस्पतालों ने अपदा को अवसर में तब्दिल किया उस पर भी सत्ता की अनदेखी रही। दवाई, आक्सीजन के बगैर दम तोड़ती जिन्दगी के बीच भी कुंभ के आयोजन की अनुमति और चुनौती रैलियों में हजारों की भीड़ जुटाई गई। मोदी सत्ता को सिर्फ और सिर्फ यश चाहिए। जनता की आंखों में, मन में सत्ता प्रमुख का चरित्र खंडित नहीं होना चाहिए। नफरत-झूठ-अफवाह के चलाये शब्द बाण को धर्म और राष्ट्रवाद की चाशनी में परोसने की जिम्मेदारी दरबारी मीडिया की थी। धर्म और राष्ट्रप्रेम का ऐसा आबंडर किसने देखा था। नफरत का वेग इस कदर हावी था कि प्रधानमंत्री जैसा शख्स हर गांव में कब्रिस्तान के मुकाबले श्मशान खड़ा करना चाहता था। (फतेहपुर की जनसभा)

शायद राजा की ईच्छा ईश्वर ने पूरी कर दी थी? हर जगह से जलती चिता के ताप लोग उद्देलित थे, दुखी थे, लेकिन अब भी दरबारी मीडिया सत्ता के महिमा मंडन में लगी थी। कल तक मरकज को कोरोना फैलाने की वजह बताने वाली मीडिया कुंभ और चुनावी रैली पर मौन साध रखा था। मीडिया ने मौन तो एनआरसी और किसान आंदोलन पर भी साध रखा था। लोकतंत्र में सत्ता और मीडिया का सुख किसी अभिशाप की तरह है, जो व्यक्ति को दूसरों की व्यथा की ओर से अंधा कर देता है। मीडिया और सत्ता जितने साधारण होगे लोगों की व्यथा उतनी ही स्पष्ट दिखाई देती है, लेकिन जब सत्ता अपनी रईसी बचाने में व्यस्त हो जाये और मीडिया को रुतबा और पैसों की भूख हो तो जनमानस यूं ही लाशों में तब्दिल होता रहेगा।

हैरानी तो तब होती है जब कोई कहता है मैंने गरीबी देखी है, अभाव में जिया है और सत्ता आते ही सबसे पहले अपने सुख सुविधा के इंतजाम में उन वर्गों की अनदेखी करता है जो उपेक्षित हैं या जिन्हें सरकार के संरक्षण की ज्यादा जरूरत है। हैरानी तब और अधिक होती है जब  वह पूंजीपतियों की गोद में बैठकर, पूंजीपतियों के अनुरुप कानून बनाता है। कितने उदाहरण है जो सत्ता के प्रति घृणा उत्पन्न करती है, नोटबंदी की लाईन में मरते लोग, जीएसटी की चक्रव्यूह में आत्महत्या करते व्यापारी, मॉब लिचिंग और बलात्कार के आरोपियों की जयकारा और दूसरी पार्टियों के भ्रष्टाचारियों को संरक्षण, किसान आंदोलन से मरते किसान के बाद भी किसी सत्ता में करुणा न जगे तो इसका क्या मतलब है। अनेक अवसर में सत्ता ने अपनी मनमानी और प्रभाव का इस्तेमाल कर अपने अहंकार को बढ़ाया है। राफेल का मामला हो या तरुण गोगाई सहित कई नियुक्तियां? लेकिन सत्ता ने धर्म और राष्ट्रवाद का जो भ्रम फैलाया है, उससे जनमानस भ्रमित है और अपना हित नहीं देख पा रही है। (जारी...)