भारत की सर्वोच्च अदालत ने देशद्रोह कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए केन्द्र से पूछा है कि महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे महान लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किए जाने वाले इस कानून की वर्तमान में क्या जरूरत है?
दरअसल पिछले सात सालों में धारा 124ए का जिस तरह से विरोध के स्वर को दबाने सत्ता ने इसका दुरुपयोग किया है वह किसी से छिपा नहीं है। फादर स्टेन की मौत के बाद तो पूरी दुनिया में जिस तरह से भारत की थू-थू हुई है उसके बाद सर्वोच्च अदालत भी सक्रिय हो गया है। हालांकि सर्वोच्च अदालत के सवाल पर भारत सरकार के अर्टानी जनरल ने इस कानून की वकालत करते हुए कहा कि रद्द किये जाने की जरूरत नहीं है बल्कि दिशा-निर्देश तय किये जाने की जरूरत है। लेकिन सच तो यह है कि इस कानून का हाल के सालों में जिस तरह से दुरुपयोग किया गया है उसके बाद इसके औचित्य पर ही सवाल उठने लगे है।
हालांकि कांग्रेस ने पिछले चुनाव में इस कानून को रद्द करने की बात अपने घोषणा पत्र में कही थई जिसे लेकर भारतीय जनता पार्टी ने खूब बवाल मचाया था और कांग्रेस के खिलाफ माहौल भी बनाया गया था कि वह देशद्रोहियों को बचाना चाहती है लेकिन सच तो यही है कि इस कानून ने आदिवासी क्षेत्रों में काम करने वाले, सत्ता की तानाशाही और मनमानी के खिलाफ उठने वाली आवाजों को दबाने का काम किया और आंकड़े बताते है कि जिन लोगों पर राष्ट्रद्रोह कानून के तहत जेल में डाला गया था उनमें से 99 फीसदी से अधिक लोग बाद में रिहा हो गये।
तब सवाल यही है कि क्या सरकारों के खिलाफ आंदोलन करना राष्ट्रद्रोह है, बढ़ती महंगाई और सरकार के मनमाने फैसले पर क्या चुप्पी साथ लेना चाहिए। सत्ता और उसके इशारे पर पुलिस कार्रवाई का सबसे बड़ा उदाहरण तो आईटी की धारा 66ए है जिसे रद्द कर दिया गया है लेकिन पुलिस अब भी इस धारा के तहत अपराध दर्ज कर रही है। ऐसे में धारा 124ए के दुरुपयोग को लेकर जिस तरह विरोध के स्वर बढ़ते जा रहे है उसके बाद केन्द्र सरकार को इसे समाप्त करने की पहल खुद करनी चाहिए। क्योंकि यह तय हो चुका है कि विरोध के स्वर को दबाने के लिए राष्ट्रद्रोह कानून का बेजा इस्तेमाल कर प्रताडि़त किया गया है। देखना है कि सर्वोच्च न्यायालय इस पर आगे क्या करती है?
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