शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था

संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था 

भले ही बीजेपी अब राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए घर घर तिरंगा का आयोजन कर रही हो लेकिन तिरंगा को लेकर संघ का रवैया नकारात्मक रहा है ।
संघ पर तिरंगा विरोधी का तमगा यूँ ही नहीं लगा है
संघ के इस रवैये को लेकर उठते सवालों में यह घटना बेहद ही महत्वपूर्ण है 
1950 के बाद आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा तब तक नहीं फहराया गया जब तक कि 26 जनवरी 2001 को राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन सदस्यों ने आरएसएस प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध आरएसएस स्मृति भवन में जबरन राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया। इसके बाद तीनों पर मामला दर्ज किया ... 
ये तीनों युवकों को २०१३ में बरी किया गया
पीटीआई के मुताबिक़ इन तीनों युवाओं को झंडा फहराने से रोकने वाले का नाम सुनील कोठाले था जो प्रभारी था।

२००१ के इस घटना के बाद २६ जनवरी २००२ से संघ ने अपनी मर्ज़ी से तिरंगा फहराना शुरू किया।
दरअसल तिरंगा को लेकर आरएसएस की सोच के तथ्य पर गौर करे तो विवाद की शुरुआत गुरु गोवलकर और ऑर्गनाइज़र में छपे लेख से समझ सकते है-
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के कांग्रेस के फैसले की आलोचना की थी।

"हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा बनाया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ़ बहकने और नकल करने का मामला है। यह झंडा कैसे अस्तित्व में आया? फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, फ्रांसीसियों ने 'समानता', 'बंधुत्व' और 'स्वतंत्रता' के तीन विचारों को व्यक्त करने के लिए अपने झंडे पर तीन पट्टियाँ रखीं। इसी तरह के सिद्धांतों से प्रेरित अमेरिकी क्रांति ने कुछ बदलावों के साथ इसे अपनाया। इसलिए तीन पट्टियाँ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी एक तरह का आकर्षण थीं। इसलिए, इसे कांग्रेस ने अपनाया," गोलवलकर ने लिखा था।
आरएसएस नेता ने तिरंगे की भी आलोचना करते हुए कहा कि यह "सांप्रदायिक" है, उन्होंने लिखा, "फिर इसे विभिन्न समुदायों की एकता के रूप में व्याख्यायित किया गया- भगवा रंग हिंदू का, हरा रंग मुस्लिम का और सफेद रंग अन्य सभी समुदायों का प्रतीक है। गैर-हिंदू समुदायों में से, मुस्लिम का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया गया क्योंकि उनमें से अधिकांश प्रतिष्ठित नेताओं के मन में मुस्लिम प्रमुख थे और उनका नाम लिए बिना वे नहीं सोचते थे कि हमारी राष्ट्रीयता पूरी हो सकती है! जब कुछ लोगों ने बताया कि यह सांप्रदायिक दृष्टिकोण की बू आती है, तो एक नया स्पष्टीकरण सामने लाया गया कि 'भगवा' बलिदान का प्रतीक है, 'सफेद' शुद्धता का और 'हरा' शांति का प्रतीक है और इसी तरह।"

1947 में आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने भी तिरंगे पर आपत्ति जताते हुए लिखा था कि भारतीय नेता "हमारे हाथों में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन हिंदू इसका कभी सम्मान नहीं करेंगे और इसे अपनाएंगे नहीं। तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है।"

आरएसएस ने 2015 में यह भी कहा था कि “राष्ट्रीय ध्वज पर केवल भगवा रंग ही होना चाहिए क्योंकि अन्य रंग सांप्रदायिक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं।"

हालाँकि, वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में कहा था कि आरएसएस “अपने जन्म से ही तिरंगे के सम्मान के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।”
यानी आरएसएस और बीजेपी को तिरंगा को स्वीकार करने में दर्शकों लगे।

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