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शनिवार, 5 अप्रैल 2025
रग रग में राम
रामचरित मानस में तुलसीदासजी कहते हैं-
सीय राम मय सब जग जानी।
करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी ।।
सबसे कठिन और सबसे अद्भूत इस एक चौपाई में राम -सीता के जीवन का पूरा सार छिपा है। इस देश के पूरब से पछचिम और उत्तर से ठत दक्छिन तक राम रचे बसे हैं,तो इसकी वजह राम का वह जीवन-दर्शन है जो उन्हें आम जन के साथ खड़ा करता है। वे चाँद पाने माता कौशल्या से हट करते हैं,तो पिता के वनवास की आज्ञा को सिर झुकाकर स्वीकार करते हैं। विश्वामित्र की यज्ञ की रक्छा से लेकर सीता वनवास का निर्मम फैसला हो या शबरी के जूठे बेर खाने का निर्णय , सबमे राम अलग से दिखलाई पड़ते हैं। सीता के अपहरण के बाद वन में भटकने से लेकर राम का सारा निर्णय राजा को राजघरानों और महलों से निकालकर भाषा-बानी ,मिटटी-पानी ,जड़-चेतन में फैलने का उपक्रम है। मनुष्य-मात्र का आख्यान वाले इन निर्णयों की वजह से ही राम पुष्प गंध की तरह हवा-पानी में रचे बसे हैं। राजशक्ति पर उठती ऊँगली को आमजन का अधिकार मानने की वजह से ही वे साधारण बन कर रग रग में समाते चले गए।
यह साधारण सहजता ही राम को जन जन जन से जोड़ती है। वे कैकेई के पुत्र मोह को सहज मानवीय प्रवृति के रूप में देखते हैं। राम की यही दृष्टि उन्हें वनवासियों से जोड़ती है,केवंट के दिल में उतारती है तो आमजन के सुख-दुःख का हिस्सेदार बनाती है। विश्वामित्र की यज्ञ की रक्छा से लेकर वनवास काल में जो उनसे मिलता है,अपना दुखड़ा सुनाते है,और राम उन सबको उबारते हैं। माता अहिल्या से लेकर सुग्रीव-हनुमान और फिर विभीषण सबमे वे ताकत बनकर समाते हैं।
राम से मिलन तब भी उत्सव था और आज भी उत्सव है। ऐसा उत्सव जिसमे राम न स्वयं के रह जाते हैं और न ही उनका उत्सव मनाने वाले ही स्वयं के रह पाते हैं। राम का इस तरह मिलना ही राम राज्य की कल्पना को मूर्तरूप देता है। राम राजा है फिर भी वे किसी को अपने दरबार तक नहीं बुलाते , वे स्वयं सब तक जातें हैं। वे केंवट,शबरी , काक ,बंदर भालू सबको मान देते हैं। राम सबके बीच जाकर घुलते-मिलते हैं। यह घुलना-मिलना ही राम को व्यापकता देती है। राम सबको अपने लगते हैं। यंहा तक कि मृत्यु शैया में पड़े रावण से वे राजनीती का पाठ सीखने लक्छ्मन को सलाह देते हैं। राम ने मानो कहा हो अच्छे गुण सीखने में कभी भी संकोच नहीं करना चाहिए। दुश्मन की शक्ति को रेखांकित व् मान देने वाला यह निर्णय अद्भुत है।
इतिहास के सत्य से बड़ा कोई नहीं होता। इतिहास आमजन का दर्शन बने। राम की यह कोशिश उनके हर निर्णय में शामिल है। इसलिए उनके हर निर्णय के पीछे साफ दिखता है कि व्यक्ति कितना भी बलवान हो जाये वह सत्य से बड़ा नहीं है। पिता की आज्ञा पर वनगमन का उनका निर्णय सत्ता का जन जन तक पहुंचने का अद्भुत मेल है। यह सहजता राम को जन जन से जोड़ती है। धरती-पुत्रों के नजदीक लाती है। पेड़-पौधों,पशु-पकछियों वनवासियों सबसे जोड़ती है। इस सहजता में सर्वशक्तिमान का कंही आभास नहीं होने देते राम। कठिन परिस्थितियों में भी राम की सहजता उन्हें सबसे अलग तो करती है,लेकिन इस अलगपन में भी वे सबसे घुल-मिल जाते हैं। वे कोई घोषणा नहीं करते। बल्कि वे स्वयं को लोगों की रक्त धमनियों में प्रवाहित करते हैं।
वनवास काल की सहजता में सीता को पाने की अधीरता के बाद भी राम सत्य के साथ हैं। साधारण जन के प्रश्न पर सीता को वन वन में छोड़ने का आदेश सत्य को न्याय देने का निर्णय है। धरती-पुत्री की पवित्रता पर उठी ऊँगली को न्याय देने का यह निर्मम निर्णय ही सीता-राम को एक करता है।
मनुष्य मात्र की नियति कर्म मात्र है। नियति के इस खेल से कोई अछूता नहीं है। समय की माप का सृष्टा सूर्य भी कंहा इससे बच पाया है। फिर राम और सीता कर्म से परे कैसे हो सकते थे। उन्हें कितनी परीक्छा देनी पड़ी। पूरे जीवन में राम अकेले दिखलाई पड़ते हैं।चौदह साल के वनवास और फिर एक साधारण जन के सवाल पर सीता का वनवास। फिर भी राम-सीता कभी अलग नहीं हुए। सीता,राम के पार्श्व में नहीं सदा साथ-संग बगल में खड़ी हैं। सही मायने में राम की पूर्णता सीता की भूमिका के बगैर क्रियान्वित हो ही नहीं सकता। अन्याय का विरोध और उसके नाश का कारण की भूमिका में सीता खड़ी ही है,साधारण जन के आरोप में न्याय की सत्ता स्थापित करने की बड़ी भूमिका भी सीता की रही है।
राम-सीता का जैसे कुछ था ही नहीं,वे तो न्याय की सत्ता स्थापित करने ही अवतरित हुए थे। और इस कार्य में दोनों को सहस्त्रधाराओं में बंटना पड़ा। वे बंटे पर धरती के प्राण में समाकर एक हो गए। पेड़-पौधों,,मिट्टी पानी में अलग-अलग समाते हुए एक होते चले गए। वे एक-दूसरे में इतना समा गए कि आज भी भारत की हर स्त्रियां अपने पति में राम का रूप देखती हैं,और हर पति अपनी पत्नी में सीता का स्वरूप देखता है।
राम के निर्मम निर्णय के बाद भी राम-सीता अलग नहीं हुए। वे अलग कभी थे ही नहीं बल्कि अपने में अडिग सत्य की स्थापना का प्रतिमान बने रहे। सत्य की मर्यादा में दोनों ऐसे घुलते रहे कि वे लोगों के रग रग में समाते चले गए। आदमी को आदमी बनाए रखने वे साधारण जन को मान देते रहे। राम ने राज्य और साधारण जन की अवधारणा ही बदल दी। वे अपनी सत्ता स्थापित करने की बजाय सत्य की सत्ता की स्थापना के कर्म में लगे रहे। यही वजह है कि राम आज भी इस देश के पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्छिन तक पूजे जाते हैं। वे देश के बोली,भाषा,मिट्टी ,पानी और जड़-पत्ते के शिराओं में आमजन के रग रग में रमे हैं।
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