मंगलवार, 15 मार्च 2016

लिखने की दो...... आजादी!


जेएनयू में कन्हैया कुमार जब लाल सलाम का मतलब समझा रहा था तब दिल्ली से दूर बैठे छत्तीसगढ़ में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यहां सिर्फ लाल सलाम कहने वाले जेल में क्यों और कैसे ठूंस दिये जाते है। दिल्ली में लाल सलाम पर कानून का नजरिया अलग और छत्तीसगढ़ में अलग क्यों है। क्या इस देश में दो तरह के कानून है।
सवाल तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस वक्तव्य को लेकर भी उठ रहे है कि कल तक भारत में पैदा होने में शर्म महसूस होता था। कोई और ऐसा कह दे तो चड्डी वाले उसका जुलूस ही नहीं निकालते पुलिस भी मार कूट कर उसे सलाखों के पीछे डाल देती।
सवाल अभिव्यक्ति की आजादी और उसके खतरे का बना हुआ है। सरकार किसी की भी हो अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे सामान रुप से बना हुआ है। पत्रकारिता से इन बातों का सीधा संबंध हम देखते हैं कि कैसे दिल्ली से दूर गांव तक आते-आते पत्रकारिता पर दबाव बढ़ता जाता है।
राजधानी में यह खतरे दूसरी तरह का है। यहां पत्रकारों को कोई सीधा पकड़कर जेल में नहीं डालता परन्तु उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है। इस खेल में पुलिस का नहीं जनसंपर्क विभाग का सहारा लिया जाता है। ऐसे कितने ही उदाहरण है जब सिर्फ एक खबर पर कितनों की नौकरी चली गई कितनों के तबादले कर दिये गये। एक अखबार सारा संसार की बात हो या पत्र नहीं मित्र की बात हो राजस्थान से आये धुरंधर की बात हो या मंझोले कद की बात हो। खबरों की सच्चाई पर कम जनसंपर्क के दबाव में लिखने की आजादी पर बंदिशें लगाई गई।
कन्हैया के लाल सलाम का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है कि बस्तर में पत्रकारिता तलवार की धार पर चलने जैसी है। नक्सली की आड़ में भ्रष्टाचार खूब फल फूल रहा है। सड़क-भवन के नाम पर आने वाले करोड़ों रुपये भ्रष्टाचार की भेट चढ़ रहा है। नक्सलियों का डर बताकर सरकारी सेवक कार्यालयों से गायब हो जाते हैं। महिनों स्कूल नहीं लगता पर वेतन बराबर बंटता है। राजीव गांधी शिक्षा मिशन का बुरा हाल है। पीडब्ल्यूडी के भवन व सड़क निर्माण का कोई हिसाब नहीं है। मनरेगा से लेकर दूसरी सरकारी योजनाएं दम तोड़ रही है और इस पर लिखने वालों को सीधे धमकी ही नहीं दी जाती जेल तक में ठूंस दिया जाता है। आरोप भी नक्सलियों से सांठ-गांठ का होता है। 
दिल्ली में जिस मस्ती से कन्हैया ने लाल सलाम कह दिया वैसा बस्तर में कोई कह नहीं सकता। जन सुरक्षा कानून मजबूती से पैर जमाये हुए है। बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल को भेजे जाने वाले मैसेज क्या यह चुगली करने के लिए काफी   नहीं है कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है। परन्तु सरकार को यह सब नहीं दिखता। पर्याप्त सबूत के बाद भी सरकार की खामोशी क्या यह साबित नहीं करते कि बस्तर में पत्रकारों के साथ जो कुछ हो रहा है वह सब सरकार के इशारे पर हो रहा है?
यह सच है कि इन दिनों देश भर में पत्रकारों को गरियाने का दौर चल रहा है। परन्तु इसके लिए जिम्मेदार क्या सरकार-प्रशासन और वे मीडिया हाउस नहीं है जो दबाव में है। जो अपने हितों के लिए पत्रकारों को शार्प शूटर की तरह इस्तेमाल करते हैं और जब उन्हें खबरों पर स्वयं के हित में खतरे दिखते हैं पीछे हट जाते हैं।
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