आदमी तोता नहीं है
एक कहानी है। गर्मी में शिकारियों का जंगल की तरफ बढते कदम से चिंतित एक बुजुर्ग पक्छी अपने साथियो को सावधानी बरतने की सलाह देता है। शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। जंगल के दूसरे पक्छियो ने यह ज्ञान सीख ली। तोतो ने भी इसे रट लिया ,परन्तु ज्ञान रटने से नहीं आता , ज्ञान का जिव्हा से नहीं मष्तिस्क से सम्बन्ध है बुध्दि से सम्बन्ध है। सिर्फ जिव्हा से काम नहीं चलता , आत्मसात करना पड़ता है। दूसरे पकछियों ने बुजुर्ग की सलाह को आत्मसात किया। तोतो ने शब्दों को जिव्हा में ही लटका रखा , वे शब्दों को न नीचे दिल तक उतार पाए और न ही ऊपर मष्तिस्क तक ही ले जा पाए। वे दिन-रात रटते रहे, शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। परन्तु दिल और दिमाग के बीच शब्द का कोई महत्व नहीं रह जाता,काला अक्छर भैंस बराबर ,,,,,,, .
अब वे दिन गुजरे जमाने की बात है। शिकारियों ने शिकार का तरीका ही नहीं बदला है बल्कि शिकार तक बदल चुके है। उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य और जानवर में फर्क का अवकाश समाप्त कर दिया है। तोता अब भी सिर्फ रटकर रह जाता है। आदमी अपनी भाषा की बजाय अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करने लगा है। आज भी कई लोग है जो सोचना भी नहीं चाहते कि जुबान के अलावा भी कुछ है जो मनुष्य को आगे बढ़ाती है , वह समझना ही नहीं चाहता कि उसके जबान के ऊपर मष्तिस्क और निचे भरोसा है। ऊपर पहाड़ है,निचे जल श्रोत है। ऊपर राजधानी है,नीचे शहर है गांव है। ऊपर राजा है नीचे प्रजा है।
ऊपर और निचे के बिच भी कुछ है और इस खाई में जुबान महत्वपूर्ण है वह पूल का काम करती है , और इस पूल पर पहरा बैठा दिया जाये तो उसकी स्थिति उस रटन्त तोते की तरह ही होगी जो शिकारियों के आने से लेकर फसने तक को झटके में बोल लेता है,परन्तु शिकार होने से नहीं बच पाता। सत्ता यही करती है। ज़माने से यही करते आई है। उसने दिल और दिमाग के बिच के सेतु पर पहरा बिठा रखा है। प्रजा को उतना ही बोलना है जितना सिखाया गया है। उससे ज्यादा नहीं बोलना है। क्योंकि वह जनता है,मष्तिष्क और हृदय के बीच जुबान पर पहरा नहीं लगाया गया तो सब कुछ संतुलित हो जायेगा , फिर उसकी सत्ता कैसे बनी रहेगी। सोवियत संघ की तरह बिखर जायेगा,लातूर या केदार नाथ की तरह तबाह हो जायेगा। इस तबाही को रोकना है। कुछ ऐसा करना है कि आदमी तोता हो जाये। सत्ता की अनचाही भाषा न बोल पाए।
वाणी व्यक्ति को पहचान के स्तर पर खोलती है। उसका एक एक शब्द समाज में दूर दूर तक असर करता है। जिस तरह से आग जलती है तो लौ ऊपर की तरफ उठती है,उसी तरह वाणी भी दूर दूर तक लोगो के मष्तिस्क तक पहुंचती है। कुछ हृदय में भी जा पहुंचती है। तोते की तरह सिर्फ जिव्हा में नहीं अटकती। यह बात सत्ता में बैठे लोग जानते है , इसलिए अभिव्यक्ति पर पहरा लगाने के नए नए तरीके ईजाद किये जाते हैं। ऐसे शब्दों पर पानी डाल दिया जाता है जो आग की लौ की तरह सुलगते है उप्र उठते है।
एक तरफ आधुनिकता के चलते पूरा विश्व एक गावं की तरह हो गया है,श्री श्री रविशंकर जैसे आध्यात्मिक गुरु जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के उद्घोष करते हैं तो दूसरी तरफ बस्तर है जंहा अभिव्यक्ति पर पहरे है,सत्ता की अनचाही भाषा राष्ट्रदोह बन जाता है। सत्ता की अनचाही भाषा को आतंक की भाषा करार दिया जाता है। यह सत्ता की विकृति है,लोकतंत्र पर गहरे काले धब्बे है। हमारी विचारधारा ही सही है , यह हठधर्मिता का उदाहरण जेएनयू दिल्ली के साथ पुरे देश ने देखा है। हठधर्मिता कही न कही संकीर्णता को छूती है। पहरा कंही भी बिठाओ , अभिव्यक्ति पर या जीवन पर , इससे स्वतंत्रता और विकास के मूल्य तो प्रभावित होंगे ही। मूल्यों को लेकर कल तक चिंता जताने वाले आज स्वयं पहरेदार होने लगे है। हर बात में बुराई देखने वाले अब अच्छाई की वकालत करने लगे हैं वे भूल जाते है कि पहरेदारी आदमी को तोता बना देता है।
परन्तु आदमी तोता नहीं। है। लोकतंत्र में हमारी आस्था है। आस्था तुलसी के बिरवे में भी है,और गंगा जल के साथ भी है। आस्था में तर्क नहीं चलता। सिर्फ भारत माता की जय नहीं कहने या लाल सलाम कह देने भर से लोकतंत्र और देश के प्रति आस्था को नहीं तौला जा सकता। आस्थाएं है जो मनुष्य को उसके हक और उसूल के साथ खड़ा होने की ताकत दे। प्रगति वह जो विवेकशील हो। कागज पर लिखे शब्द केवल आड़ी तिरछी रेखाएं भर नहीं होती , कलम उन रेखाओं में जान डालती है। मनुष्य के हृदय और मष्तिस्क में हलचल उतपन्न करती है। इसलिए वह हृदय के पास खीसे में रहती है,वाणी और ह्रदय के बीच कलम होती है। आदमी चुप भी रहे तब भी कलम दिखती है,बोलती है। अभिव्यक्ति के खतरे सामने है। कोई भी एक चीज ज्यादा होगी तो दूसरे का पलड़ा हल्का हो जायेगा। दोलन की स्थिति बनेगी। इस स्थिति को कोई बदलना नहीं चाहता सब अपना पलड़ा भारी रखना चाहता है।
इसलिए धर्म में नैतिकता,मर्यादा की सीख है। संस्कार को लेकर पूरी किताबें है। राम-कृष्ण से लेकर जीसस-पैगम्बर तक मर्यादा में रचे-बसे है। धर्म और संस्कृति को लेकर हाय तौबा मचने,मार -काट करने वाले यह भूल जाते है कि जब आदमी ही नहीं बचेगा तब धर्म का औचित्य क्या रह जायेगा। धर्म व्ही है जो धारण करने योग्य है। और शासक वह है जो सबकी सुने।
इतिहास की दुहाई देने वाले इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं है। राम को मानने वाले राम की सुनने तैयार नहीं है। जबकि राम ने पवित्रता पर उठी तर्जनी को न्याय देने सीता को वनवास की आज्ञा देने से भी नहीं हिचके । उन्होंने न्याय स्थापना के लिए आमजन की सुनी। जबकि तब बड़ी आसानी से वे उस तर्जनी को मरोड सकते थे परन्तु उनके मानने वाले तर्जनी दिखाने वालो के गर्दन और जुबान तक नापने तैयार है।
विरोधियो को कुचलने की कोशिश का हश्र हमने ७० के दशक के मध्य में देखा है। इतिहास से भी हम सबक लेने को तैयार नहीं है। जब धर्म और इतिहास से भी सबक नहीं लिया जाये तब क्या किया जा सकता है। तब बस्तर ही क्यों कही भी अभिव्यक्ति का गला घोटने वाले खड़े हो जायेंगे जब पांच साल के लिए कुर्सी संभालने वाले तर्जनी तोड़ने आमदा हो तो साठ साल तक कुर्सी में बैठने वालो से क्या उम्मीद बेमानी हो जाती है क्योंकि इन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ही पांच साल वालो की है। जनप्रतिनिधियों को याद रखना चाहिए कि पांच साल में परीक्छा उन्हें ही देनी है। तब वह तर्जनी मतदान केंद्र में अपना काम करेगी। लोकतंत्र कायम रहेगा,यह विश्वास अपनी जड़े जमा चुका है।
एक कहानी है। गर्मी में शिकारियों का जंगल की तरफ बढते कदम से चिंतित एक बुजुर्ग पक्छी अपने साथियो को सावधानी बरतने की सलाह देता है। शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। जंगल के दूसरे पक्छियो ने यह ज्ञान सीख ली। तोतो ने भी इसे रट लिया ,परन्तु ज्ञान रटने से नहीं आता , ज्ञान का जिव्हा से नहीं मष्तिस्क से सम्बन्ध है बुध्दि से सम्बन्ध है। सिर्फ जिव्हा से काम नहीं चलता , आत्मसात करना पड़ता है। दूसरे पकछियों ने बुजुर्ग की सलाह को आत्मसात किया। तोतो ने शब्दों को जिव्हा में ही लटका रखा , वे शब्दों को न नीचे दिल तक उतार पाए और न ही ऊपर मष्तिस्क तक ही ले जा पाए। वे दिन-रात रटते रहे, शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। परन्तु दिल और दिमाग के बीच शब्द का कोई महत्व नहीं रह जाता,काला अक्छर भैंस बराबर ,,,,,,, .
अब वे दिन गुजरे जमाने की बात है। शिकारियों ने शिकार का तरीका ही नहीं बदला है बल्कि शिकार तक बदल चुके है। उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य और जानवर में फर्क का अवकाश समाप्त कर दिया है। तोता अब भी सिर्फ रटकर रह जाता है। आदमी अपनी भाषा की बजाय अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करने लगा है। आज भी कई लोग है जो सोचना भी नहीं चाहते कि जुबान के अलावा भी कुछ है जो मनुष्य को आगे बढ़ाती है , वह समझना ही नहीं चाहता कि उसके जबान के ऊपर मष्तिस्क और निचे भरोसा है। ऊपर पहाड़ है,निचे जल श्रोत है। ऊपर राजधानी है,नीचे शहर है गांव है। ऊपर राजा है नीचे प्रजा है।
ऊपर और निचे के बिच भी कुछ है और इस खाई में जुबान महत्वपूर्ण है वह पूल का काम करती है , और इस पूल पर पहरा बैठा दिया जाये तो उसकी स्थिति उस रटन्त तोते की तरह ही होगी जो शिकारियों के आने से लेकर फसने तक को झटके में बोल लेता है,परन्तु शिकार होने से नहीं बच पाता। सत्ता यही करती है। ज़माने से यही करते आई है। उसने दिल और दिमाग के बिच के सेतु पर पहरा बिठा रखा है। प्रजा को उतना ही बोलना है जितना सिखाया गया है। उससे ज्यादा नहीं बोलना है। क्योंकि वह जनता है,मष्तिष्क और हृदय के बीच जुबान पर पहरा नहीं लगाया गया तो सब कुछ संतुलित हो जायेगा , फिर उसकी सत्ता कैसे बनी रहेगी। सोवियत संघ की तरह बिखर जायेगा,लातूर या केदार नाथ की तरह तबाह हो जायेगा। इस तबाही को रोकना है। कुछ ऐसा करना है कि आदमी तोता हो जाये। सत्ता की अनचाही भाषा न बोल पाए।
वाणी व्यक्ति को पहचान के स्तर पर खोलती है। उसका एक एक शब्द समाज में दूर दूर तक असर करता है। जिस तरह से आग जलती है तो लौ ऊपर की तरफ उठती है,उसी तरह वाणी भी दूर दूर तक लोगो के मष्तिस्क तक पहुंचती है। कुछ हृदय में भी जा पहुंचती है। तोते की तरह सिर्फ जिव्हा में नहीं अटकती। यह बात सत्ता में बैठे लोग जानते है , इसलिए अभिव्यक्ति पर पहरा लगाने के नए नए तरीके ईजाद किये जाते हैं। ऐसे शब्दों पर पानी डाल दिया जाता है जो आग की लौ की तरह सुलगते है उप्र उठते है।
एक तरफ आधुनिकता के चलते पूरा विश्व एक गावं की तरह हो गया है,श्री श्री रविशंकर जैसे आध्यात्मिक गुरु जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के उद्घोष करते हैं तो दूसरी तरफ बस्तर है जंहा अभिव्यक्ति पर पहरे है,सत्ता की अनचाही भाषा राष्ट्रदोह बन जाता है। सत्ता की अनचाही भाषा को आतंक की भाषा करार दिया जाता है। यह सत्ता की विकृति है,लोकतंत्र पर गहरे काले धब्बे है। हमारी विचारधारा ही सही है , यह हठधर्मिता का उदाहरण जेएनयू दिल्ली के साथ पुरे देश ने देखा है। हठधर्मिता कही न कही संकीर्णता को छूती है। पहरा कंही भी बिठाओ , अभिव्यक्ति पर या जीवन पर , इससे स्वतंत्रता और विकास के मूल्य तो प्रभावित होंगे ही। मूल्यों को लेकर कल तक चिंता जताने वाले आज स्वयं पहरेदार होने लगे है। हर बात में बुराई देखने वाले अब अच्छाई की वकालत करने लगे हैं वे भूल जाते है कि पहरेदारी आदमी को तोता बना देता है।
परन्तु आदमी तोता नहीं। है। लोकतंत्र में हमारी आस्था है। आस्था तुलसी के बिरवे में भी है,और गंगा जल के साथ भी है। आस्था में तर्क नहीं चलता। सिर्फ भारत माता की जय नहीं कहने या लाल सलाम कह देने भर से लोकतंत्र और देश के प्रति आस्था को नहीं तौला जा सकता। आस्थाएं है जो मनुष्य को उसके हक और उसूल के साथ खड़ा होने की ताकत दे। प्रगति वह जो विवेकशील हो। कागज पर लिखे शब्द केवल आड़ी तिरछी रेखाएं भर नहीं होती , कलम उन रेखाओं में जान डालती है। मनुष्य के हृदय और मष्तिस्क में हलचल उतपन्न करती है। इसलिए वह हृदय के पास खीसे में रहती है,वाणी और ह्रदय के बीच कलम होती है। आदमी चुप भी रहे तब भी कलम दिखती है,बोलती है। अभिव्यक्ति के खतरे सामने है। कोई भी एक चीज ज्यादा होगी तो दूसरे का पलड़ा हल्का हो जायेगा। दोलन की स्थिति बनेगी। इस स्थिति को कोई बदलना नहीं चाहता सब अपना पलड़ा भारी रखना चाहता है।
इसलिए धर्म में नैतिकता,मर्यादा की सीख है। संस्कार को लेकर पूरी किताबें है। राम-कृष्ण से लेकर जीसस-पैगम्बर तक मर्यादा में रचे-बसे है। धर्म और संस्कृति को लेकर हाय तौबा मचने,मार -काट करने वाले यह भूल जाते है कि जब आदमी ही नहीं बचेगा तब धर्म का औचित्य क्या रह जायेगा। धर्म व्ही है जो धारण करने योग्य है। और शासक वह है जो सबकी सुने।
इतिहास की दुहाई देने वाले इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं है। राम को मानने वाले राम की सुनने तैयार नहीं है। जबकि राम ने पवित्रता पर उठी तर्जनी को न्याय देने सीता को वनवास की आज्ञा देने से भी नहीं हिचके । उन्होंने न्याय स्थापना के लिए आमजन की सुनी। जबकि तब बड़ी आसानी से वे उस तर्जनी को मरोड सकते थे परन्तु उनके मानने वाले तर्जनी दिखाने वालो के गर्दन और जुबान तक नापने तैयार है।
विरोधियो को कुचलने की कोशिश का हश्र हमने ७० के दशक के मध्य में देखा है। इतिहास से भी हम सबक लेने को तैयार नहीं है। जब धर्म और इतिहास से भी सबक नहीं लिया जाये तब क्या किया जा सकता है। तब बस्तर ही क्यों कही भी अभिव्यक्ति का गला घोटने वाले खड़े हो जायेंगे जब पांच साल के लिए कुर्सी संभालने वाले तर्जनी तोड़ने आमदा हो तो साठ साल तक कुर्सी में बैठने वालो से क्या उम्मीद बेमानी हो जाती है क्योंकि इन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ही पांच साल वालो की है। जनप्रतिनिधियों को याद रखना चाहिए कि पांच साल में परीक्छा उन्हें ही देनी है। तब वह तर्जनी मतदान केंद्र में अपना काम करेगी। लोकतंत्र कायम रहेगा,यह विश्वास अपनी जड़े जमा चुका है।
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