मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहा गया है- मन चंगा तो कठौती में गंगा। बात बहुत सीधी है। अर्थ गहरा है। स्वास्थ अच्छा है तो सब अच्छा है। सूरज अपने समय पर उग रहा है। वृक्छ वैसे ही ताजी हवा दे रही है। गाय अब भी बछड़े को वैसे ही चाटती है। कुत्ते वैसे ही दम हिलाते अपने मालिक के आगे -पीछे घूमता है। शाम को अब भी हवा मदमस्त कर देती है। चिड़िया घोसले पर लौट आती है। प्रकृति अब भी अपने समय पर अडिग है। मंदिर-मस्जिद में धर्म-कर्म का भी समय अब भी वैसा ही है।
विकास का हुंकार चहुंओर सुनाई पड़ता है। विकास के तमाम दावों के बाद भी बेहतर स्वास्थ के बिना काम नहीं चल सकता। कम से कम मानव जीवन का तो अच्छे स्वास्थ के बिना सब कुछ बेमानी है। अच्छा स्वास्थ केवल लम्बी उम्र जीने भर का माध्यम नहीं है। स्वास्थ मन मस्तिष्क में अच्छे विचार का भी घोतक है। अच्छे स्वास्थ का मतलब समृद्धि और खुशहाली है। अच्छा स्वास्थ यूँ ही नहीं बना रहता , इसके लिए संयमित जीवन और खान - पान में नियंत्रण जरुरी है। जिस तरह से बादल का जमना,बरसना,मिटना धरती पर कई कई जन्मोत्सव का उद्गम है,वैसा ही स्वास्थ अच्छा हमारी खुशहाली और विकास का जनक है।
यह बात उतनी ही सच है जितना जीवन में पानी की आवश्य्कता। स्वास्थ और मन का बड़ा अद्भुत रिश्ता है। इसके आपसी रिश्ते बहुत ही मुलायम और पुराने है। परन्तु इस रिश्ते को हमने अपनी सुख-सुविधा की खातिर कुरेदना शुरू क्र दिया। हवा में जहर तो घोला ही वृक्छो की बलि चढ़ाकर स्वयं के लिए कांक्रीट का जंगल लगाना शुरू क्र दिया। तजि हवा के लिए बनी खिड़कियों पर एयरकंडीशन तो लगाया ही,कहना नाश्ता बनने को झंझट मान फ़ास्ट फ़ूड या रेडी टू ईट पर हमारी निर्भरता बढ़ते चली गई।
इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ पर दीखता है। हर आदमी परेशान सा है। हर चौथे पांचवे आदमी को शक्कर की बीमारी और हर दसवें आदमी को दमा -खांसी , एलर्जी और पता नहीं रोज नई नई बीमारियां होने लगी है। आये दिन ख़बरें छप रही है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे है। यही हल रहा तो शहरी जीवन तबाह हो जायेगा। नर्क बन जायेगा। शहरों से पेड़ों के डेरे उजड़ गए है। एक जमाना था आदमी पौधों को आकांछाओं की तरह रोपता था, बेटो बेटी की तरह पलटा था। पेड़ों में सावन के झूले बंधते थे , पेड़ों के नीचे खड़े होकर दो आँखे अपनों की बाट जोहता था। पेड़ों के नीचे स्कूल लगते थे। कथा होती थी। पेड़ों के नीचे बैठकर गौतम बुद्ध हो गए महावीर हो गए।
सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था। परन्तु अपने सुख-सुविधा की खातिर आदमी इतना स्वार्थी हो गया कि उसने पनि हवा में जहर घोलना शुरू कर दिया। हवा के व्यवहार को विकास के अंधानुकरण ने बदल दिया। हवा में ऐसा रूखापन देखकर भी कोई भयभीत नहीं है तो फिर उसका भगवान ही मालिक है।
चार मंजिला भवन है। सैकड़ों मरीज है। व्यवस्था में लाइन लम्बी होते जा रही है। जेब में पैसों की थैली समाये नहीं जा रही है। पत्नी चिंतित है,बच्चे बिलख रहे है,और जिंदगी किरच किरच के चल रही है। भवन की दीवारें शिलालेख नहीं है परन्तु माथे की परेशानी बता रही है कि कुछ भी अच्छा नहीं है। अपनों को देखने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। श्मशान की चित लगातार धधक रही है। कब्रिस्तान में जगह कम पड़ने लगी है। और हम अब भी पेड़ों की बलि लेने आमदा है। खेती की जमीनों पर सीमेंट का प्लास्टर चढ़ाने तत्पर हैं। अपने घरों की खिड़कियां खोलने तैयार नहीं है।
स्वास्थ इस युग का चिंतन और आवशयकता है। आजादी के बाद न जाने कितनी सुबह आयी। योजनाओं की रौशनी जलायी गयी। एयरकंडीशन में बैठकर आदमी की बेहतरी की योजनाएं बनाई गई। सबको शिक्छा सबको स्वास्थ के नारे बुलंद किये गये। परन्तु परिणाम और उपलब्धियों का कंही मेल ही नहीं हुआ। अस्पताल में बेहतर ईलाज की कोशिश तो हुई परन्तु बीमार बनाने का उपक्रम भी तेज गति से चला। आदमी अपने को खड़ा करने के फेर में ऐसा उलझने लगा कि कब उसके पैर से जमीन खिसक गई ,पता ही नहीं चला। शहरी उद्यानों में सुबह शाम भीड़ तो बढ़ने लगी पर यंहा मनोरंजन की बजाय बीमार ज्यादा आने लगे। बच्चों की किलकारी कहीं गम होने लगी। उद्यानों में चहल पहल तो बढ़ी पर इस कोने से उस कोने तक भागने वालों की तादात ही ज्यादा होती है। व्यक्ति स्वास्थ के महत्व को नहीं नकार सकता। तन अच्छा तो मन अच्छा और मन अच्छा तो सब अच्छा के दर्शन को लेकर चलना ही होगा।
अब मुद्दा स्वस्थ रहने का है। और जब तक विकास को स्वास्थ से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक न अस्पतालों की भीड़ ही कम होगी और न ही उद्यानों में भागमभाग ही कम होगी। स्वास्थ की बेहतरी के लिए खेती की जमीनों को बचाना ही होगा। पौधे रोपने ही होंगे। उद्योगों में प्रदुषण नियंत्रण यंत्र लगने कड़े नियम बनाने होंगे। नाली के पानी को नदियों में गिरने से पहले साफ करना होगा। समाज सेवी सस्थाएं दवाई , फल,बांटकर खुश हो लेती है। युवा पीढ़ी शिक्छा की चादर ओढ़ कर मस्त है। हम समझ लेते है कि स्वास्थ की सारी जिम्मेदारी सरकार की है। परन्तु भागदौड़ की जिंदगी के बीच सिर्फ स्वयं की खुशहाली की सोच से आगे निकलना होगा। विकास की योजनाओं पर जन भागीदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए। तभी मन चंगा तो कठौती में गंगा का उद्देश्य सफल हो पाएगा।
कहा गया है- मन चंगा तो कठौती में गंगा। बात बहुत सीधी है। अर्थ गहरा है। स्वास्थ अच्छा है तो सब अच्छा है। सूरज अपने समय पर उग रहा है। वृक्छ वैसे ही ताजी हवा दे रही है। गाय अब भी बछड़े को वैसे ही चाटती है। कुत्ते वैसे ही दम हिलाते अपने मालिक के आगे -पीछे घूमता है। शाम को अब भी हवा मदमस्त कर देती है। चिड़िया घोसले पर लौट आती है। प्रकृति अब भी अपने समय पर अडिग है। मंदिर-मस्जिद में धर्म-कर्म का भी समय अब भी वैसा ही है।
विकास का हुंकार चहुंओर सुनाई पड़ता है। विकास के तमाम दावों के बाद भी बेहतर स्वास्थ के बिना काम नहीं चल सकता। कम से कम मानव जीवन का तो अच्छे स्वास्थ के बिना सब कुछ बेमानी है। अच्छा स्वास्थ केवल लम्बी उम्र जीने भर का माध्यम नहीं है। स्वास्थ मन मस्तिष्क में अच्छे विचार का भी घोतक है। अच्छे स्वास्थ का मतलब समृद्धि और खुशहाली है। अच्छा स्वास्थ यूँ ही नहीं बना रहता , इसके लिए संयमित जीवन और खान - पान में नियंत्रण जरुरी है। जिस तरह से बादल का जमना,बरसना,मिटना धरती पर कई कई जन्मोत्सव का उद्गम है,वैसा ही स्वास्थ अच्छा हमारी खुशहाली और विकास का जनक है।
यह बात उतनी ही सच है जितना जीवन में पानी की आवश्य्कता। स्वास्थ और मन का बड़ा अद्भुत रिश्ता है। इसके आपसी रिश्ते बहुत ही मुलायम और पुराने है। परन्तु इस रिश्ते को हमने अपनी सुख-सुविधा की खातिर कुरेदना शुरू क्र दिया। हवा में जहर तो घोला ही वृक्छो की बलि चढ़ाकर स्वयं के लिए कांक्रीट का जंगल लगाना शुरू क्र दिया। तजि हवा के लिए बनी खिड़कियों पर एयरकंडीशन तो लगाया ही,कहना नाश्ता बनने को झंझट मान फ़ास्ट फ़ूड या रेडी टू ईट पर हमारी निर्भरता बढ़ते चली गई।
इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ पर दीखता है। हर आदमी परेशान सा है। हर चौथे पांचवे आदमी को शक्कर की बीमारी और हर दसवें आदमी को दमा -खांसी , एलर्जी और पता नहीं रोज नई नई बीमारियां होने लगी है। आये दिन ख़बरें छप रही है। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे है। यही हल रहा तो शहरी जीवन तबाह हो जायेगा। नर्क बन जायेगा। शहरों से पेड़ों के डेरे उजड़ गए है। एक जमाना था आदमी पौधों को आकांछाओं की तरह रोपता था, बेटो बेटी की तरह पलटा था। पेड़ों में सावन के झूले बंधते थे , पेड़ों के नीचे खड़े होकर दो आँखे अपनों की बाट जोहता था। पेड़ों के नीचे स्कूल लगते थे। कथा होती थी। पेड़ों के नीचे बैठकर गौतम बुद्ध हो गए महावीर हो गए।
सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था। परन्तु अपने सुख-सुविधा की खातिर आदमी इतना स्वार्थी हो गया कि उसने पनि हवा में जहर घोलना शुरू कर दिया। हवा के व्यवहार को विकास के अंधानुकरण ने बदल दिया। हवा में ऐसा रूखापन देखकर भी कोई भयभीत नहीं है तो फिर उसका भगवान ही मालिक है।
चार मंजिला भवन है। सैकड़ों मरीज है। व्यवस्था में लाइन लम्बी होते जा रही है। जेब में पैसों की थैली समाये नहीं जा रही है। पत्नी चिंतित है,बच्चे बिलख रहे है,और जिंदगी किरच किरच के चल रही है। भवन की दीवारें शिलालेख नहीं है परन्तु माथे की परेशानी बता रही है कि कुछ भी अच्छा नहीं है। अपनों को देखने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है। श्मशान की चित लगातार धधक रही है। कब्रिस्तान में जगह कम पड़ने लगी है। और हम अब भी पेड़ों की बलि लेने आमदा है। खेती की जमीनों पर सीमेंट का प्लास्टर चढ़ाने तत्पर हैं। अपने घरों की खिड़कियां खोलने तैयार नहीं है।
स्वास्थ इस युग का चिंतन और आवशयकता है। आजादी के बाद न जाने कितनी सुबह आयी। योजनाओं की रौशनी जलायी गयी। एयरकंडीशन में बैठकर आदमी की बेहतरी की योजनाएं बनाई गई। सबको शिक्छा सबको स्वास्थ के नारे बुलंद किये गये। परन्तु परिणाम और उपलब्धियों का कंही मेल ही नहीं हुआ। अस्पताल में बेहतर ईलाज की कोशिश तो हुई परन्तु बीमार बनाने का उपक्रम भी तेज गति से चला। आदमी अपने को खड़ा करने के फेर में ऐसा उलझने लगा कि कब उसके पैर से जमीन खिसक गई ,पता ही नहीं चला। शहरी उद्यानों में सुबह शाम भीड़ तो बढ़ने लगी पर यंहा मनोरंजन की बजाय बीमार ज्यादा आने लगे। बच्चों की किलकारी कहीं गम होने लगी। उद्यानों में चहल पहल तो बढ़ी पर इस कोने से उस कोने तक भागने वालों की तादात ही ज्यादा होती है। व्यक्ति स्वास्थ के महत्व को नहीं नकार सकता। तन अच्छा तो मन अच्छा और मन अच्छा तो सब अच्छा के दर्शन को लेकर चलना ही होगा।
अब मुद्दा स्वस्थ रहने का है। और जब तक विकास को स्वास्थ से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक न अस्पतालों की भीड़ ही कम होगी और न ही उद्यानों में भागमभाग ही कम होगी। स्वास्थ की बेहतरी के लिए खेती की जमीनों को बचाना ही होगा। पौधे रोपने ही होंगे। उद्योगों में प्रदुषण नियंत्रण यंत्र लगने कड़े नियम बनाने होंगे। नाली के पानी को नदियों में गिरने से पहले साफ करना होगा। समाज सेवी सस्थाएं दवाई , फल,बांटकर खुश हो लेती है। युवा पीढ़ी शिक्छा की चादर ओढ़ कर मस्त है। हम समझ लेते है कि स्वास्थ की सारी जिम्मेदारी सरकार की है। परन्तु भागदौड़ की जिंदगी के बीच सिर्फ स्वयं की खुशहाली की सोच से आगे निकलना होगा। विकास की योजनाओं पर जन भागीदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए। तभी मन चंगा तो कठौती में गंगा का उद्देश्य सफल हो पाएगा।
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