कहते हैं जब सत्ता अचानक मिल जाती है तो फिर उनके भीतर का पागलपन फट पड़ता है और उसकों तबाही और अपने मन की बात करने के अलावा कुछ नहीं सुझता? वह अपनी करतूत को छुपाने सब-कुछ आग के हवाले कर देना चाहता है? और सब तरफ जलती लाशों का धुंआ होता है? यह धुंआ भी उसे विषैला नहीं लगता बल्कि वह आखरी दम तक बड़ी मासूमियत और भोलेपन से यही कहता है कि उसने तो जो कुछ किया देश हित में किया जबकि वह अपने भीतर के नफरत को तबाही में बदल रहा होता है।
आज के दौर में सच को पकडऩा कितना दुश्वार हो गया है, पहली बार संसद भवन की सीढ़ी में माथा टेकना सच था या उसके बाद उस संसद भवन को ही नेस्तनाबूत कर देने की कोशिश सच है? पहली बार हिन्दू प्रधानमंत्री बनने का उद्घोष सच था या अब्दुल कलाम आजाद को राष्ट्रपति बनाना सच था। न्यायालय के फैसले से बन रहा राम मंदिर सच था या सत्ता की ताकत से बन रहा राम मंदिर सच है? नोट बंदी की वजह से लाईन में मर रहे लोग सच था या नोटबंदी की वजह से कालाधन की वापसी, आतंकवाद की कमर टूट जाना सच था?
मॉब लिचिंग, हिन्दू राष्ट्र, जीएसटी के अव्यवहारिक होने से आत्महत्या को मजबूर व्यापारी, कोरोना की चेतावनी को नजर अंदाज करते नमस्ते ट्रम्प, एमपी की सत्ता लोभ, कुंभ, चुनावी भीड़, आक्सीजन की कमी से मरते लोग, रेमडेसिविर का 25 हजार में बिकना, किसान बिल, सीएए, आप ऐसे कितने ही सच को पकड़ते-पकड़ते थक जाओगे लेकिन सत्ता न अपनी जिम्मेदारी मानेगी और न ही लापरवाही?
आज तक के एंकर रोहित सरदाना के दुखद निधन को लेकर किस तरह की प्रतिक्रिया सोशल मीडिया में आती रही, वह हैरान और परेशान कर देने वाला है! मेरा दावा है कि ये देश ऐसा कभी नहीं रहा, किसी की मौत पर ऐसी प्रतिक्रिया सभ्य समाज, या विश्व गुरु के लिए लालायित देश का नहीं हो सकता लेकिन आप पायेंगे कि शुरुआत उन्हीं से हुई है।
मैं उदाहरण के साथ कह सकता हूं कि सिने अभिनेता ऋषि कपूर के निधन पर कुंठित हिन्दुओं की प्रतिक्रिया थी, गौ मांस खाने वालों का यही हश्र होना था, मॉब लिचिंग के प्रवक्ता को काहे की श्रद्धांजलि। सिने अभिनेता इरफान खान को लेकर भी नफरत भरी टिप्पणी और आजकल चर्चित एक साधु ने तो अब्दुल कलाम आजाद की देश के प्रति वफादारी पर तो सवाल उठाये ही है उन्हें गद्दार तक कह डाला।
ये सच है कि बोया पेड़ बबूल का तो आम कहां से होय लेकिन हम अपने देश को किस रास्ते पर ले जा रहे हैं। क्या नफरती लोगों को ये नहीं लगता कि ये हालात हमारी आने वाली पीढ़ी को कैसा जीवन देगी। इस पागलपन के दौर में कोरोना संक्रमण से निपटने जिस तरह से हर धर्म, हर जाति के लोग कंधा से कंधा मिलाकर काम कर रहे हैं उसके बाद भी यदि किसी को लगता है कि ये छलावा है तो इसका मतलब साफ है कि राजनीति में बैठे लोग अपनी कुर्सी के लिए इस देश को बेच देना चाहते हैं, अपने पागलपन से तबाही मचाकर कुर्सी बचाना चाहते है। सिर्फ एक रेल दुर्घटना से व्यथित रेल मंत्री का इस्तीफा सच है या गिरते लाशों के बीच सत्ता का अट्टाहास सच है। एक मिनट रुक कर सच को पकडऩे की कोशिश जरुर कीजिएगा।
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