शनिवार, 1 मई 2021

लाशें ही तो हैं !


 लाशें ही तो हैं!


वे आते हैं,

अपने साथ लाते हैं,

नफरत का बीज

और रोप देते हैं

हमारे दिमाग में,

और हमारा दिल

दिमाग हो जाता है।


वे आते हैं

ढूंढते है कुछ ज्ञानी, कुछ नामी गिरामी,

पैसे वाले रईस,

या बदमाशों की टोली

और रोप देते हैं 

नफरत के बीज।


धीरे धीरे पनपने

लगता है बीज

दंगे के रुप में

फुटता है अंकुर

खाद पानी के

रुप में मिलता 

रहता है झूठ

अफवाह!


फिर एक दिन

हां एक दिन

पौधा फूटता है

उस बीज से

हम श्रेष्ठ हैं

कुंठित होता पौधा

बड़ा होता है।

पौधों को अब नहीं

चाहिए रोजगार

बढ़ती महंगाई से भी

उसे फर्क नहीं पड़ता


वह तो आतुर है

एक ऐसा फल देने

जिनमें, हमारी भावना हो,

आस्था हो,

सपने हो।

और यह फल ही सत्ता है।

जिसे वे तब तक

खाते रहेंगे

जब तक हम जल

न जाये 

मर न जाये

फना न हो जाये

क्योंकि हम लाशें ही तो हैं। (केटी)

(रोहित सरदाना और उन जैसे पढ़े-लिखे को समर्पित)

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