मंगलवार, 15 जून 2021

ज्ञान पर नफरत का ध्वजारोहण-4

 

1989 में सत्ता कांग्रेस के हाथ से निकल चुकी थी, बाफोर्स के भूत ने और परिवारवाद से चिढ़ ने भारतीय राजनीति को नई दिशा दी थी। यह वह दौर था जब लोगों को विश्वनाथ प्रताप सिंह से बहुत उम्मीद थी और इनके सामने न केवल पांच साल सरकार चलाने की चुनौती थी बल्कि फिर सत्तासीन होने की चुनौती थी।

वीपी सिंह ने धर्मनिरपेक्षता को जीवित रखने का प्रयास शुरु किया और मंडल कमीशन की सिफारिश लागू कर दी, समूचा पिछड़ा वर्ग इस फैसले से उत्साहित था, लेकिन हिन्दूत्व की राह में यह बड़ा रोड़ा हो सकता था। लालकृष्ण अडवानी ने सोमनाथ से अयोध्या तक राममंदिर निर्माण के लिए रथयात्रा का दांव चल दिया। रथयात्रा को रोकने पर सरकार गिरा देने की धमकी से एक बार फिर सरकार न चला पाने का दाग उभरकर सामने आ गया। भाजपा जो चाहती थी या संघ की सोच के अनुसार सब कुछ हो रहा था, गठबंधन की राजनीति ने एक बार फिर भाजपा को ताकतवर बना दिया था ऐसे में रथयात्रा को रोकने की हिम्मत कौन करे वह भी जब इस देश की भावना और आस्था से जुड़े प्रभु राम जी के नाम पर हो।

रथयात्रा की घोषणना ने देश की हवा में नफरत की फिंजा फैला दी, सामाजिक सौहाद्रर्य, गंगा जमुना संस्कृति, सामाजिक एकता डगमगाने लगा। कई जगह पर दंगे हुए, रक्तपात होने लगा। लेकिन इस यात्रा को रोकने की हिम्मत की लालू प्रसाद यादव ने। भाजपा अब तक स्वयं को ताकतवर तो समझ रही थी लेकिन वह जानती थी कि उस पर लगे साम्प्रदायिकता का दाग वह अकेले नहीं धो पायेगी। सरकार गिर गई लेकिन  कांग्रेस ने चन्द्रशेखर को समर्थन देकर चुनाव कुछ दिनों के लिए टाल दिया। लेकिन वह हिन्दू वोटों का धु्रवीकरण करने पर लगातार अपने वोट बढ़ा रही थी लेकिन अचानक वह हुआ जिसकी कल्पना किसी ने नहीं की थी।

श्री पेरुबंदुर में राजीव गांधी को बम विस्फोट से उड़ा दिया गया। चुनाव चल रहा था, हिन्दी भाषी क्षेत्र में भाजपा ध्रुवीकरण करने में कामयाब हो रही थी लेकिन इस घटना ने भाजपा को फिर सत्ता से पीछे ढकेल दिया। नरसिंम्हन राव की अगुवाई में कुछ दलों के समर्थन से कांग्रेस सरकार बनाने में सफल हो गई थी और उधर सोनिया गांधी के विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर कांग्रेस में फूट पडऩे लगी। नारायण दत्त तिवारी-अर्जुन सिंह जैसे नेता अपनी अलग राह चुन चुके थे।

पति के दुख की पीड़ा ने सोनिया गांधी को घर में कैद कर रखा था। विवाह के बाद भारतीय बहु का फर्ज निभाने वाली सोनिया गांधी पर जब पार्टी के भीतर ही विदेशी के बाण चले तो दूसरे कहां मौका छोडऩे वाले थे। एक तरफ कांग्रेस के भीतर ही लड़ाई चल रही थी तो दूसरी ओर साम्प्रदायिक शक्तियां सिर उठाने लगी। हालांकि भाजपा को अपनी ताकत दिखाने का मौका तो तभी मिल गया था जब शहबानों प्रकरण में बहुमत की ताकत से राजीव गांधी ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले बदल दिये थे। ये तुष्टीकरण पर प्रहार माना गया और हिन्दू वोट खिसकने का डर से कांग्रेस इतनी भयभीत हो गई कि उसने हिन्दू वोटों की खातिर राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। भूमिपूजन भी तय हो गया।

ये एक तरह से हिन्दू कुंठा की जीत थी। जो हिन्दू कुण्ठा प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु को सोमनाथ के जीर्णोद्धार के कार्यक्रम से दूर रखा था वह राजीव गांधी पर सफल हो गया था।  राम मंदिर के ताला खुलने के फैसले भले कांग्रेस ने किया लेकिन यह ध्रुवीकरण की राजनीति का नया मोड़ था। ज्ञान पर नफरत के ध्वजारोहण का एक और चरण था।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें