शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

उस रावण से इस रावण तक…

 उस रावण से इस रावण तक…


इतिहास में एक निर्णय होता है, राम को राज्य नहीं वन मिलेगा राम खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं इस निर्णय को।


मां का विलाप, जन‌मानस के आंसू और चित्रकूट आते आते भाई का प्यार,  कोई भी राम के वन जाने के निर्णय में बाधा नहीं बनता है। तब कहीं जाकर अत्याचारी उस रावण का अंत होता है जो महान शिवभक्त थे, महान विद्वान ब्राम्हण भी थे ।


तब जाना था कि जीवन में उसूल कितना जरूरी है। उसूल हमें मनुष्यता की ओर ले जाते है। सिहांन्त या उसूल के बग़ैर व्यक्ति जानवर बन जाता है।


तब से हर साल रावण दहन की परम्परा चल पड़ी। और यह अब सिर्फ परम्परा बनकर रह गई। उसूल ग़ायब होते चले गए यानी मनुष्यता भी! और अब इस टेक्नालाजी के युग ने तो संवेदना भी छिनने लगी है, तब रावण दहन की परम्परा को ढोने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं।


हर साल रावण दहन के पहले अपने भीतर के रावण को मारने की सीख के साथ सोशल मीडिया में पोस्ट चेप दिया जाता है, सिर्फ पोस्ट… ।


इन पोस्ट में न संवेदना होती है न मनुष्यता की आहट ही सुनाई देती 

है। राम-रावण के युद्ध भी उसूलों के साथ हुए। लेकिन उस युद्ध के बाद  उसूलों से किनारे करने और अपनी सुविधानुसार हर क्षेत्र में परिभाषा गढ़े जाने लगे। किसी झूठ को सौ  बार बोलकर सच का एहसास कराने जैसे छद्‌म के इस दौर में राम और रावण को अपने  स्वार्थ के लिए याद किया जाने लगा। उसूल थे तब बेईमान भी किसी का नमक नहीं खाते थे, फिर  यह भी दौर आया जब कहा जाने लगा कि ईमानदारी तो बेईमानों में ही बची है।

  अजेय रावण को राम हरा सके तो सिर्फ अपने उसूल से । और इसे धर्म या संस्कृति से जोड़ने की प्रमुख वजह उन उसूलों को रेखांकित करना था जो आदमी को मनुष्यता की और ले जाता है ।


लेकिन रावण के अत्याचार को बड़ा बताने के फेर में हमने राम के उसूलों  को इतना छोटा कर दिया कि रावण का अत्याचार  ही याद रह गया, राम के उन उसू‌लों को विस्मृत  कर दिया गया जो रावण के अंत का प्रमुख  हथियार रहा। 

प्रेम और युद्ध में सब जायज को इतना प्रचारित किया गया जो हमें मनुष्यता से दूर कर गया।

इसलिए कब रावण वध केवल परम्परा निभाने, राजनीति साधने तक सीमित हो गया। और घर-घर में रावण ने अपनी जगह बना ली।

लेकिन इससे भी एक कदम आगे बढ़कर भौतिक सुख - सुविधा के लोभियों ने युद्ध में सब जायज़  की प्रवृति को इस तरफ़ दिलो दिमाग़ पर थोप दिया कि ख़ान पान पहनावा को लेकर कुतर्क भी हमे मनुष्यता से दूर करने लगे । और यह सब राजनैतिक गिरोह बंदी कि अपनी लंका थी जो सत्ता और स्वर्ण से निर्मित करने का मोह…!

बिटिया अपने ही घरों में, परिवार में कितनी सुरक्षित है यह बताने की जरूरत नहीं है तब उस रावण के दहन से लेकर आज तक मनुष्यता की कसौटी  को अब  एआई या रोबोट के साथ मापने की कोशिश में उसूलों का समाप्त होना रावण को और विकराल बनाता है । तो राम को लाने का दावा एक नये प्रकार के रावण को जन्म देता है। 

जहां हर कोई अपने घर को सोने की लंका बनाने आमदा है। अजेय बनना चाहता है, सुख सुविधा बटोरने में उसूलों से समझौता करता है । 

तब भी रावण दहन की शुभकामनाएँ क्या दी जानी चाहिए।


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