नवरात्रि की ज्योति
त्यौहार सावन में बहते झरने की तरह जीवन में प्रवाह पैदा करता है। वह सूरज की चमक पैदा करता है तो चाँद की शीतलता को अंगीकार करता है। इससे हमारी आस्थाओं की फसले पुष्ट होती है। हरी होती है,और एक सुगंध फैलाती है,जो मानव को मानव बना रहने का रास्ता होता है। भारतीय जीवन ने इस गहरी पैठ को समझा है। ज्ञान और कर्म के इस अद्भुत मेल का नाम ही तो त्यौहार है। समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को खुशियां मनाने का हक है,और त्यौहार के माध्यम से वह मंदिरों के चौखट तक आकर सब संग साथ खड़े होते है। जात -पात के बंधन से परे नवरात्रि की ज्योति सबको समान रूप से ऊष्मा , ऊर्जा प्रदान करती है।
फाल्गुन के उत्साह व् रंग में सराबोर पकृति मदमस्त होकर झूमती है तब भाषा बोली का भेद मीट जाता है। स्वयं के भीतर के विकास को रंगो से साथ धोने का कर्म पूरा एक पक्छ चलता है। होलिकोत्सव से रंगपंचमी बीच कितने विकारों में रंगो की खूबसूरती चढ़ जाती है। फिर इन्हे उतारने में समय तो लगता ही है। चैत्र के पहले पक्छ में रंगो के साथ विकार भी उतरने लगता है। समय का यह अद्भुत संयोग है।कृष्ण व शुक्ल पक्छ का यह मेल जीवन में सुख - दुःख की तरह आता जाता है। समय के चक्र से कौन अपने को बचा सका है।
लहलहाते खेत देख पकृति भी आन्दित है,किसान आन्दित है,पूरा घर अभिलाषा करता है कि फसल अच्छे से पके,पेड़ों का हरापन और बिज का प्राण बचा रहे। जीव और जीवन को पोषण देने वाली वसुधा मुस्कुराती रहे। पर रक्तबीज,महिषासुर ऐसा कंहा होने देना चाहते है वे तो स्वयं की सत्ता स्थापना में सब कुछ तहस -नहस कर देना चाहते है। वसुधा का हरापन छीन लेना चाहते है। मानव-मानव को वे राकछस बना देना चाहते है। रक्तबीज के पास वरदानी शक्ति है। शक्ति हर कोई कंहा संभाल पाता है। फिर शक्ति का अर्जन स्वयं की सत्ता स्थापना के लिए किया गया हो तब भला मर्यादा नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। रक्तबीज अपनी शक्ति से वसुधा का प्राणशक्ति मिटा देना चाहता है। परन्तु प्राणशक्ति , वसुधा का आधार है। देवो के देव महादेव यह सब कैसे देख सकते थे,वे शव हो जाते हैं,शिव का ई निकलकर शक्ति-पूंज बन जाता है। ई नौ रूपों में जयन्ती,मंगला,भद्र-काली,कपालिनी,दुर्गा,छमा,शिवा,धात्री,स्वाहा ,स्वधा,वसुधा की प्राणशक्ति और आसुरी शक्ति के बीच खड़ी हो जाती है। सूर्य,चन्द्र,ग्रह , नछत्र , जल,वायु,अग्नि,आकाश,पेड़-पौधे,पशु-पकछि,मानव की यात्रा निर्बाध चलती है। यात्रा हमारे जीवन का आधार है। इसमें निरंतरता बनी रहे। सभ्यता,संस्कृति और चिंतन की धाराओं में मनुष्य डुबकी लगाता रहे। उषा मनुष्य का अभिषेक करती है। भाषा- बोली,खान-पान के भीतर का असली स्वाद प्राणशक्ति की तरह संचारित होता रहे।
खल्लारी,डोंगदगड , मैहर की ओर चलने वाली गाड़ियां खचाखच भर जाती है। नौ दिन भीड़ अनुशासन के वृत्त में गम हो जाता है। भीड़ का यह अनुशासन ही भारत की पहचान है। व्यक्ति के दायरे से बाहर आकर समाज का नया व्यक्तित्व रचने का यह अद्भुत संयोग नवरात्रि लेकर आता है।
विकास और भौतिकता की आज के इस अंधी दौड़ के बीच भी यदि परकोटे में चिड़िया के लिए पानी व् दाना रखा जाता है,तो इसका मतलब रक्तबीज या महिषासुर नहीं मनुष्य का मनुष्य होने का भाव है। बिटियाँ रंगोली बनाती है। माँ चौका पुरती है। लकीरे शुरू होती है,रंगोली सज जाती है,रंगोली की शुरुवात किस लकीर से हुई कोई नहीं बता सकता। रंग भरते चला जाता है। खूबसूरती धरती में आकृति लेकर मन मस्तिष्क तक समा जाता है। चौक-कलश को आमंत्रण देते हुए ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। जीवन की राह रोशन हो जाती है। रोशनी भ्रम मिटा देता है,भेद मिटा देता है,ज्योति लोगो के भीतर तक प्रकाश बन जाता है।
देवी मंदिरों तक पुरे नौ दिन भीड़ ही भीड़ है। भीड़ में चेहरे गुम है। दोनों हाथ की हथेलिया आपस में स्वतः मिल जाती है , श्रद्धा से सर झुक जाता है। सबके मस्तिष्क में चेतना एक सी हो जाती है। आदमी मैं से बाहर निकल जाता है। हम के भाव जुड़ जाते है। जिस तरह से जड़ , तना , पत्ती पुल मिलकर वृक्छ के रूप में अपनी पहचान बन जाते है वैसे ही श्रद्धा नमन दया धर्म मिलकर व्यक्ति को महामानव बना देता है।
गुलाब को देखकर जीवन के खाद-पानी का अनुभव नहीं किया जा सकता। हमारी दृष्टि गुलाब की सुंदरता और खुशबू में अटक कर रह जाती है परन्तु मंदिर के भीतर हम गुलाब के खाद-पानी तक की सोचते है। चिड़ियों को उसके घोसले के लिए तिनका मिलता रहे,धान के दाने में दूध भरता रहे। समूह मन की प्रार्थना ही हमारे जीवन का आधार है। छोटे से छोटे जीव मात्र की अस्तित्व को लेकर हमारी चिंता ही हमारे जीवन के हरेपन का आधार है।
रंगोली से लेकर कलश की स्थापना फिर ज्योति का प्रकाश ही हमारे जीवन में उत्साह बनाए रखता है। लोग अब भी प्रकाश की ओर दौड़ रहे हैं। व्यक्ति ने रौशनी के लिए कितने शॉर्टकट निकाल लिए है। बल्ब से एल ई डी के सफर में पूरी दुनिया रोशन तो हो गई पर क्या इन सबमे हमारे भीतर का अँधेरा मिट पाया? काले -गोरे ,धर्म-जाति का अंधकार मिट पाया। पहले स्वयं को रोशन कर सबमे रौशनी भरने का रास्ता हम आज भी नहीं तलाश पाए है। रास्ता सामने है पर हम उस रास्ते देखना ही नहीं चाहते। ज्योति कलश की स्थापना मनुष्य के भीतर प्रकाश भरने का रास्ता है।
त्यौहार सावन में बहते झरने की तरह जीवन में प्रवाह पैदा करता है। वह सूरज की चमक पैदा करता है तो चाँद की शीतलता को अंगीकार करता है। इससे हमारी आस्थाओं की फसले पुष्ट होती है। हरी होती है,और एक सुगंध फैलाती है,जो मानव को मानव बना रहने का रास्ता होता है। भारतीय जीवन ने इस गहरी पैठ को समझा है। ज्ञान और कर्म के इस अद्भुत मेल का नाम ही तो त्यौहार है। समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को खुशियां मनाने का हक है,और त्यौहार के माध्यम से वह मंदिरों के चौखट तक आकर सब संग साथ खड़े होते है। जात -पात के बंधन से परे नवरात्रि की ज्योति सबको समान रूप से ऊष्मा , ऊर्जा प्रदान करती है।
फाल्गुन के उत्साह व् रंग में सराबोर पकृति मदमस्त होकर झूमती है तब भाषा बोली का भेद मीट जाता है। स्वयं के भीतर के विकास को रंगो से साथ धोने का कर्म पूरा एक पक्छ चलता है। होलिकोत्सव से रंगपंचमी बीच कितने विकारों में रंगो की खूबसूरती चढ़ जाती है। फिर इन्हे उतारने में समय तो लगता ही है। चैत्र के पहले पक्छ में रंगो के साथ विकार भी उतरने लगता है। समय का यह अद्भुत संयोग है।कृष्ण व शुक्ल पक्छ का यह मेल जीवन में सुख - दुःख की तरह आता जाता है। समय के चक्र से कौन अपने को बचा सका है।
लहलहाते खेत देख पकृति भी आन्दित है,किसान आन्दित है,पूरा घर अभिलाषा करता है कि फसल अच्छे से पके,पेड़ों का हरापन और बिज का प्राण बचा रहे। जीव और जीवन को पोषण देने वाली वसुधा मुस्कुराती रहे। पर रक्तबीज,महिषासुर ऐसा कंहा होने देना चाहते है वे तो स्वयं की सत्ता स्थापना में सब कुछ तहस -नहस कर देना चाहते है। वसुधा का हरापन छीन लेना चाहते है। मानव-मानव को वे राकछस बना देना चाहते है। रक्तबीज के पास वरदानी शक्ति है। शक्ति हर कोई कंहा संभाल पाता है। फिर शक्ति का अर्जन स्वयं की सत्ता स्थापना के लिए किया गया हो तब भला मर्यादा नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है। रक्तबीज अपनी शक्ति से वसुधा का प्राणशक्ति मिटा देना चाहता है। परन्तु प्राणशक्ति , वसुधा का आधार है। देवो के देव महादेव यह सब कैसे देख सकते थे,वे शव हो जाते हैं,शिव का ई निकलकर शक्ति-पूंज बन जाता है। ई नौ रूपों में जयन्ती,मंगला,भद्र-काली,कपालिनी,दुर्गा,छमा,शिवा,धात्री,स्वाहा ,स्वधा,वसुधा की प्राणशक्ति और आसुरी शक्ति के बीच खड़ी हो जाती है। सूर्य,चन्द्र,ग्रह , नछत्र , जल,वायु,अग्नि,आकाश,पेड़-पौधे,पशु-पकछि,मानव की यात्रा निर्बाध चलती है। यात्रा हमारे जीवन का आधार है। इसमें निरंतरता बनी रहे। सभ्यता,संस्कृति और चिंतन की धाराओं में मनुष्य डुबकी लगाता रहे। उषा मनुष्य का अभिषेक करती है। भाषा- बोली,खान-पान के भीतर का असली स्वाद प्राणशक्ति की तरह संचारित होता रहे।
खल्लारी,डोंगदगड , मैहर की ओर चलने वाली गाड़ियां खचाखच भर जाती है। नौ दिन भीड़ अनुशासन के वृत्त में गम हो जाता है। भीड़ का यह अनुशासन ही भारत की पहचान है। व्यक्ति के दायरे से बाहर आकर समाज का नया व्यक्तित्व रचने का यह अद्भुत संयोग नवरात्रि लेकर आता है।
विकास और भौतिकता की आज के इस अंधी दौड़ के बीच भी यदि परकोटे में चिड़िया के लिए पानी व् दाना रखा जाता है,तो इसका मतलब रक्तबीज या महिषासुर नहीं मनुष्य का मनुष्य होने का भाव है। बिटियाँ रंगोली बनाती है। माँ चौका पुरती है। लकीरे शुरू होती है,रंगोली सज जाती है,रंगोली की शुरुवात किस लकीर से हुई कोई नहीं बता सकता। रंग भरते चला जाता है। खूबसूरती धरती में आकृति लेकर मन मस्तिष्क तक समा जाता है। चौक-कलश को आमंत्रण देते हुए ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। जीवन की राह रोशन हो जाती है। रोशनी भ्रम मिटा देता है,भेद मिटा देता है,ज्योति लोगो के भीतर तक प्रकाश बन जाता है।
देवी मंदिरों तक पुरे नौ दिन भीड़ ही भीड़ है। भीड़ में चेहरे गुम है। दोनों हाथ की हथेलिया आपस में स्वतः मिल जाती है , श्रद्धा से सर झुक जाता है। सबके मस्तिष्क में चेतना एक सी हो जाती है। आदमी मैं से बाहर निकल जाता है। हम के भाव जुड़ जाते है। जिस तरह से जड़ , तना , पत्ती पुल मिलकर वृक्छ के रूप में अपनी पहचान बन जाते है वैसे ही श्रद्धा नमन दया धर्म मिलकर व्यक्ति को महामानव बना देता है।
गुलाब को देखकर जीवन के खाद-पानी का अनुभव नहीं किया जा सकता। हमारी दृष्टि गुलाब की सुंदरता और खुशबू में अटक कर रह जाती है परन्तु मंदिर के भीतर हम गुलाब के खाद-पानी तक की सोचते है। चिड़ियों को उसके घोसले के लिए तिनका मिलता रहे,धान के दाने में दूध भरता रहे। समूह मन की प्रार्थना ही हमारे जीवन का आधार है। छोटे से छोटे जीव मात्र की अस्तित्व को लेकर हमारी चिंता ही हमारे जीवन के हरेपन का आधार है।
रंगोली से लेकर कलश की स्थापना फिर ज्योति का प्रकाश ही हमारे जीवन में उत्साह बनाए रखता है। लोग अब भी प्रकाश की ओर दौड़ रहे हैं। व्यक्ति ने रौशनी के लिए कितने शॉर्टकट निकाल लिए है। बल्ब से एल ई डी के सफर में पूरी दुनिया रोशन तो हो गई पर क्या इन सबमे हमारे भीतर का अँधेरा मिट पाया? काले -गोरे ,धर्म-जाति का अंधकार मिट पाया। पहले स्वयं को रोशन कर सबमे रौशनी भरने का रास्ता हम आज भी नहीं तलाश पाए है। रास्ता सामने है पर हम उस रास्ते देखना ही नहीं चाहते। ज्योति कलश की स्थापना मनुष्य के भीतर प्रकाश भरने का रास्ता है।
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