रोज सुबह अब
सूर्योदय के पहले
नींद खुल जाती है
और कंपकपाती ठंड
में मुंह धोने
पानी को हाथ से
छूता हूं
तो याद आते हैं
अपने हक के लिये
दिल्ली बार्डर में
जुटे किसान
सर्द हवा और
बारिश में भीगते
गीले बिस्तर में
सोते किसान।
मैं जानता हूं कि
सरकार इतनी आसानी
से नहीं झूकने वाली
और मैं यह भी जानता हूं
कि अपने हक की
लड़ाई लडऩी पड़ती है
घर छोडऩा पड़ता है
इंतजार करते बच्चों
का मन मारना पड़ता है
गांव की सुंगध को
छोड़ शहर में
भटकना पड़ता है।
फिर यदि सत्ता
का अभिमान चरम पर हो
तो स्वाभिमान बचाने
की लड़ाई और भी
लम्बी होती है
आखिर गुरु गोविन्द
सिंह ने यूं ही नहीं
कहा था
कोई किसी को कुछ न देहै
जो ले है निजबल से लेहै।
पानी के छिंटे ने
जगा दिया और
मैं फिर चल पड़ता हूं
सुबह की सर्द हवा में
टहलने
आखिर दृढ़ निश्चक के
आगे ठंड भी हार
जाता है
सत्ता की क्या बिसात।
(किसान आंदोलन को समर्पित)
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