कंपकपाती ठंड, सर्द हवा, रुक रुक कर होती बारिश में किसानों के हौसले को कौन सलाम करना नहीं चाहेगा! ये वही किसान है जिनके बेटे देश की रक्षा में सीमा में खड़े हैं तो तमाम आपदाओं में देश की अर्थव्यवस्था को संभाले हुए हैं। ये वही किसान है जो अमेरिका की दादागिरी के खिलाफ हरित क्रांति कर देश को अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बनाते है तो सत्ता की रईसी को बरकरार रखने वाले कानून का भी मौन समर्थन करते है। आधुनिक तकनीकी को अपनाने कर्ज ले कर सरकार का गोदाम भरते हैं लेकिन इन्हें क्या हासिल हुआ?
सवाल यह नहीं है कि किसान आंदोलन को लेकर सरकार या उनसे जुड़े लोग बेबस क्यों है? बल्कि सवाल यह है कि आखिर किसानों ने जब कह दिया है कि तीनों कानून को वापस लिये बगैर वे घर नहीं लौटेंगे तब सरकार बैठक के नाम पर किसे बरगला रही है। और विज्ञान भवन की राजसी ठाठ का प्रदर्शन क्यों कर रही है।
विज्ञान भवन में जिस तरह से हर बैठक में लाखों रुपये खर्च किये जा रहे हैं वह किसका पैसा है? फाईव स्टार होटल से आने वाला खाना किसके लिये आ रहा है जबकि किसान तो अपना लंगर का खाना ही खा रहा है।
हमने पहले ही कहा है कि सत्ता अपनी रईसी बरकरार रखने के उपक्रम में किसान को बख्श दे और सरकार सच में किसानों का हित चाहती है तो समर्थन मूल्य के नीचे की खरीदी को गैर कानूनी बना दे। यदि किसान अपनी उपज समर्थन मूल्य पर बेचने लगे तो किसानों की हालत सुधर जायेगी। लेकिन सत्ता जानती है कि जिस दिन ऐसा हुआ तो उनकी रईसी खत्म हो जायेगी। उन्हें मिलने वाले वेतन भत्तों पर सवाल उठेगा और कार्पोरेट घराना तब सत्ता को नहीं पूछेगी।
हैरानी की बात तो यह है कि उत्पादन का नया इतिहास बनाने वाले किसान गरीब के गरीब है और कृषि उपकरण या इससे संबंधित खाद बीज या दूसरे प्रोडक्ट बनाने वाले रईस से महा रईस होते जा हैं। टैक्स से लेकर सब्सिडी का जो खेल सरकार खेल रही है उससे किसानों की बजाय पूंजीपतियों को ही फायदा होता है।
ऐसे में 8 जनवरी को होने वाली बैठक भी बेनतीजा रहे तो हैरानी नहीं होगी। क्योंकि सत्ता की अपनी चाल है तब दुष्यंत कुमार की गजल की चंद पंक्तियां याद आ जाती है-
भूख है तो सब्र कर रोटी नहीं तो क्या हुआ
आजकल दिल्ली में है जेर-ए-बहस ये मुद्दआ।
गिगिड़ाने का यहां कोई असर होता नहीं
पेट भरकर गालियां दो, आह भरकर बद्दुआ।
दोस्त, अपने मुल्क कि किस्मत पे रंजीदा न हो
उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ।
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