शुक्रवार, 18 अक्तूबर 2024

संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था

संघ ने तब तिरंगा फहराने वाले युवाओं को जेल में डलवा दिया था 

भले ही बीजेपी अब राष्ट्रवाद का नारा लगाते हुए घर घर तिरंगा का आयोजन कर रही हो लेकिन तिरंगा को लेकर संघ का रवैया नकारात्मक रहा है ।
संघ पर तिरंगा विरोधी का तमगा यूँ ही नहीं लगा है
संघ के इस रवैये को लेकर उठते सवालों में यह घटना बेहद ही महत्वपूर्ण है 
1950 के बाद आरएसएस मुख्यालय पर तिरंगा तब तक नहीं फहराया गया जब तक कि 26 जनवरी 2001 को राष्ट्रप्रेमी युवा दल के तीन सदस्यों ने आरएसएस प्रशासन की इच्छा के विरुद्ध आरएसएस स्मृति भवन में जबरन राष्ट्रीय ध्वज नहीं फहराया। इसके बाद तीनों पर मामला दर्ज किया ... 
ये तीनों युवकों को २०१३ में बरी किया गया
पीटीआई के मुताबिक़ इन तीनों युवाओं को झंडा फहराने से रोकने वाले का नाम सुनील कोठाले था जो प्रभारी था।

२००१ के इस घटना के बाद २६ जनवरी २००२ से संघ ने अपनी मर्ज़ी से तिरंगा फहराना शुरू किया।
दरअसल तिरंगा को लेकर आरएसएस की सोच के तथ्य पर गौर करे तो विवाद की शुरुआत गुरु गोवलकर और ऑर्गनाइज़र में छपे लेख से समझ सकते है-
आरएसएस के दूसरे सरसंघचालक एमएस गोलवलकर ने अपनी पुस्तक बंच ऑफ थॉट्स में तिरंगे को राष्ट्रीय ध्वज के रूप में अपनाने के कांग्रेस के फैसले की आलोचना की थी।

"हमारे नेताओं ने हमारे देश के लिए एक नया झंडा बनाया है। उन्होंने ऐसा क्यों किया? यह सिर्फ़ बहकने और नकल करने का मामला है। यह झंडा कैसे अस्तित्व में आया? फ्रांसीसी क्रांति के दौरान, फ्रांसीसियों ने 'समानता', 'बंधुत्व' और 'स्वतंत्रता' के तीन विचारों को व्यक्त करने के लिए अपने झंडे पर तीन पट्टियाँ रखीं। इसी तरह के सिद्धांतों से प्रेरित अमेरिकी क्रांति ने कुछ बदलावों के साथ इसे अपनाया। इसलिए तीन पट्टियाँ हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के लिए भी एक तरह का आकर्षण थीं। इसलिए, इसे कांग्रेस ने अपनाया," गोलवलकर ने लिखा था।
आरएसएस नेता ने तिरंगे की भी आलोचना करते हुए कहा कि यह "सांप्रदायिक" है, उन्होंने लिखा, "फिर इसे विभिन्न समुदायों की एकता के रूप में व्याख्यायित किया गया- भगवा रंग हिंदू का, हरा रंग मुस्लिम का और सफेद रंग अन्य सभी समुदायों का प्रतीक है। गैर-हिंदू समुदायों में से, मुस्लिम का नाम विशेष रूप से इसलिए लिया गया क्योंकि उनमें से अधिकांश प्रतिष्ठित नेताओं के मन में मुस्लिम प्रमुख थे और उनका नाम लिए बिना वे नहीं सोचते थे कि हमारी राष्ट्रीयता पूरी हो सकती है! जब कुछ लोगों ने बताया कि यह सांप्रदायिक दृष्टिकोण की बू आती है, तो एक नया स्पष्टीकरण सामने लाया गया कि 'भगवा' बलिदान का प्रतीक है, 'सफेद' शुद्धता का और 'हरा' शांति का प्रतीक है और इसी तरह।"

1947 में आरएसएस के मुखपत्र ऑर्गनाइजर ने भी तिरंगे पर आपत्ति जताते हुए लिखा था कि भारतीय नेता "हमारे हाथों में तिरंगा दे सकते हैं, लेकिन हिंदू इसका कभी सम्मान नहीं करेंगे और इसे अपनाएंगे नहीं। तीन शब्द अपने आप में एक बुराई है और तीन रंगों वाला झंडा निश्चित रूप से बहुत बुरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पैदा करेगा और देश के लिए हानिकारक है।"

आरएसएस ने 2015 में यह भी कहा था कि “राष्ट्रीय ध्वज पर केवल भगवा रंग ही होना चाहिए क्योंकि अन्य रंग सांप्रदायिक सोच का प्रतिनिधित्व करते हैं।"

हालाँकि, वर्तमान आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने 2018 में कहा था कि आरएसएस “अपने जन्म से ही तिरंगे के सम्मान के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है।”
यानी आरएसएस और बीजेपी को तिरंगा को स्वीकार करने में दर्शकों लगे।

बुधवार, 16 अक्तूबर 2024

सुभाष बाबू को क्या संघ ने धोखा दिया...

सुभाष बाबू को क्या संघ ने धोखा दिया...


अंग्रेजी अत्याचार के खिलाफ़ जब समूचा देश खड़ा हो रहा था , तभी ब्रिटिश रणनीतिकारों के ने आक्रोश को दबाने का कुचक्र किया। इस कुचक्र के दौर में ही पहले मुस्लिम लीग फिर हिन्दू‌महासभा और संघ का गठन हुआ । इनका ब्रिटिश कुचक्र से कितना लेना देना था कहना कठिन है।

लेकिन इसी दौर में देश के नौजवानों ने सर पर कफ़न बांध कर ब्रिटिश हुकुमत के खिलाफ हथियार भी उठाये तो गांधी ने अहिंसक आदोलन की सोच पर कांग्रेस को अपनी मुट्ठी में रख लिया, सरदार पटेल, पंडित नेहरू और सुभाष बापू ने गांधी के विचार पर मतमेद को अपने अपने ढंग से प्रद‌र्शित भी किया । 

और सुभाष बाबू ने तो कांग्रेस अध्यक्ष का चुनाव लड़कर एक तरह से गांधी को खुली चुनौती तक दे डाली। सुभाष बाबू चुनाव भी जीत गए लेकिन उन्हें इस्तीफा देना पड़ा और वे फारवर्ड ब्लाद बनाकर अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई के लिए अलग रास्ता चुन लिया। 

इस दौर में सुभाष बाबू की लोकप्रियता चरम पर थी और ऐतिहासिक तथ्य कहते है कि संघ के पास इस दौर में 60 हजार से अधिक स्वयं सेवक थे। लेकिन संघ का ध्येय हिदुत्व पर टिका था। उन्हें केबी हेगडेवार को संघ के विस्तार की चिंता थी।

केबी हेगड़‌वार का संघ पर पूरी तरह से पकड़ थी, और सरसंघ कार्यवाह हुद्‌दार जन भावना के अनुरुप चाहते थे कि संघ भी ब्रिटिश अत्याचार के खिलाफ खुलकर आ जाए।

इ‌धर नेताजी सुभाष भी ब्रिटिश विरोधी संघर्ष के लिए विकल्प तलाश कर रहे थे और इसी प्रयास में हेगड़े‌वार को मनाने के लिए हुद्‌दार को शामिल किया गया लेकिन हुद्‌दार असफल हो गये।  कहते है कि हेगडे‌वार ने तबियत खराब होने का हवाला देकर सुभाष बाबू से दूरी बना ली।

इसके  बाद एक सितम्बर 1939-40 में सुभाष बाबू के दो विश्वासपात्र करीबी जोगेश चन्द्र चटर्जी और त्रैलोक्य नाथ चक्रवती ने हेगड़ेवार को मनाने का एक और प्रयास किया । वह भी असफल रहा । 

आज भले ही संघ और समूची बीजेपी सुभाष बाबू को लेकर कुछ भी दावा करते हो लेकिन ऐतिहासिक तथ्य कुछ और ही बयान करता है । 

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2024

हिन्दू महासभा ने रखी थी संघ कि नींव…

 हिन्दू महासभा ने रखी थी संघ कि नींव…

 


यह बात बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि आरएसएस की स्थापना हिंदू महासभा के उन नेताओं ने करवाई जो मदन मोहन मालवीय के प्रभाव में अपनी बात शायद नहीं रख पाते रहे होंगे, लेकिन शायद हिंदू महासभा से अलग दिखाने की कोशिश में यही प्रचारित किया गया कि आरएसएस की स्थापना के बी हेगडेवार ने किया , हेगडेवार ने इसकी घोषणा ज़रूर की और वे आजीवन मुखिया भी रहे । 

आरएसएस के गठन में कौन कौन शामिल थे और हिंदू महासभा की क्या भूमिका थी यह बताये उससे पहले इसके गठन के समय देश की परिस्थिति को जानना ज़रूरी है…

 आर एस एस की स्थापना ऐसे समय में हुई जब देश ब्रिटिश अत्याचार के चरम को झेल रहा था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन को छिन्न-भिन्न करने ब्रिटिश हुकुमत का बंगाल विभाजन के फैसले को लेकर हिन्दू-मुस्लिम एकता में दरार डालने की कोशिश का असर होने लगा था।

1906 में सबसे पहले मुसलमानों का एक संगठन बन गया, मुस्लिम लीग ।  जिन्हें लगता था कि भारत पर मुसलमानो का अधिकार है, और वे मुस्लिम हित की आड़ लेकर अंग्रेजों के साथ मिलकर  अलग राह चुनने भी लगे ।

कहा जाता है कि मुस्लिम लीग के गठन के बाद भी निष्कंटक  राज्य चलाने को लेकर अंग्रेज आस्वस्त नहीं थे, क्योंकि कांग्रेस  का जन आन्दोलन बड़ा होता जा रहा था और कांग्रेस के साथ अब भी बड़ी संख्या में मुसलमान जुड़े हुए थे।

ऐसे में हिन्दू महासमा का गठन भी हो गया। अब राष्ट्रीय आदोलन से जुड़े हिंदू और मुसलमानों का एक बड़े वर्ग को धर्म के आधार पर बाँटने  की  ब्रिटिश सोच को परवान चढ्ने लगा।

स्वाभाविक तौर पर नाम के अनुरुप मुस्लिम लीग और हिन्दू महासमा का जो भी आंदोलन  होता वह अपने धर्म के अनुरूप होता।

कहा जाता है कि इस बीच हिन्दू महासमा में में बीएस मुंजे ताकतवर हो गये और  फिर आर एस एस की स्थापना की नींव रखी गई।आरएसएस 

की स्थापना में बी एस मुंजे की महत्वपूर्ण भूमिका रही ।आरएसएस  की स्थापना हिन्दू‌महासभा  ने की कहा जाय तो गलत इसलिए नहीं होगा क्योंकि प्रारंभिक बैठक में हेगडे‌वार के अलावा हिन्दू महासभा के चार नेता बीएस मुजे, गणेश सावरकर, एल वी परांजपे और बीबी ठोकलकर के बीच हुई थी।

हालाँकि अब संघ कभी हिंदूमहासभा की भूमिका को स्वीकार नहीं करेगा क्योंकि वह प्रारंभ से स्थापना की श्रेय हेगडेवार को ही देता आया है जबकि हेगडेवार ने घोषणा की थी और वे इसके प्रथम प्रमुख थे ।



सोमवार, 14 अक्तूबर 2024

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….

संघ का वह सच जो आपको जानना चाहिये….


भाजपा को सांगठित व वैचारिक ताकत प्रदान करने वाली राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का गठन जब 1925 में किया गया तब समूचा देश कांग्रेस के नेतृत्व में स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई लड़ रहा था ।

सावरकर के हिन्दूत्व से प्रभावित केबी हेगडेवार के इससे पहले कांग्रेस में मंझोले कद के नेता थे और वे जेल भी जा चुके थे, लेकिन हिन्दू‌महासभा के सावरकर से प्रभावित होकर या अंग्रेजी हुकूमत के प्रभाव,  में से उन पर कौन ज्यादा हावी हुआ यह कहना मुश्किल है क्योंकि  इतिहास में इसके तथ्य नहीं मिलते ।

लेकिन यदि आरएसएस के स्वतंत्रता संग्राम में योगदान को लेकर जब खोज हुई तो जो तथ्य सामने आये वह चौंकाने वाले है। 

1925 से अपने गठन के बाद से आजादी मिलने तक 1947 तक के  इतने साल के सफर में उन लोगों का कोई नामो निशान नहीं मिलता जो आज प्रखर स्वर में राष्ट्र‌वादी होने का दंभ भरते है। इस साफ दिखाई देने वाली अनुपस्थति की वजह से संघ को अंग्रेजों के शुभचिंतक के तौर पर या वफादार के तौर पर जोड़ा जाता है।


तथ्य यहीं कि 1925 से लेकर 1947 तक संघ ने कांग्रेस या किसी अन्य समूह या दल द्वारा  चलाए गए अंग्रेजों के खिलाफ किसी अभियान या आन्दोलन में भागीदारी की ही नहीं , और न ही अपने संगठन के द्वारा ही अंग्रेजो के खिलाए कोई आन्दोलन ही चलाया।

राष्ट्रवाद को अपना धर्म बताने वाले आरएसएस के लिए वास्तव में यह एक काला अध्याय है।

दरअसल इस तथ्यों से एक बात और स्पष्ट होता है कि इनका धर्म भारतीय राष्ट्रवाद नहीं हिन्दू राष्ट्रवाद है।

मृदुला मुखर्जी जेएनयू के इतिहास विभाग की पूर्व प्रोफेसर और नेहरू मेमोरियल म्यूजियम एंड लाइब्रेरी की पूर्व निदेशक ने अपने एक लेख में लिखा है कि  तथ्य यह है कि इसके संस्थापक हेडगेवार नागपुर में कांग्रेस के एक मझोले दर्जे के नेता थे और असहयोग आंदोलन के दौरान जेल भी गए थे. लेकिन वे इटली की यात्रा करने वाले और वहां मुसोलिनी से मिलने वाले, इटली के फासीवादी संस्थानों का अध्ययन करने वाले और उनसे जबरदस्त तरीके से प्रभावित हिंदू महासभा के एक नेता बीएस मूंजे के कट्टर अनुयायी थे.

यह भी माना जाता है कि वे वीडी सावरकर की किताब ‘हिंदुत्व’ से प्रभावित थे, जो प्रकाशित 1923 में हुई थी, लेकिन प्रसार में इससे पहले से थी, जिसमें सावरकर ने हिंदुत्व की विचारधारा का मूल विचार दिया था कि भारत हिंदुओं की भूमि है और उनकी जिनकी पुण्यभूमि और पितृभूमि भारत में है. यह विचार इस तरह से मुस्लिमों और ईसाइयों और इस परिभाषा की कसौटी पर खरा न उतरने वाले किसी भी अन्य को भारतीय राष्ट्र से बाहर कर देता है.

यह भी अनुमान लगाया जाता है कि हेडगेवार मुख्य तौर पर एक सांगठनिक व्यक्ति थे और बौद्धिक और वैचारिक इनपुट या निर्देश वास्तव में सावरकर से ही आता था, जो अंडमान जेल से रिहा होने के बाद भी रत्नागिरी तक ही सीमित थे, क्योंकि वो इस शर्त से बंधे थे कि वे राजनीति में भाग नहीं लेंगे और रत्नागिरी के बाहर कहीं यात्रा नहीं करेंगे.

इस अनुमान को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि सावरकर के बड़े भाई बाबूराव सावरकर 1925 में नागपुर में हुई उस बैठक में मौजूद पांच लोगों में से थे, जिसमें आरएसएस की स्थापना हुई थी. और बाद में उन्होंने अपने संगठन तरुण भारत संघ का विलय आरएसएस में कर दिया था.

आरएसएस के गठन के दो साल बाद देशभर में साइमन कमीशन विरोधी प्रदर्शन हो रहे थे, लेकिन इनमें आरएसएस कहीं नहीं था. कुछ समय बाद दिसंबर, 1929 में जवाहर लाल नेहरू ने लाहौर में कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पार्टी अध्यक्ष के तौर पर भारत के राष्ट्रीय ध्वज को फहराया और पूर्ण स्वराज को पार्टी का मकसद घोषित किया. कांग्रेस ने 26 जनवरी, 1930 को स्वतंत्रता दिवस के तौर पर मनाने का भी फैसला लिया, जिसमें राष्ट्र ध्वज को हर शहर और गांव-गांव में फहराया जाना था और सभी उपस्थित लोगों को एक राष्ट्रीय शपथ लेनी थी.

हेडगेवार ने दावा किया कि चूंकि आरएसएस पूर्ण स्वराज में यकीन करता है, इसलिए यह स्वतंत्रता दिवस तो मनाएगा, लेकिन यह तिरंगे की जगह भगवा झंडा फहराएगा. यह आरएसस की राष्ट्रवादी जैसे दिखने मगर वास्तविक राष्ट्रीय आंदोलन से खुद को दूर रखनेवाली  कार्यपद्धति का एक सटीक उदाहरण था.

इसी तरह से जब उस साल बाद में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू किया गया, हेडगेवार ने फैसला किया कि वे निजी तौर पर इसमें शामिल होंगे, लेकिन एक संगठन के तौर पर आरएसएस इसमें शिरकत नहीं करेगा. इसलिए वे अपनी राष्ट्रवादी साख को बनाए रखने और साथ ही, बकौल उनके आधिकारिक जीवनीकार, जेल में बंद कांग्रेस के कैडर को आरएसएस की तरफ आकर्षित करने के लिए जेल गए.

पूरे 1930 के दशक के दौरान आरएसएस का ध्यान संगठन खड़ा करने की तरफ रहा. आरएएस और हिंदू महासभा के बीच कुछ तनाव हुआ था, खासकर सावरकर के खुलकर सामने आने के बाद, क्योंकि महासभा ज्यादा सक्रिय राजनीतिक भूमिका, खासकर चुनावी क्षेत्र में निभाना चाहती थी.

रविवार, 13 अक्तूबर 2024

सरदार पटेल के संघ को लेकर विचार…

 


सौ वी स्थापना वर्ष की ओर बढ़ रहे संघ को लेकर यदि किसी के मन में कोई दुविधा हो तो उन्हें पंडित नेहरू की भविष्यवाणी के अलावा उस सरदार पटेल का महात्मा गांधी की हत्या के बाद आयोजित शोक सभा में दिये वक्तव्य को ज़रूर पढ़ लेना चाहिये, जिसमें उन्होंने न केवल संघ को खूब गरियाया बल्कि बाद में संघ पर प्रतिबंध लगाया।

यदि आप सोच रहे हों कि जब पटेल के संघ के प्रति यह विचार था तो फिर संघ पटेल की तारीफ़ क्यों करता है, मोदी ने उनका सबसे बड़ी प्रतिमा क्यों बनाई ? दरअसल संघ का यही खेल है, झूठ और अफ़वाह का खेल, 

नेहरू-गांधी के आकर्षण को धूमिल करने के इस खेल में वह अपने उन कर्मों को जायज़ ठहराने या छुपा लेने की कोशिश करता है जो इस के लिए ख़तरनाक माना जाता है 

इसलिए आप यदि संघ के इस खेल पर नज़र डाले तो आप पायेंगे कि वह कभी पटेल के पीछे छुपता है तो कभी सुभाष बाबू या भगतसिंह के पीछे ( आगे बतायेंगे कि संघ और हिन्दुवादियो का भगत सिंह और सुभाष बाबू के प्रति रवैया)

भ्रम पैदा कर अपनी राजनीति में माहिर संघ को लेकर सरदार पटेल ने क्या कहा , आज ये जान लें…

गांधी  की हत्या के बाद 2 फरवरी 1948 को आयोजित शोकसभा में सरदार पटेल जब भाषण देने खड़े हुए तो उनकी आंखों में आंसू थे. वह बोलने की हालत में नहीं थे. लेकिन जवाहरलाल नेहरू के बाद देश के दूसरे बड़े नेता के रूप में बोलना उनकी मजबूरी थी और वे बोले भी.

उन्होंने कहा, ‘जब दिल दर्द से भरा होता है, तब जबान खुलती नहीं है और कुछ कहने का दिल नहीं होता है. इस मौके पर जो कुछ कहने को था, भाई जवाहरलाल नेहरू ने कह दिया, मैं क्या कहूं?’

पटेल ने कहा था, ‘हां, हम यह कह सकते हैं कि यह काम एक पागल आदमी ने किया. लेकिन मैं यह काम किसी अकेले पागल आदमी का नहीं मानता. इसके पीछे कितने पागल हैं? और उनको पागल कहा जाए कि शैतान कहा जाए, यह कहना भी मुश्किल है. जब तक आप लोग अपने दिल साफ कर हिम्मत से इसका मुकाबला नहीं करेंगे, तब तक काम नहीं चलेगा. अगर हमारे घर में ऐसे छोटे बच्चे हों, घर में ऐसे नौजवान हों, जो उस रास्ते पर जाना पसंद करते हों तो उनको कहना चाहिए कि यह बुरा रास्ता है और तुम हमारे साथ नहीं रह सकते.’ (भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 158)

सरदार ने अपने व्यक्तिगत जीवन में बदलाव और स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने में भी गांधी को प्रेरणा का प्रमुख स्रोत बताया और कहा था कि अगर गांधी न होते तो मेरा कोई अस्तित्व नहीं होता. उन्होंने कहा था, ‘जब मैंने सार्वजनिक जीवन शुरू किया, तब से मैं उनके साथ रहा हूं. अगर वे हिंदुस्तान न आए होते तो मैं कहां जाता और क्या करता, उसका जब मैं ख़्याल करता हूं तो एक हैरानी सी होती है. तीन दिन से मैं सोच रहा हूं कि गांधी जी ने मेरे जीवन में कितना परिवर्तन किया? इसी तरह से लाखों आदमियों के जीवन में उन्होंने किस तरह से बदला? सारे भारतवर्ष के जीवन में उन्होंने कितना बदला. यदि वह हिंदुस्तान में न आए होते तो राष्ट्र कहां जाता? हिंदुस्तान कहां होता? सदियों हम गिरे हुए थे. वह हमें उठाकर कहां तक ले आए? उन्होंने हमें आजाद बनाया.’ (भारत की एकता का निर्माण, पृष्ठ 157)

उस समय सांप्रदायिक दंगों की आग में जल रहे भारत में सरदार पटेल और खून खराबा नहीं चाहते थे. लोगों में आक्रोश था. उन्होंने अपने भाषण में ज़िक्र किया कि कम्युनिस्टों का गांधी की हत्या के विरोध में एक जुलूस निकला, उस जुलूस में वे कहते थे कि हम बदला लेंगे. सरदार ने इसका जिक्र करते हुए बदला लेने की भावना को गांधी की विचारधारा के विरुद्ध करार देते हुए कहा, ‘बदला लेना हमारा काम नहीं है. अगर आपको कोई चीज मालूम हो तो तुरंत हुकूमत को बता देना चाहिए कि इस प्रकार के लोग काम करते हैं.’ पटेल का संदेश साफ था कि हत्यारी और पागलपन वाली विचारधारा से सरकार को निपटना है और किसी भी हालत में खून खराबा नहीं होना चाहिए.

गांधी की हत्या के बाद देश भर में गोडसे के विचारधारा के लोगों ने जश्न मनाया था. गोडसे भले ही मर गया है, लेकिन उसकी विचारधारा आज भी नहीं मरी है. अभी भी भारत में तमाम ऐसे लोग हैं, जो उस हत्यारे को महान मानते हैं और उसका महिमामंडन करते हैं. उसे वैचारिक और देशभक्त करार देते हैं. तमाम तरह की कहानियां भी बनाई गई हैं कि एक हिंदूवादी महंत ने गोडसे को रिवाल्वर मुहैया कराई थी.

इस समय भाजपा और आरएसएस से जुड़े युवा सरदार पटेल को लेकर दिग्भ्रमित हैं. प्रधानमंत्री मोदी बार-बार अपने भाषणों में ज़िक्र करते हैं और यह जताने की कोशिश करते हैं कि पटेल के साथ नाइंसाफी की गई और संकेतों में कहते हैं कि वह नाइंसाफी जवाहरलाल नेहरू ने की. साथ ही भाजपा समर्थक गांधी को भी आरोपित करते हैं कि उन्होंने अपना उत्तराधिकारी पटेल को नहीं चुना. पटेल के मन में गांधी को लेकर कभी कोई पीड़ा नहीं रही. उन्होंने गांधी के बारे में कहा है, ‘उनका कमजोर बदन था. इतने कमजोर बदन में से जो पतली सी आवाज निकलती थी, वह इतनी जबरदस्त आवाज थी कि वह सीधे हमारे हृदय पर लग जाती थी.’

इस समय आम लोगों के मन में जातीय और धार्मिक घृणा फैली हुई है. इसी तरह की धार्मिक घृणा स्वतंत्रता के समय भी फैली हुई थी और पूरे देश, खासकर सीमावर्ती इलाकों में खून खराबा मचा हुआ था. गांधी की मौत के बाद भारत और पाकिस्तान दोनों देशों के लोग सदमे में थे और धीरे-धीरे खून खराबा बंद हो गया. उस समय पटेल ने कहा था, ‘हमें निश्चय कर लेना चाहिए कि हिंदुस्तान में जितने लोग हैं, सबको हिल मिलकर, भाई-भाई की तरह रहना है. एक दूसरे के साथ घुड़का घुड़की करने से कोई काम नहीं होगा और इस तरह से नहीं करना चाहिए. कोई भी कौम हो, हिंदू हो, मुसलमान हो, सिख हो, पारसी हो, ईसाई हो, सबको यह समझना चाहिए कि यही हमारा मुल्क है. इसी मुल्क, इसी युग में दुनिया में सबसे बड़ा व्यक्ति (गांधी) पैदा हुआ, जिसने हमारी इज्जत दुनिया में बढ़ाई और इतना बड़ी विरासत हमारे सामने रखी, उसे फेंक नहीं देना है बल्कि उसको ज्यादा बढ़ाना है.’ (गांधी जी से हमने क्या सीखा, पेज 162)


शनिवार, 12 अक्तूबर 2024

संघ पर नेहरू की भविष्य वाणी…

 राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अपने सौ वी स्थापना दिवस मनाने की ओर अग्रसर है। २७ सितंबर १९२५ को स्थापित यह संगठन कैसा काम करता है, हिंदू राष्ट्र को लेकर इसकी सोच और संस्कार देने के दावे सब कुछ हम आपको किश्तों में पढ़वायेंगे, कोशिश करेंगे कि आप तक रोज़ कुछ न कुछ पठनीय सामग्री पहुँच सके….

संघ को जानने समझने की कोशिश इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि संघ के अपने दावे है जिसका एक पहलू अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाकर अपने एजेंडे को देश पर थोपना है तो दूसरा दावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के तराज़ू में संस्कार देना ।

शुरुआत देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू की संघ को लेकर की गई भविष्यवाणी से-

आरएसएस की १००वें स्थापना दिवस पर पढ़िए पंडित नेहरू की भविष्यवाणी:

संघ पर नेहरू की भविष्य वाणी…


हमारे पास इस बात के ढेरों सबूत हैं, जिससे यह पता चलता है कि आरएसएस अपने स्वभाव से निजी सेनाओं के जैसा संगठन है, जो नीति और संगठन के मामले में साफ़ तौर पर नाज़ियों का अनुसरण कर रहा है....

मुझे जर्मनी में शुरू हुए नाज़ी आंदोलन की कुछ जानकारी है. इसने अपने ऊपरी दिखावे और सख्त अनुशासन से लोगों को आकर्षित किया. इसमें बड़ी संख्या में लोअर मिडिल क्लास के नौजवान पुरुष और महिलाएं शामिल थे. यह लोग सामान्य तौर पर बहुत ज़्यादा योग्य नहीं थे और न ही इनके लिए जीवन में बहुत सारी संभावनाएं थीं. इसलिए ये लोग नाज़ी पार्टी की ओर मुड़ गए, क्योंकि इसकी नीति और प्रोग्राम बहुत सरल थे. वह नेगेटिव थे और उनमें दिमाग़ के सक्रिय इस्तेमाल की कोई ज़रूरत नहीं थी. नाज़ी पार्टी ने जर्मनी को तबाह कर दिया और मुझे बिल्कुल संदेह नहीं है कि अगर यह प्रवृत्तियां इसी तरह भारत में बढ़ती रहीं, तो वह भी भारत को बहुत ज़्यादा नुक़सान पहुंचाएंगी. इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत फिर भी रहेगा, लेकिन उसे बहुत गहरा घाव लग जाएगा और इससे उबरने में लंबा वक़्त लगेगा.'

शुक्रवार, 11 अक्तूबर 2024

उस रावण से इस रावण तक…

 उस रावण से इस रावण तक…


इतिहास में एक निर्णय होता है, राम को राज्य नहीं वन मिलेगा राम खुशी-खुशी स्वीकार कर लेते हैं इस निर्णय को।


मां का विलाप, जन‌मानस के आंसू और चित्रकूट आते आते भाई का प्यार,  कोई भी राम के वन जाने के निर्णय में बाधा नहीं बनता है। तब कहीं जाकर अत्याचारी उस रावण का अंत होता है जो महान शिवभक्त थे, महान विद्वान ब्राम्हण भी थे ।


तब जाना था कि जीवन में उसूल कितना जरूरी है। उसूल हमें मनुष्यता की ओर ले जाते है। सिहांन्त या उसूल के बग़ैर व्यक्ति जानवर बन जाता है।


तब से हर साल रावण दहन की परम्परा चल पड़ी। और यह अब सिर्फ परम्परा बनकर रह गई। उसूल ग़ायब होते चले गए यानी मनुष्यता भी! और अब इस टेक्नालाजी के युग ने तो संवेदना भी छिनने लगी है, तब रावण दहन की परम्परा को ढोने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं।


हर साल रावण दहन के पहले अपने भीतर के रावण को मारने की सीख के साथ सोशल मीडिया में पोस्ट चेप दिया जाता है, सिर्फ पोस्ट… ।


इन पोस्ट में न संवेदना होती है न मनुष्यता की आहट ही सुनाई देती 

है। राम-रावण के युद्ध भी उसूलों के साथ हुए। लेकिन उस युद्ध के बाद  उसूलों से किनारे करने और अपनी सुविधानुसार हर क्षेत्र में परिभाषा गढ़े जाने लगे। किसी झूठ को सौ  बार बोलकर सच का एहसास कराने जैसे छद्‌म के इस दौर में राम और रावण को अपने  स्वार्थ के लिए याद किया जाने लगा। उसूल थे तब बेईमान भी किसी का नमक नहीं खाते थे, फिर  यह भी दौर आया जब कहा जाने लगा कि ईमानदारी तो बेईमानों में ही बची है।

  अजेय रावण को राम हरा सके तो सिर्फ अपने उसूल से । और इसे धर्म या संस्कृति से जोड़ने की प्रमुख वजह उन उसूलों को रेखांकित करना था जो आदमी को मनुष्यता की और ले जाता है ।


लेकिन रावण के अत्याचार को बड़ा बताने के फेर में हमने राम के उसूलों  को इतना छोटा कर दिया कि रावण का अत्याचार  ही याद रह गया, राम के उन उसू‌लों को विस्मृत  कर दिया गया जो रावण के अंत का प्रमुख  हथियार रहा। 

प्रेम और युद्ध में सब जायज को इतना प्रचारित किया गया जो हमें मनुष्यता से दूर कर गया।

इसलिए कब रावण वध केवल परम्परा निभाने, राजनीति साधने तक सीमित हो गया। और घर-घर में रावण ने अपनी जगह बना ली।

लेकिन इससे भी एक कदम आगे बढ़कर भौतिक सुख - सुविधा के लोभियों ने युद्ध में सब जायज़  की प्रवृति को इस तरफ़ दिलो दिमाग़ पर थोप दिया कि ख़ान पान पहनावा को लेकर कुतर्क भी हमे मनुष्यता से दूर करने लगे । और यह सब राजनैतिक गिरोह बंदी कि अपनी लंका थी जो सत्ता और स्वर्ण से निर्मित करने का मोह…!

बिटिया अपने ही घरों में, परिवार में कितनी सुरक्षित है यह बताने की जरूरत नहीं है तब उस रावण के दहन से लेकर आज तक मनुष्यता की कसौटी  को अब  एआई या रोबोट के साथ मापने की कोशिश में उसूलों का समाप्त होना रावण को और विकराल बनाता है । तो राम को लाने का दावा एक नये प्रकार के रावण को जन्म देता है। 

जहां हर कोई अपने घर को सोने की लंका बनाने आमदा है। अजेय बनना चाहता है, सुख सुविधा बटोरने में उसूलों से समझौता करता है । 

तब भी रावण दहन की शुभकामनाएँ क्या दी जानी चाहिए।


गुरुवार, 10 अक्तूबर 2024

महादेव सट्टा वाले सौरभ की गिरफ़्तारी से उड़े होश…


 महादेव सट्टा एप के कर्ता धर्ता सौरभ चंद्राकर की गिरफ़्तारी की खबर ने छत्तीसगढ़ की राजनीति में उथल पुथल मचा दिया है, कहा जाता है कि सौरभ के कांग्रेस और बीजेपी के बड़े नेताओ से सीधे संबंध हैं।

इस मामले में भूपेश बघेल पर जब आरोप लगे थे तो कांग्रेस ने भी पत्रकार वार्ता लेकर सौरभ के साथ संबंध को लेकर बीजेपी के दिग्गज नेताओ रमन सिंह, प्रेम प्रकाश पांडे, रमेश बैस सहित कई नेताओ की तस्वीर जारी की थी ।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़ जूस दुकान खोलकर सौरभ चंद्राकर ने बहुत बड़े काम को अंजाम दे दिया। छोटे स्तर से लेकर बॉलीवुड और नेता, अधिकारी तक इसमें शामिल पाये गये। अब महादेव ऐप का मुख्य सरगना सौरभ चंद्राकर दुबई में गिरफ्तार कर लिया गया है। ED के अनुरोध पर जारी इंटरपोल के रेड कॉर्नर नोटिस के तहत गिरफ्तारी की कार्यवाही की गई है। प्रवर्तन निदेशालय (ED), विदेश मंत्रालय (MEA) और गृह मंत्रालय (MHA) की संयुक्त कार्रवाई में उसे पकड़ा गया है। यूएई के अधिकारियों ने भारत सरकार और CBI को सौरभ चंद्राकर की गिरफ्तारी के बारे में जानकारी दी है। सभी औपचारिकताओं को पूरा करने की प्रक्रिया पूरा करने के बाद “प्रोविजनल अरेस्ट” पर उसे भारत लाया जायेगा। जल्द ही वह भारत की जमीन पर होगा।

महादेव बेटिंग ऐप का मुख्य सरगना सौरभ चंद्राकर भिलाई शहर का रहने वाला है। उसके पिता नगर निगम में पंप ऑपरेटर थे और सौरभ एक जूस की दुकान चलाता था। वर्ष 2019 में वो दुबई गया और उसने यहां अपने एक दोस्त रवि उप्पल को भी बुलाया। इसके बाद उसने वहां महादेव ऐप लॉन्च किया और ऑनलाईन सट्टा खिलाना शुरू कर दिया। फिर धीरे-धीरे ऑनलाईन सट्टा बाजार का बड़ा नाम बन गया। वहीँ राज्य चुनाव के समय शुभम सोनी का विडियो भी वायरल हुआ, जिसने एप्प का मुखिया खुद को बताया और उसने तत्कालीन मुख्यमंत्री को पैसे पहुचाने की भी बात कही।

दरसअल, महादेव बेटिंग ऐप को कई वेबसाईट के जरिए ऑपरेट किया जाता है, यह अलग-अलग नामों से भी चलाई जाती है। इस बेटिंग ऐप में लोगों को पैसे लगाने के लिए कहा जाता है। महादेव बुक की वेबसाईट के जरिए देश में पोकर, कार्ड गेम्स, क्रिकेट, बैडमिंटन, टेनिस, फुटबॉल के मैच पर पैसे लगाए जाते हैं। हर जुए की तरह इस ऐप में भी लोग ज्यादा कमाई करने के लालच में पैसे लगाते हैं।


21 अक्टूबर, 2023 को ईडी ने इस मामले में अपनी पहली चार्जशीट दाखिल की, जिसमें सौरभ चंद्राकर और रवि उप्पल सहित 14 आरोपियों को नामजद किया गया है। जांच एजेंसी ने अपराध की 41 करोड़ रुपये की आय को अस्थायी रूप से कुर्क किया है। प्राथमिक प्रमोटरों में एक प्रमुख व्यक्ति रवि उप्पल को प्रवर्तन निदेशालय के कहने पर इंटरपोल द्वारा जारी रेड कॉर्नर नोटिस के बाद दुबई पुलिस ने गिरफ्तार किया गया है। इसके अलावा, ईडी ने विभिन्न शहरों में हवाला ऑपरेटरों से जुड़े कई परिसरों पर छापे मारे हैं, जिसके परिणामस्वरूप 417 करोड़ रुपये की संपत्ति कुर्क हुई है। कई बैंक खाते सीज करवाये गये है और कईयों की जानकारी निकाली गई है।


महादेव बेटिंग ऐप मामले में पिछले साल बॉलीवुड के कई सेलिब्रिटी, सिंगर्स, एक्टर और कॉमेडियन ED के राडार पर थे। इन सेलिब्रिटीज का नाम इस ऐप को को-प्रमोटर सौरभ चंद्राकर के साथ रिश्ते होने की वजह से सामने आए थे। ED के मुताबिक, सौरभ चंद्राकर की शादी में इवेंट मैनेजमेंट कंपनी को हवाला के जरिए 112 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया था। वहीं, होटल की बुकिंग के लिए 42 करोड़ रुपये की रकम नगद के जरिए भुगतान किया गया था। सरकार ने इस बेटिंग ऐप पर बैन लगाने से पहले 2023 में कुल 138 ऑनलाईन बेटिंग ऐप और 94 डिजिटल लोन ऐप पर बैन भी लगाया था। वहीँ महादेव एप की कई वेबसाइटें भी ब्लॉक की गई, लेकिन फिर भी यह अब तक जारी है।

बुधवार, 9 अक्तूबर 2024

मोदी का काम - संघ का नाम

 मोदी का काम - संघ का नाम 


पिछले दो दिनों से, यानी हरियाणा चुनाव के परिणाम के बाद से ही अचानक, हरियाणा की जीत को लेकर उठते सवालों के बीच यह खबर बड़े मीडिया घरानों की तरफ से उछाली जा रही है कि हरियाणा में संघ ने बाजी पलट दी।


कल तक हर जीत का श्रेय मोदी को देने वाली मीडिया का इस सूर के मायने क्या है । जबकि संघ प्रमुख मोहन भागवत बग़ावती सूर में थे।

कल तक यानी चुनाव परिणाम के एक दिन पहले तक संघ प्रमुख मोहन भागवत की नाराजगी की खबरें अचानक गायब कर मोदी के समर्थन में स्वयं सेवकों को हरियाणा में कूदा देने का मतलब जानने  की कोशिश होगी ही चाहिए ?


संघ को श्रेय देने  की वजह के बाद जो सवाल उठ रहे है उनमें से 

पहला सवाल - क्या संघ को श्रेय देकर ईवीएम की कथित गड़बड़ी के मुद्दों से ध्यान भटकाने की कोशिश की जा रही है ताकि मोदी सत्ता पर ईवीएम को लेकर लगने वाले आरोप को कमतर किया जा सके। 

दूसरा सवाल - हरियाणा की जीत से ताकतवर बने मोदी को भाजपा अध्यक्ष बनाने में मनमानी से रोका जा सके ?

ये दोनों सवाल का जवाब आप सोचें और तय करें कि आख़िर  हर चुनाव के पहले नाराजगी का शिगुफा और जीत पर पीठ थपथपाने  के खेल के बीच ईवीएम में गड़‌बड़ी की शिकायतों का इस खबर से कितना संबंध है कि संघ के सोलह हज़ार स्वयंसेवकों ने बाजी पलट दी।

हम शीघ्र ही आपको इस सवाल का जवाब देंगे…

मंगलवार, 8 अक्तूबर 2024

हरियाणा और साँई बाबा

 पता नहीं बेटा - 2



बेटा - पिताजी, हरियाणा में मोदी ने फिर जादू चला दिया..


पिताजी- हाँ बेटा, 12 फीसदी वोट बढ़ने के बाद भी कांग्रेस सत्ता से दूर रह गई।


बेटा - फिर गाँव-गांव से कपड़े फाड़ने, भाजपाईयों को भगाने की खबर क्या थी, पिताजी?


पिताजी - पता नहीं बेटा ?

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बेटा. साई बाबा को मंदिरों से हटा रहे है…


पिताजी- हाँ बेटा हिन्दुवादियों को यह पसंद नहीं आ रहा।


बेटा- तो फिर क्या अब ये हिन्दूवादी बतायेंगे कि किसकी पूजा करना है


पिताजी - पता नहीं बेटा?

रविवार, 6 अक्तूबर 2024

पता नहीं बेटा ! -१

पता नहीं बेटा !


बेटा - क्या इस बार संघ प्रमुख मोहन भागवत भाजपा मैं अपना आदमी बिठाकर ही रहेंगे ।

पिताजी - हाँ बेटा चर्चा तो यही है 

बेटा- पिताजी, आख़िर भागवत को मोदी से इतनी नाराज़गी क्यों है, जबकि मोदी ने संघ को भरपूर खाद-पानी दिया, संघ का का जगह जगह कार्यालय भी बनवाया।

पिताजी- पता नहीं बेटा ।

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बेटा - बलात्कारी राम रहीम ने भाजपा को जीताने की अपील की है।


पिताजी - हाँ बेटा, इसे लेकर भाजपा की थू-थू  भी हो रही है।


बेटा - पिताजी, आख़िरकार भाजपा को बलात्कारियों से इतना प्रेम क्यों है


पिताजी - पता नहीं बेटा।

शनिवार, 5 अक्तूबर 2024


 

सत्ता से समृद्धि...


कभी राजनीति समाज सेवा का सबसे सशक्त माध्यम हुआ करता था । सादा जीवन उच्च विचार के मूलमंत्र से अभिभूत राजनीति में आने वाले की सेवा भाव देखते ही बनती थी । कांग्रेस हो या भाजपा, समाजवादी हो या कम्यूनिष्ट सबके लिए समाज सेवा प्रथम लक्ष्य रहा । ऐसे कितने ही उदाहरण रहे जब इस देश में नेताओं ने राजनैतिक सुचिता के लिए सत्ता की कुरसी को लात मारने से भी परहेज नहीं किया । खुद छत्तीसगढ़ में बैठी रमन सरकार की पार्टी में ही अटल-आडवानी से लेकर कई नाम लोगों को जुबानी याद हैं जिन्होंने राजनैतिक सुचिता के लिए अपना सब कुछ होम कर दिया । लेकिन क्या अब इसी पार्टी में ऐसा हो रहा है । भाजपा ही क्यों किसी भी पार्टी में ऐसा नहीं हो रहा है । अपराधियों को संरक्षण से लेकर खुद भ्रष्टाचार में डुबे लोग सत्ता का केन्द्र बने हुए है और ऐसे लोग बड़ी बेशर्मी से राजनैतिक सुचिता, ईमानदारी की बात करते नहीं थकते । 
सत्ता के साथ बुराई के घालमेल को स्वाभाविकता की चासनी में पिरोने में भी किसी को शर्म नहीं आती और न ही अपने लिए समृद्धि का टापू बनाने से ही इन्हें कोई दिक्कत होती है । तभी तो छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में शिक्षा-स्वास्थ के अभाव को नजर अंदाज कर नई राजधानी के नाम पर समृद्धि का टापू खड़ा कर दिया जाता है । इस टापू के एक-एक रास्ते के लिए रोशनी का ऐसा इंतजाम किया जाता है ताकि बिजली विहिन गांव की तरफ कभी ध्यान ही न जाए । 
मंत्रियों व अधिकारियों के बैठने के कमरों की भव्यता इतनी बढ़ा दी जाती है कि एक आम आदमी इस चकाचौंध में अपनी पीड़ा व्यस्त करने की हिमामत न कर सके । 
इस भव्यता पर गांधी के विचार पर चलने वाले कांग्रेसियों को भी इसलिए फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वे भी कतार में है । 
ऐसे में राजनीति समाज सेवा का माध्यम की बजाय कार्पोरेट सेक्टरों की भव्यता की तरह व्यवसाय का जरिया बन गया हो तो भला किस पार्टी को आपत्ति होगी ? क्योंकि दूकानें तो किसी न किसी की चलनी ही है और जनता ही ठगी जायेगी । इस राजधानी ने ऐसे बहुत से लोगों को राजनीति में आते ही करोड़ पति अरबपति बनते देखा है जिनकी औकात दो कौड़ी की भी नहीं रही । जिनके घर दो टाईम का चूल्हा बमुश्किल से जलता था वे आज इस शहर के दान दाता बने है । जिनके खुद के मकान नहीं थे वे सैकड़ो एकड़ के मालिक है और जिनकी औकात एक पाव पीने की नहीं थी ओर आधा पाव का पैसा मिलाने शाम से ही टकटकी लगाए बैठे होते थे वे आज सबसे महंगी शराब ही नही पिलाते बल्कि अपने बेटे की शादी भी इतनी भव्यता से करते है कि सब देखते रह जाए । 
सत्ता से आई इस समृद्धि का यह सफर राजनीति को किस मुकाम तक ले जायेगा यह तो पता नहीं लेकिन एक बात तय है कि जनता की हाय लेकर की गई कमाई का एक बड़ा हिस्सा या तो बिगडै़ल औलाद उड़ा देते हें या फिर डाक्टर ले जाते हैं । 
जियो और जीने दो की संस्कृति से ओत प्रोत छत्तीसगढ़ में राज्य बनते ही जो परिवर्तन आया है उसकी कल्पना किसी ने नहीं की रही होगी । सत्ता से आ रही समृद्धि ने संवेदनहीनता को तो बढ़ाया ही हैे नैतिकता और राजनैतिक सुचिता पर भी चोंट की हैे । 
बेलगाम नौकर शाह और बढ़ते भ्रष्टाचार ने इस नये नवेले राज्य के विकास में रोड़ा अटका रहे हैं तो इसकी वजह जनप्रतिनिधियों की तामसी प्रवृति है जो वातानुकूलित कक्ष से ऐसे बुनियाद रखना चाहती है जिसका रास्ता विकास नहीं विनाश की ओर जाता है । क्या भाजयुमों के युवा सम्मेलन में समृद्धि का तामझाम सत्ता के रास्ते से नहीं आया है । और सत्ता की समृद्धि से विकास की सोच नहीं खुद की एय्याशी का बंदोबस्त ही होता है...

शुक्रवार, 4 अक्तूबर 2024

जलेबी की फ़ैक्ट्री और ट्रोलर गैंग की कुंठा

 जलेबी की फ़ैक्ट्री और ट्रोलर गैंग की कुंठा


हरियाणा में राहुल गांधी ने जलेबी की फैक्ट्री क्या बोला, ट्रोलर गैंग बिलबिलाते बाहर आ गये, और वॉट्साप यूनिवर्सिटी में कापी पेस्ट कर अपने वॉल पर चेपने लगे।

न तो इन्हें तथ्य और तर्क से लेना देना है और न ही इसमें सामाजिक, सांस्कृतिक व्यापारिक या व्यवहारिक ज्ञान ही होता है  , बस उन्हें नफरत का खेल खेलना है

ऐसा नहीं है कि ट्रोलर पक्ष सिर्फ हिन्दुवादी संगठनो में ही शामिल है, मुस्लिमवादी से लेकर हर पक्ष में यह गैंग आपको मिल जायेगा, ज्ञान के स्तर पर कुंठित और दरिद्र लोगों का यह समूह कॉपी-पेस्ट करते समय यह भी नहीं सोचता कि इससे उनकी अपनी ही बेइज्जती हो रही है, घोर बेइज्जती ।

राहुल गांधी के जलेबी की फ़ैक्ट्री वाले बयान को मिम्स और चुटकुलों के जरिये मजाक उड़ा‌ने वालों की बुद्धि पर तरस इसलिए भी आता है क्योंकि  जिसे वे अपने माई-बाप बताकर कॉपी पेस्ट करते है वह सांस्कृतिक राष्ट्र‌वाद का दावा करते नहीं थकता ।

अचानक बिलबिलाते लोग जलेबी की खेती वाले मिम्स बनाकर कहने लगे कि जलेबी तो हलवाई की दूकान में बनता है न कि फैन्ही में।

पर इन कोपी पेस्ट वाले ट्रोलरों को क्या पता कि हलवाई अपनी दूकान के लिए मिठाई या जलेबी बनाते है,  वे इन निर्माण स्थलों को कारखाना या फैक्टरी ही कहते है, सिर्फ़ हलवाई ही नहीं बड़े बड़े टेलरिंग शॉप वाले भी जहाँ अनेको दर्जी बिठाकर सिलाई करवाते है उसे भी सिलाई कारख़ाना या फ़ैक्ट्री ही कहते है। मिक्चर फैक्ट्री, मिठाई कारख़ाना यह आम बोलचाल में है। यही रायपुर के बड़े प्रतिष्ठित  मिठाई दुकान वाले जहाँ उनकी मिठाइयाँ जलेबी और नमकीन बनती  उसे कारख़ाना या फ़ैक्ट्री ही कहते हैं, पेठा कारख़ाना या फ़ैक्ट्री तो इसी शहर में चर्चित है।

अब इन लोगो को मिलने वाले ज्ञान के संस्कार केंद्र को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद कह देने भर से संस्कारी तो होगा नहीं…।

गुरुवार, 3 अक्तूबर 2024

बलात्कारी भाजपाई हो तो प्रदर्शन करना भी गुनाह

 बलात्कारी भाजपाई हो तो प्रदर्शन करना भी गुनाह.


2014 के बाद जिस नये भारत का दावा किया गया था उस भारत में क्या  बलालारियों की जाति और धर्म देखकर सजा का प्रावधान है। क्या भाजपाई बलात्कारी हो तो उसे पैरोल में भी छोड़ा जायेगा और उसका स्वागत सत्कार भी होगा और क्या ऐसे बलात्कारियों के खिलाफ प्रदर्शन करना गुनाह है।

यह सवाल अब इसलिए बड़ा होने लगा है क्योंकि बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय ने विश्वविघालय कैम्पस में बलात्कार करने वाले भाजपाईयों के खिलाफ प्रदर्शन करने वाले  13 छात्र-छात्राओं को तीन माह के लिए  अनुशासनहीनता के नाम पर निलंबित कर दिया है।

इस मामले को लेकर विपक्ष मोदी और योगी सरकार पर हमलावर है। लेकिन इस दौर में जिस तरह से बड़े  लक्ष्य के  नाम पर सत्ता , बलात्कारियों को संरक्षण दे रही है उसने बेशर्मी की सभी हदे लांघ दी  है या बेशर्मी की पराकाष्ठा कहा जाए तब भी गलत नहीं होगा।

वैसे भी यदि व्य‌क्ति कित‌ना भी प्रतिभाशाली हो लेकिन वह शासन तंत्र के प्र‌भाव में काम करता है तो सत्ता से उन्हें सम्मान प्राप्त हो ही जाता है।

बनारस विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. सुधीर के जैन को राष्ट्रपति श्री कोविद के हाथों पद्‌म श्री तो मिल ही चुका है, वे बनारस में कुलपति बनने से पहले गांधी नगर गुजरात के प्रोद्योगिकी विश्वविद्यालय के डायरेक्टर भी थे। यानी आप समझ लें।

अब 13  छात्र-छात्राको के निलंबन को लेकर मचे बवाल के बीच कथित बड़े उद्देश्य के लिए किये गये  कुछ कारनामों का  जिक्र ज़रूरी है-

- कठुआ में मासूम बच्ची के बलालारियों का सम्मान

- गुजरात में बिल्किस बानो के दर्जन भर बलात्कारियों  की समय पूर्व रिहाई और सम्मान

- देश का नाम रौशन करने वाली बेटियो के यौन शोषण के आरोपी बृजभूषण शरण सिंह को संरक्षण और उनके बेटे को सांसद की टिकिट

- बलात्कारी राम रहीम को दर्जन भर से अधिक बार पैरोल पर रिहाई

ये बड़े काम है बाकि देश भर में ऐसे कई काम चल ही रहे हैं !


ताजा मामला जग्गी वासदेव को सुत्री कोर्ट से करवाए।

बुधवार, 2 अक्तूबर 2024

शक्ति स्वरूपा जगदम्बा..

 


प्रतिवर्ष दुर्गोत्सव मनाया जाता है। गांव, शहर, मोहल्ले और यहां तक कि घर-घर में माँ के हर रूप की पूजा होती है। चौक चौराहों पर माता की प्रतिमा स्थापित किए जाते हैं। मंदिरों में ज्योति कलश व जंवारा स्थापित ही नहीं होते बल्कि माता की सेवा में ढोलक के थाप पर गीत गूंजते हैं। मेहमूद या फैज़ल के संगीत की थाप पर डांडिया की गूंज आकाश में दूर-दूर तक सुनाई पड़ती हैं। याद किया जाता है माँ के स्वरूप को, याद किया जाता है माँ की महिमा और भारतीय संस्कृति तथा उत्सव की वजह को।
भारतीय जीवन में नारी सा पूज्यनीय कोई और नहीं है। यही वजह है कि कई प्रांतों में माता-पिता आज भी अपनी पुत्री का चरण स्पर्श करते हैं और विवाह पश्चात उनके घर का अन्न-जल ग्रहण नहीं करते। नारी पूज्यनीय है, देवी है और उनकी शक्ति का सर्वत्र गुणगान करते नहीं थकते। नारी सावित्री बनकर अपने पति का जीवन लाने यमराज से लड़ जाती है। राधा बनकर पूरी सृष्टि में प्रेम का संचार करती है, मीरा बनकर वह सब कुछ त्याग करने तैयार रहती है तो रानी लक्ष्मी बाई बनकर देश को आजादी दिलाने तत्पर हो जाती है, वह कृष्ण की मां बनकर यशोदा मैय्या हो जाती है तो राम की मां बनकर कौशल्या माता बन जाती है, नारी में मां का स्वरूप अवर्णित है। मां के दूध से सिर्फ जीवन नहीं मिलता वह लहु में घुलकर हमारे भीतर शक्ति का संचार करती है। शक्ति हमारे भीतर है, धर्म हमारे भीतर है। धर्म हमें राह दिखाता है और शक्ति इस राह की कठिनाई को दूर करती है।  शक्ति हमारा विश्वास है। विश्वास का प्रतीक गणेश जी है इसलिए हम हर साल गणेशोत्सव भी मनाते हैं। वे विध्नहर्ता हैं, हमारा विश्वास है। यही विश्वास लिये हम अपने पूर्वजों का आशीर्वाद लेने के बाद माता की शक्ति को ग्रहण करते हैं। विश्वास के बाद शक्ति ही हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। शक्ति का दुरुपयोग न हो, मां यही तो सिखाती है।
शक्ति के अनेक रूप है इसलिए वह महामाया है, वह शक्तिशाली होते हुए भी शीतल है इसलिए छत्तीसगढ़ में गांव-गांव में शीतला माता विराजती हैं। पूरे नौ दिन माता की सेवा में गीत गाये जाते हैं, वह जननी है इसलिए जंवारा बोया जाता है। उत्सव हमारे प्राण वायु है, उत्सव हमें एक होने की प्रेरणा देता है। उत्सव हमें समझाता है जीव मात्र एक है, इसलिए माता का वाहन सिंह है। हम फल पुष्प चढ़ाते हैं, उपवास रखते हैं, सिर्फ फलाहार करते हैं। यह उत्सव हमें सबक देता है कि ईश्वर और प्रकृति के सामने सब एक हैं। मनुष्य को बचाना है तो प्रकृति को बचाना जरूरी है। इसलिए देवी-देवताओं ने अपने वाहनों, पूजा अर्चना में प्रकृति को जोड़कर रखा।
आज़ादी के बाद हमें संभलना था। इन उत्सवों के माध्यम से हमें सबको जोड़कर चलना था। मंदिर में हीरे-मोती चढ़ाने वाले भी पहुंचते हैं और खाली हाथ दर्शन करने वाले भी आते हैं। देवी-देवताओं ने कभी भेद नहीं किया। परन्तु भेद करना हमने शुरू किया। हमारे स्वार्थ ने मानव-मानव में अंतर किया। यह अंतर मिटना चाहिए। छत्तीसगढ़ की नारी बलशाली है। वह खेतों में भी उतनी ही सिद्धत से काम करती है जितना वह जंवारा विसर्जन के लिए समर्पित होती है। यहां बेटियों में भेद नहीं है, यहां कोख में बेटियां नहीं उजाड़ी जाती। इसलिए छत्तीसगढ़ महतारी है। महतारी यानी मां, मां यानी जननी। जननी भेद नहीं करती बल्कि वह कमजोर बच्चों पर ज्यादा ध्यान देती है।
मां की माया अपरंपार है। इसलिए वह महामाया है। नई पीढ़ी यह सब नहीं जानती। इसमें इनका दोष नहीं है। हमने ही इन्हें नहीं बताया। विदेशीपन की दौड़ शुरु कर दी। इस आधे अधुरे दौड़ में न वह विदेशी ही बन सका न ही अपनी संस्कृति और संस्कार से ही परिचित हो सका। वह विज्ञान की जाल में उलझ गया। उसे वही ठीक लगा जो       विज्ञान कहता है। परन्तु विज्ञान वही कहता है जो वह जानता है। विज्ञान आस्था को नहीं जानता। कण-कण में भगवान को वह अभी भी ठीक से नहीं जान सका। इसलिए नई पीढ़ी दुर्गोत्सव तो मना रहा है परन्तु विदेशी तौर तरीकों से। ऐसे में न संस्कार बचेगा न संस्कृति। सब गड़बड़ हो जायेगा।
आधा अधूरा रिश्ता या समझ हमेशा ही तकलीफ देता है। आज वहीं हो रहा है। जरूरत है तो काम ले लो वरना प्रवेश पर ही पाबंदी लगा दो। ईश्वर पाबंदी से परे है यह सब जानते हैं परन्तु जाति धर्म की खाई चौड़ी हो गई है। हम जगत जननी जगदम्बा का उत्सव तो मना रहे हैं परन्तु जननी की सहनशीलता से कुछ नहीं सीख रहे हैं।
उत्सव हमारी संस्कृति है। मनुष्य को मनुष्य से जोडऩे का माध्यम है। उन्हेंं समझने का साधन है। उत्सव से राष्ट्रीय स्वरूप विकसित होता है। देवी-देवताओं का प्रकृति से लगाव हमें नई सीख देती है। ताकि हम संस्कार के नए बगीचे तैयार कर सकें। परन्तु क्या ऐसा हो रहा है? हम उत्सव मना तो रहे हैं, अपने तौर-तरीकों से। जगत जननी जगदम्बा के आगे संगीत की थाप पर डांडिया खेला जा रहा है। ढोलक की थाप पर सेवा गीत गाये जा रहे हैं, पर श्रद्धा और विश्वास कम होता जा रहा है। शक्ति का दुरुपयोग हो रहा है, पर माँ सब चुपचाप देख रही है। महिषामर्दन होगा... जरूर होगा...।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

निपटने - निपटाने के खेल में अफसरों की मुश्किलें बढ़ी

निपटाने में दो मिनट नहीं लगेगा - मोहन 

 निपटने - निपटाने के खेल में अफसरों की मुश्किलें बढ़ी



 वैसे तो राजनीति में निपटने और निपटाने का नया नहीं है। लेकिन छत्तीसगढ़ की राजनीति में इन दिनों यह खेल सुर्ख़ियों में तब आया जब रायपुर के कद्‌दावर माने जाने वाले बृजमोहन अग्रवाल को सांसद की टिकिट दी गई।

 कहने को तो इसे प्रमोशन कहा जा रहा है लेकिन मंत्री पद के आगे सांसद की हैसियत को आम आदमी भी जानता है,  तो भला मोहन सेठ के नाम से चर्चित बृजमोहन अग्रवाल के समझ में क्यों नहीं आता, इसलिए 6 माह मंत्री रह सकने के तमाम दावे की कलई केविनेट की भरी बैठक में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय ने ही खोल दी। और बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकाले गये की तर्ज पर मन मसोसकर इस्तीफ़ा देना पड़ा।

लेकिन निपटने - निपटाने का खेल अमी ख़त्म नहीं हुआ था बल्कि शुरुआत आरंग के महानदी पुल में हुए कथित मॉब लिंचिग  से तेज हो गया। मोहन सेठ ने इस  मामले में अपने ही सरकार को घेरने को लेकर बवाल मचा तो मोमबत्ती बुझाने वाले अपमानजनक बीडियों ने इसे हवा दे दी।

और कहा जा रहा है कि इस निपटने - निण्टाने को खेल इसलिए खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है क्योंकि इसे सलाहकार ही हवा दे रहे है। हालांकि इस खेल में नुकसान किसका होगा कहना मुश्किल है लेकिन उसके चलते अफ़सरों की मुश्किले जरूर बढ़ गई है। और गुस्सा अफ़सरों पर ही निकलने लगा है।

इसका ताजा उपहरण जे चार दाने स्कूल में आयोजित स्वच्छता की पाठशाला बाले कार्यक्रम में तब देखने को मिला जब मोहल सेठ एक अफसर को ही कह दिया कि प्रोटोकॉल हमे न सिखाओ, निपटाने में दो मिनट लगेंगे।

मीडिया रिपोर्ट की माने तो मोहन सेठ का यह ग़ुस्सा अकारण नहीं था दरअसल अफ़सरों की प्राथमिकता मंत्री होते है ऐसे में अफ़सर ये नहीं समझ पाये कि ये सिर्फ़ सांसद बस नहीं है बल्कि ख़ुद को इससे भी बड़े समझने वाले हैं ।