शनिवार, 5 जुलाई 2025

राष्ट्रवाद के नाम पर घिनौना व्यापार…

 राष्ट्रवाद के नाम पर घिनौना व्यापार…


वैसे तो संघ के चीन के रिश्ते की कहानी नई नहीं है और न ही मोदी राज में चीन से व्यापारिक रिश्ते, कल तक जो लोग कांग्रेस सरकार में चीनी समानों को छाती पीट पीट कर कोस रहे थे वे भी चुप है और अब विदेश मंत्री जयशंकर प्रसाद के बेटे ध्रुव जयशंकर को मिले चीनी फंड पर भी चुप हैं तो उन्हें अपने भीतर की दोगलाई को परखना चाहिये…

जिस देश में ‘राष्ट्रवाद’ सुबह की चाय से लेकर रात की थाली तक परोसा जाता हो, वहां यह सुनना कि विदेश मंत्री एस. जयशंकर के बेटे ध्रुव जयशंकर के थिंक टैंक को चीन से 1.76 करोड़ रुपये की फंडिंग मिली — यह न सिर्फ विस्फोटक है, बल्कि उस झूठ की तिजोरी खोलता है जिसमें पूरा राष्ट्र बंदी बना दिया गया है।

सवाल यह नहीं है कि ORF को चीनी दूतावास से पैसा क्यों मिला।

सवाल यह है कि जब यही आरोप कांग्रेस के राजीव गांधी फाउंडेशन पर लगे थे, तब पूरा सत्ता-वृत्त उसे 'देशद्रोह' की आड़ में लाठीचार्ज तक ले गया था।

और अब?


अब जब उसी भाजपा सरकार के विदेश मंत्री का बेटा एक ऐसे थिंक टैंक में कार्यरत है, जिसे खुद चीन ने फंड किया है — तो क्या वह पैसा 'देशहित' में गिना जाएगा?


क्या अब चीनी फंडिंग भी 'आत्मनिर्भर भारत' का हिस्सा है?


ORF यानी ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन — न सिर्फ भारत की विदेश नीति के विमर्श का एक प्रमुख केंद्र है, बल्कि सत्ता-तंत्र से उसका गहरा जुड़ाव है। 2016 में चीनी दूतावास, कोलकाता से 1.25 करोड़ रुपये और फिर 2017 में 50 लाख रुपये का दान — न यह छुपाया गया, न ही इसका कोई खंडन आया।


पर चुप्पी गूंज रही है।


ध्रुव जयशंकर ORF के US Initiative के डायरेक्टर हैं। उनके पिता एस. जयशंकर भारत के विदेश मंत्री हैं। भारत-चीन सीमा पर तनाव के बीच, इसी ORF को चीन से पैसा मिला — और इस बात पर कोई विशेष संसद समिति नहीं बैठती, न कोई न्यूज़ चैनल हेडलाइन बनाता है।


क्यों?


क्योंकि सत्ता को “राष्ट्रद्रोह” का प्रमाणपत्र बेचने में केवल वही चेहरे दिखते हैं जिनके नाम मुस्लिम, दलित या असहमति के ध्वजवाहक हों। उमर खालिद हो, नजीब हो, शरजील हो या फिर जीएन साईनाथ जैसे किसान पक्षधर पत्रकार — सबके लिए राष्ट्रवाद की कसौटी अलग है। मगर जब पूंजी, सत्ता, और विदेश नीति की गलियों में सत्ताधारी दल के बेटे को फंडिंग मिलती है — तब राष्ट्रवाद मौन साध लेता है।


यह केवल दोहरा मानदंड नहीं है। यह लोकतंत्र के गाल पर एक चुपचाप पड़ा तमाचा है।


और मज़ेदार विडंबना ये है कि उन्हीं दिनों भाजपा के प्रवक्ता कांग्रेस पर आरोप लगा रहे थे कि उन्होंने “चीन से पैसा लिया है” और “राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाला” है।


भाजपा समर्थक थिंक टैंक ‘Vivekananda International Foundation’ के संदर्भ में भी फंडिंग का मुद्दा उठा, लेकिन वहाँ सब खामोश हैं। डोभाल जैसे एनएसए के संस्थापक रहते हुए, क्या उस फाउंडेशन को भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों से जुड़े “डोनेशन” नहीं मिले?


तो फिर कौन तय करेगा कि राष्ट्रभक्ति क्या है?

क्या उसकी परिभाषा अब यह है कि —

जब आप विपक्ष में हों तो विदेश से पैसे लेना देशद्रोह,

लेकिन सत्ता में हों तो वही विदेशी पैसा 'कूटनीतिक सहयोग'?


भारत को तय करना है:

राष्ट्रवाद को हम गाली बनायें या गहराई।

क्या राष्ट्र का अर्थ सिर्फ “हमारा झंडा” है, या “हमारा ज़मीर” भी?


अगर सचमुच राष्ट्र सर्वोपरि है,

तो फिर ORF की फंडिंग पर वही सवाल पूछे जाने चाहिए जो RGF से पूछे गए थे।

नहीं तो यह राष्ट्रवाद नहीं — एक घिनौना व्यापार है।(साभार)

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