लोकसभा के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। भाजपा कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दलों की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा टिकी है। जनता का समर्थन हासिल करने सभी पार्टियां अपने अपने ढंग से लुभाने की कोशिश में लगी है। इसके साथ ही एक दूसरे के पापों को गिनने का खेल भी शुरु हो गया है और इस खेल में भाषा की सारी मर्यादाएं लांघी जा रही है। बड़़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों की भाषा मोहल्लों के गुण्डों बदमाशों की भाषा से भी बदतर हो चली है।
2014 में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह से देशव्यापी माहौल अन्ना और रामदेव बाबा ने बनाया था उसका फायदा भाजपा को मिला था लेकिन जिस लोकपाल आंदोलन के चलते भाजपा को सत्ता मिली थी सरकार बनते ही वह भी भूल गई। लोकपाल नहीं बना क्योंकि कोई भी नेता नहीं चाहता कि लोकपाल बने। यही हाल अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर में धारा &70 और देश में एक समान कानून का है। नरेन्द्र मोदी की सरकार की ऐसी कोई उलब्धि नहीं है जिसकी वजह से इस सरकार की पीठ थपथपाई जाये। मोदी सरकार ने उन्हें मुद्दों को हवा दी जिसका राजनैतिक फायदा मिले। गाय, तीन तलाक और आर्थिक आरक्षण को लेकर बखेड़ा खड़ा किया गया लेकिन गंगा की सफाई को लेकर कोई खास काम नहीं हुआ। गंगा की चिंता करने वाले बाबा ्अग्रवाल जी को तो अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में बेरोजगारी और किसान के मुद्दे को हाशिये पर डाला गया तो नोटबंदी और जीएसटी की मार को लोग अब तक नहीं भूले हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मोदी सरकार पुन: सत्ता में आने के लिए क्या करेंगी।
बेरोजगारों और किसानों के घोर निराशावादी के इस दौर में सरकार को वेलफेयर का काम भी बोझ लगने लगा है। हालांकि किसानी इस चुनाव का बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है लेकिन क्या मुद्दा चुनाव तक रहेगा? और यदि चुनाव तक यह मुद्दा रहा तो क्या भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे को बना रहने देगी?
दरअसल भाजपा भले ही राजनीति सुचिता की दुहाई देते हुए विकास की बात करती है लेकिन हकीकत तो यही है कि वह इसके सहारे सत्ता को कायम नहीं रख पायेगी इसलिए ुउसकी कोशिश होगी कि अयोध्या, हिन्दू मुस्लिम ही मुद्दा बने ताकि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा मिल सके।
ऐसे में बरेली के उभरते हुए युवा कवि मध्यम सक्सेना की यह पंक्ति याद आती है-
नजर वालों की कहां रब पे नजर है साहेब
मगर जो रब है उसकी सबपे नजर है साहेब
जिस सियासत का खुद का ईमान ही नहीं उसकी
आपके और मेरे मजहब पे नजर है साहेब।
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