पत्रकारिता पर हावी होती वैचारिकता...
एक जमाना था, पत्रकारों का जबरदस्त रुतबा था। पारे-मोहल्ले में ही नहीं शहरभर में पत्रकारों की धाक होती थी। शासन-प्रशासन का रुह कांपता था। तब पत्रकारिता का मतलब देश समाज की सेवा करना, शासन-प्रशासन की खामियों को उजागर करना। मूलभूत सुविधाएं आम लोगों को कैसे मिले, जनप्रतिनिधियों की बेरुखी पर खबरें प्रकाशित होती थी। तब भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं थी जो कांग्रेस-भाजपा या वामदलों से प्रभावित होते थे परन्तु खबरों पर यह कभी नहीं लगा कि वे खबरों में अपने विचारों को थोप रहे हैं। वैचारिक खबरों के लिए अलग से पेज होते थे।
परन्तु अब जमाना बदल गया है। पत्रकारिता में ऐसे लोग हावी होने लगे हैं जो अपने विचार हर हाल में खबरों के रुप में प्रकाशित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। राजनैतिक दलों के ये पट्टाधारी पत्रकार न केवल खबरों को तोडऩे मरोडऩे लगे हैं बल्कि इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि खबरों से उनके राजनैतिक दलों या राजनैतिक आकाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। ऐसे लोगों को अपने आकाओं से बंधई बंधाई रकम भी मिलते हैं।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में आये इस परिवर्तन से पत्रकारों की विश्वसनियता पर सवाल तो उठा ही है। खबरों से भरोसा भी टूटा है। कलम पर हावी होती वैचारिक पत्रकारिता की एक बड़ी वजह अखबारों का व्यवसायिकरण के अलावा सरकारी विज्ञापन भी है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना मुकाम रहा है। स्व. माधवराव सप्रे से लेकर स्व. मधुखेर की बात करें या स्व. बबनप्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, आसिफ इकबाल से लेकर वर्तमान में पत्रकारिता के मूल्यो के प्रति चिंतित पत्रकारों की कमी नहीं रही। इनमें से कई पत्रकार संघ या कांग्रेस के विचारों से प्रभावित भी रहे परन्तु उन्होंने अपने विचारों को खबरों पर नहीं लादा। किसी खबर में नहीं लगा कि इसमें जरा भी पूर्वाग्रह है। खबरों को लेकर समान दृष्टिकोण की वजह से वे आम लोगों में सम्मान कायम रख सके।
परन्तु 90 के दशक के बाद जिस तरह से व्यवसायिकता हावी होने लगी उसका दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आने लगा। खबरों पर व्यववसायिकता तो हावी होने ही लगी। राजनैतिक दलों ने भी अपने हिंतों के लिए पत्रकारों पर डोरा डालने का उपक्रम शुरु किया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद तो अखबारों पर सरकारी विज्ञापनों का असर साफ दिखने लगा। सत्ताधारी की खबर देखने वाले पत्रकारों की रहन सहन की स्थिति में बदलाव साफ महसूस किया जाने लगा। सरकार को लेकर खबरें कैसी और कौन सी जानी चाहिए इस पर तो नजर रखी ही जानी लगी। किसे कौन सा बीट दिया जाए ताकि अखबारों को भरपूर विज्ञापन मिले। इसका भी ध्यान रखा जाने लगा। राजनैतिक दलों का पट्टाधारी पत्रकारों में अचानक वृद्धि होने लगी। ये न केवल अपने दलों के हित में विज्ञप्तियां बनाने लगे। बल्कि विरोधियों के हर कदमों से अपने राजनैतिक आकाओं को आगाह करने लगे। एक दल के नेता का प्रेस कांफ्रेंस की खबर विरोधी दल के नेता के पास कांफ्रेंस समाप्त होने के पहले ही पहुंचने लगा। इसके एवज में नगद गिफ्ट सब चलने लगा है।
जब पहले वाले दिन रहे तो यह दिन भी नहीं रहने वाला है। परन्तु वर्तमान में जिस तरह से पट्टाधारियों का वजन बढ़ा है। वह हैरान कर देने वाला है। क्षीण होती वैचारिक पत्रकारिता के इस दौर में अब भी ऐसे पत्रकार हैं जो पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि मूल्यों की रक्षा में लगे है। परन्तु व्यवसायिकता के इस दौर में पट्टाधारियों की बढ़ती आमद चिंतनीय तो है कि इसके परिणाम भी भयावह हो सकते है।
एक जमाना था, पत्रकारों का जबरदस्त रुतबा था। पारे-मोहल्ले में ही नहीं शहरभर में पत्रकारों की धाक होती थी। शासन-प्रशासन का रुह कांपता था। तब पत्रकारिता का मतलब देश समाज की सेवा करना, शासन-प्रशासन की खामियों को उजागर करना। मूलभूत सुविधाएं आम लोगों को कैसे मिले, जनप्रतिनिधियों की बेरुखी पर खबरें प्रकाशित होती थी। तब भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं थी जो कांग्रेस-भाजपा या वामदलों से प्रभावित होते थे परन्तु खबरों पर यह कभी नहीं लगा कि वे खबरों में अपने विचारों को थोप रहे हैं। वैचारिक खबरों के लिए अलग से पेज होते थे।
परन्तु अब जमाना बदल गया है। पत्रकारिता में ऐसे लोग हावी होने लगे हैं जो अपने विचार हर हाल में खबरों के रुप में प्रकाशित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। राजनैतिक दलों के ये पट्टाधारी पत्रकार न केवल खबरों को तोडऩे मरोडऩे लगे हैं बल्कि इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि खबरों से उनके राजनैतिक दलों या राजनैतिक आकाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। ऐसे लोगों को अपने आकाओं से बंधई बंधाई रकम भी मिलते हैं।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में आये इस परिवर्तन से पत्रकारों की विश्वसनियता पर सवाल तो उठा ही है। खबरों से भरोसा भी टूटा है। कलम पर हावी होती वैचारिक पत्रकारिता की एक बड़ी वजह अखबारों का व्यवसायिकरण के अलावा सरकारी विज्ञापन भी है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना मुकाम रहा है। स्व. माधवराव सप्रे से लेकर स्व. मधुखेर की बात करें या स्व. बबनप्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, आसिफ इकबाल से लेकर वर्तमान में पत्रकारिता के मूल्यो के प्रति चिंतित पत्रकारों की कमी नहीं रही। इनमें से कई पत्रकार संघ या कांग्रेस के विचारों से प्रभावित भी रहे परन्तु उन्होंने अपने विचारों को खबरों पर नहीं लादा। किसी खबर में नहीं लगा कि इसमें जरा भी पूर्वाग्रह है। खबरों को लेकर समान दृष्टिकोण की वजह से वे आम लोगों में सम्मान कायम रख सके।
परन्तु 90 के दशक के बाद जिस तरह से व्यवसायिकता हावी होने लगी उसका दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आने लगा। खबरों पर व्यववसायिकता तो हावी होने ही लगी। राजनैतिक दलों ने भी अपने हिंतों के लिए पत्रकारों पर डोरा डालने का उपक्रम शुरु किया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद तो अखबारों पर सरकारी विज्ञापनों का असर साफ दिखने लगा। सत्ताधारी की खबर देखने वाले पत्रकारों की रहन सहन की स्थिति में बदलाव साफ महसूस किया जाने लगा। सरकार को लेकर खबरें कैसी और कौन सी जानी चाहिए इस पर तो नजर रखी ही जानी लगी। किसे कौन सा बीट दिया जाए ताकि अखबारों को भरपूर विज्ञापन मिले। इसका भी ध्यान रखा जाने लगा। राजनैतिक दलों का पट्टाधारी पत्रकारों में अचानक वृद्धि होने लगी। ये न केवल अपने दलों के हित में विज्ञप्तियां बनाने लगे। बल्कि विरोधियों के हर कदमों से अपने राजनैतिक आकाओं को आगाह करने लगे। एक दल के नेता का प्रेस कांफ्रेंस की खबर विरोधी दल के नेता के पास कांफ्रेंस समाप्त होने के पहले ही पहुंचने लगा। इसके एवज में नगद गिफ्ट सब चलने लगा है।
जब पहले वाले दिन रहे तो यह दिन भी नहीं रहने वाला है। परन्तु वर्तमान में जिस तरह से पट्टाधारियों का वजन बढ़ा है। वह हैरान कर देने वाला है। क्षीण होती वैचारिक पत्रकारिता के इस दौर में अब भी ऐसे पत्रकार हैं जो पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि मूल्यों की रक्षा में लगे है। परन्तु व्यवसायिकता के इस दौर में पट्टाधारियों की बढ़ती आमद चिंतनीय तो है कि इसके परिणाम भी भयावह हो सकते है।
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