कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में है, आलोचना सहन नहीं करने की बढ़ती प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार पत्रकार ही हुए है। स्वयं की सत्ता स्थापित करने और पैसों की भूख ने पत्रकारिता को ऐसे अंधेरे कमरे में कैद कर लिया है जहां से रोशनी की किरणें भी बेहद बारिक हो चली है। जहां से निकलना मुश्किल नजर आ रहा है।
हमने इसी जगह पर ट्रोल आर्मी के तेवर और इससे होने वाले खतरे को लेकर विस्तार दिया था लेकिन इस दौर में पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौती खड़ा हुआ है। झूठ की चादर इतनी उजली दिखाई देने लगा है कि सच को लेकर भ्रम होने लगा है।
प्रो सरकारी तंत्र से जिस तरह से मीडिया के सच को ट्रोल करना शुरु किया उससे भ्रम तो फैला ही मीडिया की विश्वसनियता को भी कटघरे में खड़ा करने का काम किया और यह सब इतने सलीके से किया गया कि वह आदमी भी मीडिया को गरियाने लगा जिसे अपने रोजी रोटी के अलावा किसी से मतलब नहीं है। मीडिया न हुआ गरीब की लुगाई हो गई जिसके साथ आप जब चाहे कुछ कर लो।
ऐसा नहीं है कि यह सब हाल के वर्षों में हुआ लेकिन चंद सालों में इसे धारदार तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा। दरअसल बगैर संवैधानिक अधिकार के मीडिया ने जिस तरह से राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के गठजोड़ पर प्रहार करना शुरु किया तब से ही इन तीनों के गठजोड़ ने अपनी ईज्जत बचाने मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार शुरु किया।
नेताओं, अफसरों और माफियाओं के गठजोड़़ ने जिस तरह से देश में लूट खसोट की परिपाटी शुरु की उस पर मीडिया ने ही बाधा डाली कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से लुट खसोट में बाधाओं को बर्दाश्त करना इन गठजोड़ के लिए कठिन काम था इसलिए साजिशन मीडिया की विश्वसनियता पर न केवल सवाल उठाये गये बल्कि पत्रकारों की हत्या तक की जाने लगी है।
अपनी छवि चमकाये रखने मीडिया की छवि को बिगाडऩे के लिए जिस तरह का षडय़ंत्र किया गया वह शोध का विषय है। ऐसे गठजोड़ ने सत्ता के दम पर सबसे पहले ऐसे मीडिया घराने को अपने जाल में फंसाया जो पैसों के दिवाने थे। उन्हें भय और प्रलोभन से ऐसी खबरों के लिए मजबूर किया गयाजो उनके हितों की रक्षा तो करे ही उनकी छवि को भी चमकाने का काम करे। इसके बाद आपराधिक कमाई से मिले धन से स्वयं का मीडिया हाउस खड़ा करने की कोशिश में ऐसे पत्रकारों को अपने जाल में फंसाया जिसके नाम का इस्तेमाल शार्पशूटर की तरह कर ले।
इन सबके बाद भी जब मीडिया को जब वे प्रभावित नहीं कर पाये तब फेंक न्यूज और ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। हालात को इस तरह से वे संचालित करने लगे कि आम आदमी की जरुरतों को नजरअंदाज किया जा सके और आम आदमी अपनी जरुरतों की बजाय उन मुद्दों में भटक जाए जिससे उनका ध्यान सरकार की तरफ से हट जाए और वे जाति, धर्म और देशभक्ति में उलझ कर रह जाए।
जन सरोकार के मुद्दे उठाने वालों को इतना ट्रोल किया जाए कि उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया जाए। उसे धर्म विरोधी, देश विरोधी साबित कर दिया जाए। राजनीति, अपराधियों और अफसरों के इन गठजोड़़ की वजह से पत्रकारिता के इस नाजुक दौर में जिस तरह से खबरों की विश्वसनीयता संकट में है वह देश के हित में कतई नहीं है। मीडिया हाउस तो पहले ही बंटे थे और अब पत्रकार भी बंटे नजर आने लगे है।
हमने इसी जगह पर ट्रोल आर्मी के तेवर और इससे होने वाले खतरे को लेकर विस्तार दिया था लेकिन इस दौर में पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौती खड़ा हुआ है। झूठ की चादर इतनी उजली दिखाई देने लगा है कि सच को लेकर भ्रम होने लगा है।
प्रो सरकारी तंत्र से जिस तरह से मीडिया के सच को ट्रोल करना शुरु किया उससे भ्रम तो फैला ही मीडिया की विश्वसनियता को भी कटघरे में खड़ा करने का काम किया और यह सब इतने सलीके से किया गया कि वह आदमी भी मीडिया को गरियाने लगा जिसे अपने रोजी रोटी के अलावा किसी से मतलब नहीं है। मीडिया न हुआ गरीब की लुगाई हो गई जिसके साथ आप जब चाहे कुछ कर लो।
ऐसा नहीं है कि यह सब हाल के वर्षों में हुआ लेकिन चंद सालों में इसे धारदार तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा। दरअसल बगैर संवैधानिक अधिकार के मीडिया ने जिस तरह से राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के गठजोड़ पर प्रहार करना शुरु किया तब से ही इन तीनों के गठजोड़ ने अपनी ईज्जत बचाने मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार शुरु किया।
नेताओं, अफसरों और माफियाओं के गठजोड़़ ने जिस तरह से देश में लूट खसोट की परिपाटी शुरु की उस पर मीडिया ने ही बाधा डाली कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से लुट खसोट में बाधाओं को बर्दाश्त करना इन गठजोड़ के लिए कठिन काम था इसलिए साजिशन मीडिया की विश्वसनियता पर न केवल सवाल उठाये गये बल्कि पत्रकारों की हत्या तक की जाने लगी है।
अपनी छवि चमकाये रखने मीडिया की छवि को बिगाडऩे के लिए जिस तरह का षडय़ंत्र किया गया वह शोध का विषय है। ऐसे गठजोड़ ने सत्ता के दम पर सबसे पहले ऐसे मीडिया घराने को अपने जाल में फंसाया जो पैसों के दिवाने थे। उन्हें भय और प्रलोभन से ऐसी खबरों के लिए मजबूर किया गयाजो उनके हितों की रक्षा तो करे ही उनकी छवि को भी चमकाने का काम करे। इसके बाद आपराधिक कमाई से मिले धन से स्वयं का मीडिया हाउस खड़ा करने की कोशिश में ऐसे पत्रकारों को अपने जाल में फंसाया जिसके नाम का इस्तेमाल शार्पशूटर की तरह कर ले।
इन सबके बाद भी जब मीडिया को जब वे प्रभावित नहीं कर पाये तब फेंक न्यूज और ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। हालात को इस तरह से वे संचालित करने लगे कि आम आदमी की जरुरतों को नजरअंदाज किया जा सके और आम आदमी अपनी जरुरतों की बजाय उन मुद्दों में भटक जाए जिससे उनका ध्यान सरकार की तरफ से हट जाए और वे जाति, धर्म और देशभक्ति में उलझ कर रह जाए।
जन सरोकार के मुद्दे उठाने वालों को इतना ट्रोल किया जाए कि उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया जाए। उसे धर्म विरोधी, देश विरोधी साबित कर दिया जाए। राजनीति, अपराधियों और अफसरों के इन गठजोड़़ की वजह से पत्रकारिता के इस नाजुक दौर में जिस तरह से खबरों की विश्वसनीयता संकट में है वह देश के हित में कतई नहीं है। मीडिया हाउस तो पहले ही बंटे थे और अब पत्रकार भी बंटे नजर आने लगे है।
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