सोमवार, 28 दिसंबर 2020

लोकतंत्र का पाठ !

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा अपने विरोधियों पर तंज कसना नई बात नहीं है ऐसे में उनका यह कहना कि कुछ लोग उन्हें लोकतंत्र का पाठ सीखा रहे हैं, हैरान कर देने वाला है। क्योंकि बीते 6 सालों में जिस तरह से देश के हालात हुए हैं उसके बाद भी कोई लोकतंत्र का पाठ पर तंज कसे तो यह जरूरी हो जाता है कि लोकतंत्र को नये सिरे से समझने की कोशिश हो।

क्या वर्तमान सत्ता के लिए सिर्फ चुनाव कराना ही लोकतंत्र नहीं रह गया है? देश के प्रधानमंत्री ने क्या किया है यह देखना भी जरूरी है। बीते 6 साल में देश के इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार है? चुनाव दर चुनाव जीतना और सत्ता हासिल करने के लिए छल प्रपंच करना ही लोकतंत्र है तो फिर लोकतंत्र का पाठ नये सिरे से पढऩे की जरूरत है।

लोकतंत्र की विद्वानों ने कई तरह की परिभाषा दी है, उन परिभाषाओं में प्रधानमंत्री कहां फिट बैठते हैं इस पर भी बहस की जा सकती है। जबकि लोकतंत्र को लेकर जितने भी परिभाषाएं गढ़ी गई हैं उनमें जनता का जनता के लिए शासन ही महत्वपूर्ण है और जनता जब लोकतंत्र में महत्वपूर्ण है तब सत्ता क्यों अपने को महत्वपूर्ण समझती है। सारी योजनाएँ सत्ता के अनुकूल ही क्यों बनती है?

यह सवाल इसलिए उठाए जा रहे हैं क्योंकि वर्तमान सत्ता के लिए चुनाव ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में लोकतंत्र का पाठ पढ़ाना और उसे याद रखना कहां महत्वपूर्ण रहेगा।

सवाल जब लोकतंत्र का है तो यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं है, सिर्फ जनता के हित के फैसले भी लोकतंत्र नहीं है, देश को सुदृढ़ बनाना भी लोकतंत्र का हिस्सा है न कि सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर अपनी रईसी बरकरार रखना।

हमने पहले भी लिखा है कि सत्ता की ताकत ने इस देश में लोकतंत्र का किस कदर रोका है। सत्ता ने कैसे अपनी जीत पर खुद को ईश्वर समझ लिया है। और जनमानस की भावनाओं की अनदेखी की है।

हम अपने पाठकों को याद दिला दें कि आजादी के बाद इस देश में जितने भी प्रधानमंत्री बने हैं उनमें से सभी ने इस देश को सुदृढ़ करने, इस देश में रोजगार देने और संसाधनों का देश हित में इस्तेमाल करने सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की है। बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव और रिफार्म के दौर में भी नरसिन्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह के दौर में भी दर्जनों सार्वजनिक उपक्रम बनाये गये लेकिन नरेन्द्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपने 6 साल की सत्ता में कोई भी सार्वजनिक उपक्रम नहीं बनाये बल्कि तेईस सार्वजनिक उपक्रमों को बेच भी दिया।

ऐसे मे कोई लोकतंत्र के पाठ को लेकर जब सवाल खड़ा करे तो यह साबित नहीं करता कि लोकतंत्र का पाठ पढऩे की जरूरत है। 

फिर इस मजाक को जम्हूरियत का नाम दिया 

हमें डराने लगे हैं वो हमारी ताकत से

-नोमान शौक

मुझसे क्या लिखानी है कि अब मेरे लिये

कभी सोने, कभी चांदी के कलम आते हैं

-बशीर बद्र


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