बिस्तरा है न चारपाई है,
सत्ता हमने खूब पाई है।
आदमी जी रहा है मरने को
क्या यही इस सत्ता की सच्चाई है।।
क्या सत्ता सचमुच बड़ी मुश्किल से हाथ आने वाली दुधारु गाय हो चुकी है जिसे केवल दुहना है। जनता तो अपना बचाव कर रही ही लेगी, अपने जीवन के लिए संघर्ष कर ही लेगी। सत्ता की घोर लापरवाही का असर नदियों में बहती लाशें, चिताओं के ढेर, अस्पताल की अव्यवस्था और अब लॉकडाउन में परिवार पालने की समस्या के रुप में सामने आ चुकी है। इतनी त्रासदी देखने के बाद भी सत्ता में बैठे लोगों की प्राथमिकता सेन्ट्रल विस्टा इसलिए है क्योंकि वहां महल जैसे प्रधानमंत्री आवास में इसी कार्यकाल में रहना है।
हालांकि यह रोने का समय नहीं है, हम पर लादी गई मुसिबत से छुटकारा पाने मार्ग ढंंढूने का समय है, रूदन और वेदना के इस दौर में भी जो लोग नफरत की भाषा में प्राणघातक आ लगा रहे हैं वह उनके आदमी होने पर सवाल खड़ा करता है। यह ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास भाषण देने की अद्भूत कला है, मानसिक रुप से सामने वाले व्यक्ति को अस्त-व्यस्त करने की इस अद्भूत कला ने ही उन्हें सत्ता में पहुंचाया है, लेकिन यह समय जागने का है और महानिद्रा में सोए सत्ता को झकझोर देने का है।
न्यायालय ने जिस तरीके से नरसंहार की बात कही है, जिस तरह से नदियों में लाशें बह रही है, जिस तरह से सदन का स्वर आकाश को छूने लगा है यह किसी सत्ता की लापरवाही का पाशविक कार्य है। गांधी और बुद्ध के देश में नफरत का विषवमन से पूरी दुनिया हैरान ही नहीं है बल्कि लोकतंत्र के लिए घातक बता चुकी है।
कोरोना की त्रासदी को पूरी दुनिया ने मोदी सत्ता की लापरवाही कहा है, भारत में हो रही मौतों के लिए केन्द्र को दोषी माना है तब भी महानिद्रा टूटने का नाम नहीं ले रहा है। क्षणभर पहले ही आनंदित होती जिन्दगी का प्रवाह लाशों का रेला बन जा रहा है। इस भयावह त्रासदी से धरती वेदना से चित्कार उठी है, आकाश धुंधला-नीला हो गया है, हवा में सन्नाटा है। लेकिन सत्ता से जुड़े लोग अब भी इस त्रासदी के लिए नए-नए तरीके ढूंढ रहे हैं। शब्दों के जहरीले बम फेंके जा रहे हैं, वह फट भी रहा है और उसके तीक्षण टुकड़े हवा में उड़कर विनाश को आमंत्रित कर रहे हैं।
सिर्फ महीनेभर में कितनी-कितनी जिन्दगियों का अंत, अस्तित्व समाप्त हो गया वेदना पिघले बिना ही जम गई और विरोध के स्वर ऐसे गूंजने लगे मानों हरी-भरी, देवभूमि इस कोरोना से ही नहीं इस सत्ता से भी मुक्त होने तड़प रही है। सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया, अंतिम संस्कार समाज की जिम्मेदारी हुआ करती थई, लेकिन कोरोना ने वह भी छिन ली। मेरी बात सत्ता में बैठे लोगों को बुरी लग सकती है क्योंकि मेरा मानना है सत्ता की पहली जिम्मेदारी थी कि वह अपने कार्यकर्ताओं को लोगों की सेवा में झोंक दे लेकिन सत्ता ने आपदा में अवसर तलाशने की बात कही, तब यह कहना उचित है कि आदमी तो कब का मर गया भीतर केवल जानवर है, जानवर!
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