यह सवाल भले ही छोटा हो लेकिन अब महत्वपूर्ण इसलिए हो गया है क्योंकि भाजपा ने जिसे प्रधानमंत्री बनाया है वह अपनी रईसी में इस तरह डूब गया है कि उसे इस महामारी काल में भी सिर्फ और सिर्फ सत्ता की रईसी और चुनाव जीतने की रणनीति से ही मतलब है।
रोम जल रहा था तब वहां राजा नीरो चैन की बंशी बजा रहा था, इस मिथक के दुहराने की बात हम कभी स्वीकार नहीं कर पाते यदि इस देश में कोरोना का प्रकोप नहीं आता। लेकिन कहते हैं इतिहास अपने आप को दोहराता है! कोरोना के इस बढ़ते प्रकोप के बाद भी यदि सरकार का ध्यान सिर्फ कर वसूली हो तो क्या हमें रावण की कर वसूली को याद नहीं कर लेना चाहिए जो ऋषि-मुनियों से कर के बदले में खून तक निकाल लेता था।
देश की कई राज्यों की सरकारें वैक्सीन को टैक्स फ्री या मुफ्त में देने की मांग कर रही है लेकिन प्रधानमंत्री को केवल टैक्स की पड़ी है। यही वजह है कि बंगाल चुनाव के बाद लगातार पेट्रोल-डीजल की कीमत बढ़ रही है। इस लॉकडाउन के दौर में पेट्रोल-डीजल का ज्यादा उपयोग वही लोग कर रहे हैं जो कोरोना से पीडि़त है, जिन्हें अस्पताल, मेडिकल स्टोर्स जाना है तब कीमतों में लगातार वृद्धि होना क्या उनका खून निचोडऩा नहीं हुआ।
मोदी समर्थकों या भाजपाईयों को यह छोटी बात को बड़ा करने की कोशिश लग सकती है लेकिन यह बेहद ही शर्मसार कर देने वाली बात है। इससे भी बड़ी बात तो किसानों को जीते जी मार डालने की कोशिश है। प्रधानमंत्री ने खाद की कीमत 58 फीसदी बढ़ा दी है। चुनाव के दौरान जारी आदेश की लीपापोती का सच सबके सामने है केवल डीएपी की कीमत सात सौ रुपये बढ़ा दी गई यह खेती के लिए बड़ा संकट है। ऐसे में इसे किसान आंदोलन की प्रतिक्रिया में लिया गया फैसला नहीं तो और क्या कहेंगे।
इस कोरोना के दौर में जब केवल किसान ही देश के आर्थिक तंत्र को ही नहीं जान की रक्षा की है तब इस तरह के फैसले को आप क्या कहेंगे। सेन्ट्रल विस्टा के निर्माण कार्य को आवश्यक सेवा बताकर लॉकडाउन में भी बीस हजार करोड़ फूंकने की कोशिश क्या बेईमानी नहीं है। उसमें भई सबसे पहले प्रधानमंत्री का महल बनेगा और यह 2022 तक इसलिए बना दी जायेगी क्योंकि महल में रहने की मंशा 2024 में पता नहीं पूरी होगी या नहीं।
हैरानी तो इस बात की है कि सेन्ट्रल विस्टा को लेकर जिस तरह से पूरी दुनिया में थू-थू हो रहा है वह भी बेशर्मी से देखा जा रहा है। ऐसे में जब कोरोना काल में प्रधानमंत्री के आपदा में अवसर को अमलीजामा पहनाने वालों को भी शर्म नहीं है तब इसका क्या मतलब है। सवाल कई है लेकिन एक सवाल जो सबसे महत्वपूर्ण है कि क्या संघ के संस्कार इसी तरह के हैं, हालांकि संघ को आज भी संविधान पर विश्वास नहीं है, यह दावा नहीं हकीकत है इसलिए वह हमेशा ही वह दरवाजा चुनती है जिससे वह पकड़ा न जाए। और दोष किसी व्यक्ति पर मढ़ सके। आडवानी की चुप्पी को लेकर भी सवाल है! लेकिन जब सत्ता ही खून चुसने को आमदा हो तो निंदा के अलावा और क्या किया जा सकता है। जरा सोचिए जरुर!
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