अभी महिने भर भी नहीं हुआ है जब केन्द्र की मोदी सरकार ने न्यायालय से कहा था कि सेन्ट्रल विस्टा में बन रहे प्रधानमंत्री के महल (आवास) के लिए पैसे की कोई कमी नहीं है और कोरोना से निपटने, टीकाकरण के लिए पर्याप्त पैसे है लेकिन महिना भी नहीं बीता कि उसने कोरोना से मृत लोगों को मुआवजा के लिए चार लाख नहीं होने का रोना रो दिया।
ऐसे में सवाल खड़ा होता है कि मोदी सत्ता की प्राथमिकता क्या है, सचमुच उसे इस देश की समझ नहीं है या फिर वह इतनी निष्ठुर हो चुकी है कि उसे आम लोगों की तकलीफे से कोई लेना देना नहीं है।
यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि मोदी सत्ता की करतूत से हम देश के लोगों को अनेकों बार परेशानियों का सामना करना पड़ा है, लोगों की बेहिसाब मौते हुई है और कोरोना तो सीधे-सीधे मोदी सत्ता की लापरवाही का नरसंहार साबित हो चुका है। नासमझी और निष्ठुरता को सिलसिलेवार ढंग से देखना हो तो नोटबंदी की लाईने और इसकी वजह से डेढ़ सौ मौतों से शुरु हुआ सफर अब भी जारी है कोरोना को लेकर लापरवाही का नमस्ते ट्रम्प और मध्यप्रदेश में सरकार बनाने का लोभ को कोई कैसे भूल सकता है, फिर अचानक लॉकडाउन की नासमझी भरे फैसले से सड़कों में भूखे-प्यारे चलते मजदूर और सड़कों में उनकी मौत क्या सत्ता की नासमझी और निष्ठुरता नहीं है। दूसरी लहर में मौतों का तांडव, चिताओं की लम्बी लाईन, ऑक्सीजन की कमी, गंगा में बहती लाशे, सार्वजनिक क्षेत्र की बीस कंपनियों को बेच देना, रिजर्व बैंक के रिजर्व फंड का इस्तेमाल और सेन्ट्रल विस्टा, तीन हजार करोड़ की मूर्ति, आठ हजार करोड़ का खुद का विमान, प्रधानमंत्री के काफिले की गाडिय़ों का बदलाव से लेकर मोदी सरकार के किसी भी फैसले को देख लीजिए उसके पीछे सत्ता की नासमझी, लापरवाही और निष्ठुरता ही नजर आयेगी।
तब क्या मोदी सत्ता ने यह जान लिया है या मान लिया है कि हिन्दू-मुस्लिम और राष्ट्रवाद का रोग इतना भयावह है कि वह चार लाख मुआवजा न दे और कुछ भी करे तब भी सत्ता उसकी जाने वाली नहीं है। कोरोना का नरसंहार और कोरोना के मृतकों को चार लाख नहीं देने की बात क्या सत्ता का अत्याचार नहीं है। मोदी सरकार के लिए भले ही चार लाख रुपया कोई मायने नहीं रखता हो लेकिन इस बात को समझना होगा कि जिनके परिवार में कोरोना से मौत हुई है उनके लिए चार लाख रुपए क्या मायने रखते हैं, जिन्होंने ईलाज में लाखों रुपए गंवा देने के बाद भी जान नहीं बचा पाये उनके लिए चार लाख क्या मायने रखते हैं। शायद नरेन्द्र मोदी को परिवार और उसके दुख और परेशानी का अंदाजा नहीं होगा कि उनके लिए चार लाख के क्या मायने है।
ऐसे में सवाल यही है कि अपनी रईसी और अपना अहंकार बरकरार रखने करोड़ों-अरबों रुपए खर्च करने को तैयार सत्ता आखिर चार लाख रुपए के लिए मना क्यों कर रही है जबकि लोकतंत्र में सत्ता तो जनता के हित के लिए बनी होती है।
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