जब देशभर के किसान अपनी मांगों को लेकर जिले से लेकर हर राज्य की राजधानी में अपनी मांगों को लेकर प्रदर्शन कर रहे थे, लोकतंत्र बचाने का नारा लगा रहे थे तब देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राम मंदिर, तीर्थ क्षेत्र और अयोध्या नगरी को सबसे अलग बनाने की योजना बना रहे थे। इसका मतलब साफ है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ये समझते हैं कि चाहे किसान नाराज हो जाये, बेरोजगार नाराज हो जाए, महंगाई चरम पर पहुंच जाए, राम मंदिर निर्माण और हिन्दू-मुस्लिम के सामने कोई भी मुद्दा या जन सरोकार मायने नहीं रखता और वे राम मंदिर के तामझाम के सहारे चुनाव जीतेंगे और इसे कोई रोक नहीं सकता।
तब सवाल यही है कि आखिर किसान आंदोलन कब तक चलेगा, हालांकि सात माह बाद भी किसानों की हिम्मत में कोई कमी नहीं है और वे जान चुके है कि केवल तीन कानूनों की वापसी के मुद्दे पर ही सरकार को नहीं झुकाया जा सकता इसलिए इस बार आंदोलन में तीनों कृषि कानून की वापसी के साथ लोकतंत्र बचाओं का भी मुद्दा जोड़ा गया और आगे जनसरोकार से जुड़े मुद्दे भी किसान आंदोलन का हिस्सा बनेगे तो अचरज नहीं है।
तब क्या मोदी सत्ता ने यह मान लिया है कि आंदोलन का प्रभाव उत्तरप्रदेश के चुनाव में इसलिए नहीं होगा क्योंकि उसने राम मंदिर का निर्माण शुरु कर दिया है और आगे कश्मीर पाकिस्तान और हिन्दू-मुस्लिम का मुद्द जब गहराने लगेगा तो किसानों के मुद्दे गायब हो जायेंगे। हालांकि उत्तरप्रदेश के पश्चिमी उत्तरप्रदेश, अवध और बुदेलखंड के किसान अब जोर-शोर से आंदोलन का हिस्सा बनने लगे है, 26 जून के आंदोलन का हिस्सा तो देश के कमोबेश हर राज्य के किसान बने भले ही कहीं ज्यादा कहीं कम संख्या रही।
पंजाब में भाजपा का वैसे भी कोई वजूद नहीं है और हरियाणा में अभी चुनाव दूर है तब वह ऐसे आंदोलन की अनदेखी भी कर रही है तो इसकी वजह है कि लोगों की याददाश्त बेहद कमजोर है इसलिए वह सत्ता की लापरवाही से कोरोना के नरसंहार, गंगा में बहती लाशे, आक्सीजन की कमी और बेरोजगारी को कैसे याद रखेगी। और जब बड़े-बड़े विद्वानों ने कहा है कि धर्म और राष्ट्रवाद का नशा के आगे कुछ भी मायने नहीं रखता तब राम मंदिर की योजना के सहारे सत्ता में वापसी की उम्मीद को कोई कैसे खत्म कर सकता है।
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