मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर चल रही चर्चाओं में सत्ता का अहंकार, अपराधियों को पनाह, झूठ-नफरत और अफवाह की राजनीति और हिन्दुत्व पर जोर की बात एक बार फिर सामने निकलकर आया है। तब तीन दशक पहले अटल-आडवानी की जोड़ी के चाल चेहरा और चरित्र बदलने की आवाज किसके लिए थी? क्या ये बात संघ के लिए थी या भारतीय जनता पार्टी के लिए थी? क्योंकि जिस तरह की राजनीति वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी ने मोदी-शाह के नेतृत्व में शुरु की है उसका अंत होते फिलहाल तो नहीं दिख रहा है।
तब सवाल यह है कि क्या चाल-चेहरा और चरित्र बदलने की बात क्या केवल जनता को भ्रमित करने का वैसे ही जुमला था जैसे कालाधन और खातों में लाखों चले जाने, पेट्रो-डीजल की कीमतकम कर देने का था। मोदी मंत्रिमंडल के विस्तार को लेकर चल रही बहस में भले ही हटाये गये लोगों को लेकर चर्चा ज्यादा है लेकिन चर्चा इस बात पर होनी चाहिए कि आखिर ज्योतिरादित्य सिंधिया को धूल चटाने वाले के.पी. यादव कहां है, एक दौर था जब विद्याचरण शुक्ल जैसे दिग्गज को हराने वाले रमेश बैस, मोतीलाल वोरा को हराने वाले रमन सिंह को मंत्री बनाया गया था ताकि वहां भाजपा का आधार बना रहे लेकिन लगता है मोदी सत्ता के लिए ये बातें महत्वपूर्ण नहीं है उनके लिए महत्वपूर्ण है स्वयं की ताकत का प्रदर्शन।
तब इस बात का क्या मतलब रह जाता है कि किसे हटाया गया किसे रखा गया क्योंकि पिछले सात सालों में हर क्षेत्र में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह की ही चली है। ऐसे में यदि चेहरा बदलने पर चाल और चरित्र बदलने का भ्रम खड़ा किया जा रहा है तो इस भ्रम को समझना होगा। नहीं तो देश की बदहाली को नारकीय तक जाने से नहीं रोका जा सकता। तीन दशक पहले जिस तरह से पार्टी विद डिफरेंस और चाल चेहरा चत्रि का जुमला फेंका गया था उसका परिणाम क्या हुआ। क्या ऐसा है। संघ और भाजपा का देश में विस्तार हुआ लेकिन न झूठ की राजनीति का खात्मा हुआ न नफरत या अफवाह की राजनीति का ही खात्मा हुआ। हिन्दुत्व के नाम पर अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के उदाहरण आप गिनते थक जायेंगे।
जिस मोहन भागवत ने अपने ज्ञान चक्षु खोलकर एक डीएनए की वकालत की है क्या वे संघ में अपने ही हिन्दू समाज के दलित आदिवासी और पिछड़ों को वह स्थान देंगे जो सम्मानजनक माना जायेगा। सत्ता की भूख के लिए बने मंत्रिमंडल के आरोप को भले ही खारिज कर दिया जाए लेकिन सच तो यही है कि स्वदेशी भी जुमला हो चुका है और मंत्रियों का काम केवल प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के निजीकरण को अमलीजामा पहनाना है तब अमित शाह और सहकारिता की जिम्मेदारी देने का मतलब आला निशाना सहकारिता ही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें