यह तो बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना प्रदेश में सबसे ज्यादा वोट से जीतकर विधायक बनने वाले मोहन सेठ को विधायकी से इस्तीफ़ा देना नहीं पड़ता ।
दरअसल जमीन घोटाले से लेकर भ्रष्टाचार के कई तरह के आरोपों से घिरे मोहन सेठ की उल्टी गिनती तो उसी दिन शुरू हो गई थी जिस दिन नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद की शपथ ली की, लेकिन सेठगिरी के दम पर राजनीति को साधने में माहिर मोहन सेठ इसलिए बचे रहे क्योंकि पिछली बार विधानसमर में भाजपा हार गई और अब जब भाजपा की प्रदेश में सरकार बन गई तो उन्हें सत्ता से किनारे करने सांसद का टिकिट दे दिया गया ।
कैसे कहते भी हैं कि नरेद्र मोदी अपने विरोधियों को आसानी से छोड़ते नहीं है फिर टेबल के नीचे छिपने जैसी स्थिति पैदा करने वाले को वे कैसे छोड़ते !
इसलिए मोहन सेठ को राजनीतिक चाल से ही पीटा गया । मोहन सेठ खून का आँसू बहाकर रह गये ।अभी विधायकी गई है कुछ दिनों में मंत्री पद भी चला जायेगा फिर रह जायेगी सांसदी ।
ऐसे में अब मोहन सेठ की राजनीति का क्या होगा, यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है और शायद यही वजह है कि अब मोहन सेठ बंगले में सबसे ज्यादा गूंज किसी बात की है तो वह है रंगा-बिल्ला और रंगा- बिल्ला के प्रति सेठ के कार्यकर्ताओं का ग़ुस्सा देखते ही बनता है।
इधर इस बात की भी चर्चा है कि मौक़े का फायदा उठाते हुए मुख्यमंत्री दफ़्तर ने भी मोहन सेठ के विभागों की सैकड़ों फाईले रोक रखी है जिसमें तबादला - पदोन्नति की फाईल अधिक है। यानी मंत्री जितने भी रहे, काम कुछ होने वाला नहीं।
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