कबीरदास की यह पंक्ति कभी मीडिया के लिए उदाहरण हुआ करती थी। आलोचना तब भी बर्दाश्त के बाहर की बात थी। परन्तु समय बदला तो मीडिया का रुख भी बदल गया। बाजार वाद में कबीर की यह पंक्ति कहीं खो गई। अखबार कमाई का जरिया बनने लगा और 90 के दशक के बाद इस पेशे में दो तरह के लोग आने लगे। एक वे जो इस पैसे के बाजारीकरण से प्रभावित हुए और व्यवसाय के रुप में इसे देखते थे। दूसरे उस तरह के लोग अखबार या चैनल लांच करने लगे जो गलत सलत ढंग से अनाप शनाप पैसा कमाये और अपने धंधे को संरक्षण देने का उद्देश्य लेकर आये।
छत्तीसगढ़ में भी दूसरे किस्म के लोगों की संख्या अधिक रही जो गलत सलत कामों से पैसा कमाकर अखबार खोलने लगे और शासन प्रशासन में रुतबा बनाने की कोशिश में लग गये। इसमें एक नाम बालकृष्ण अग्रवाल का प्रमुखता से लिया जा सकता है। हालांकि अपने अखबारों को नामचीन पत्रकारों को नौकरी पर रखने के बावजूद ऐसे लोगों के मंसूबों को जनमानस ने कभी तवज्जों नहीं दी परन्तु ऐसे लोगों को मंत्री व प्रशासनिक स्तर पर तवज्जों जरुर मिली।
अभी भी ऐसे लोग अपने कुकर्म छुपाने अखबार का सहारा ले रहे हैं परन्तु जनमानस अच्छे कर्मों को जानते हुए उनके अखबार को तवज्जों नहीं देते। सुबह शाम हो या दोपहर हो या मैग्जिन इस तरह के लोगों को नेताओं और अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है। ये लोग पत्रकारों को अपने निजी फायदे के लिए शार्प शूटर की तरह इस्तेमाल करना जानते है।
इस कड़ी में अब एक और नाम उभर कर सामने आया है। डाक्टरी के पेशे में नाम कमा चुके इस शख्स को पता नहीं कैसे अखबार खोलने की चूल लग गई है। इसे चूल किसने लगाया यह तो वही बता पायेंगे परन्तु अखबार के रुतबे से प्रभावित इस डाक्टर ने अखबार तो शुरु कर रहा है परन्तु इसकी दिक्कतों से वह अनजान है। अखबार खोलना कभी उस कहानी की तरह है जिसमें दुश्मनी भुनाना हो तो किसी को ट्रक खरीदने की सलाह दे दो। जिस तरह से ट्रक खरीदने वाला डीजल पम्प, मिस्त्री से लेकर ड्राइवर तक से त्रस्त रहता है और कर्ज में डूबता चला जाता है ठीक उसी तरह दैनिक अखबार चलाने वाला यदि आज के समय में सौ करोड़ से कम का आसामी है तो उसे कर्ज के जाल में फंसने से कोई रोक नहीं सकता। थोड़े से ऊंच नीच मं वह शासन-प्रशासन के कोपभाजन का शिकार भी होता है। फिर पत्रकारों को काम पर खना वैसे ही कठिन काम है। और यदि सर्कुलेशन कम हुआ तो फिर उसे जनसंपर्क विभाग भी आंख दिखाकर पसीना छुड़ा सकता है।
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