गुरुवार, 31 दिसंबर 2020

सत्ता की ताकत से असहाय किसान...


कृषि कानून को लेकर सरकार और किसानों के बीच सातवें दौर की बैठक का जो नतीजा आया है वह पहले से तय था। क्योंकि सरकार न कृषि कानून को वापस लेने तैयार है और न ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ही कानून बनाने तैयार है। मोदी सत्ता की मंशा स्पष्ट है इसके बावजूद जिन लोगों को लगता है कि तीनों कानून सही है तो वे जान ले कि यदि कानून सही होते तो सरकार स्वयं संशोधन की बात नहीं करती?

सरकार के द्वारा संशोधन की बात करना ही बताता है कि ये तीनों कानून किसानों के लिए नहीं कार्पोरेट जगत के लिए बनाये गए हैं। ऐसे में सरकार केवल वही कर रही है जिससे आंदोलनकारी थक कर वापस चला जाए और चुनाव के समय पूंजी और हिन्दू मुस्लिम के दम पर सत्ता हासिल तो हो ही जायेगी?

सरकार की इस रणनीति को किसान भी समझने लगे है। मोदी सत्ता के आने के बाद जिस तरह से एफसीआई को दिवालिया करने की कोशिश की गई है यह किसी से छिपा नहीं है। एक तरफ एफसीआई को दिवालिया घोषित कर दी जायेगी और दूसरी तरफ इन तीनों कानून से कार्पोरेट जगत को मनमानी की छूट मिल जायेगी।

यह सब कोई जानता है कि व्यापार में मुनाफा ही ईमानदारी है ऐसे में न्यूनतम समर्थन मूल्य पर कौन व्यापारी कहां उपज खरीदता है यह सब जानते हैं फिर भी खरीदी और स्टॉक को लेकर इस तरह का कानून बनाना बेईमानी के अलावा और कुछ नहीं है।

इसलिए जब आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन करना बाजार में लूट की छूट देना है। लेकिन न सत्ता इसे स्वीकार करेगी और जब सत्ता स्वीकार नहीं करेगी तो हिन्दू-मुस्लिम के जहर से जहरीले हो चुके अंधभक्त कब इसे स्वीकार करेंगे।

इसी तरह दूसरा कानून कान्टेक्ट खेती का है। इसमें भी इतनी विसंगति है जो सीधे-सीधे व्यापारियों को ही फायदा पहुंचायेंगे।

हमने कल ही इसी जगह पर नगरनार संयंत्र को लेकर केन्द्र सरकार की नियत पर सवाल उठाये थे कि किस तरह सरकार किसानों की जमीन को अधिग्रहण कर पिछले दरवाजे से पूंजीपतियों की मदद करने आमदा है।

कल की बैठक को लेकर जो खबरें छनकर आ रही हैं उस पर वीरेन्द्र भाटिया लिखते हैं ये आंदोलन तीस दिन और चल गया तो न मोदी का एजेंडा चलेगा न आरएसएस का खेल। क्योंकि यह आंदोलन भाईचारा का सबसे बड़ा मिसाल है और नफरत की जितनी भी पढ़ाई कराई गई है वह सब खत्म हो जायेगी। 

30 दिसम्बर की बैठक में मन्त्री जी ने किसान संगठनो से कहा कि आपने हमारा बहुत नुकसान कर दिया है। इस वाक्य के बाद मीटिंग में तल्खी आ गयी और काफ़ी देर तक गतिरोध बना रहा। गोकि सरकार का नुकसान 26 मौतों से ज्यादा है, गोकी 33 दिन से घर से दूर सड़क पर पड़े किसान देश की सरकार के लिए कोई मायने नही रखते। गोकी किसानों का करोड़ो रुपया जो आंदोलन पर लग रहा है और करोड़ो का उनका पीछे नुकसान  हो रहा है उसकी कोई गणना सरकार की इस नुकसान की गणना में नही है। 

किसान आंदोलन से सरकार बता रही है कि उनका ट्रांसपोर्ट ठप्प है, दिल्ली के आसपास की फैक्टरियाँ बन्द हैं, रोजगार ठप्प है आदि। क्या सच मे यह सरकार इन चीजों से चिंतित होती है? जवाब है कदापि नही। नोटबन्दी और लोकबंदी वाली सरकार पूरा देश बन्द करके भी किसी बन्द होने की परवाह नही करती। सरकार की चिंता दरअसल दूसरे नुक्सान की है।

बुधवार, 30 दिसंबर 2020

यह भी तो एक तरह की चोरी है साहेब!


 

छत्तीसगढ़ के नगरनार स्थित संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने को लेकर बवाल मचा हुआ है। संयंत्र के निजीकरण का चौतरफा विरोध हो रहा है, इसे देखते हुए राज्य सरकार ने नगरनार संयंत्र के निजीकरण के खिलाफ विधानसभा में प्रस्ताव पारित करते हुए इसे खरीदने की घोषणा कर दी है।

दरअसल बीते 6 सालों में जिस तरह से मोदी सरकार ने देश के रत्न माने जाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों को एक के बाद एक बेचा है उसके बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर सार्वजनिक उपक्रम क्यों बेचे जा रहे हैं। यदि कोई उपक्रम घाटे में चल रहा है तो उसे सुधारने की बजाय निजी हाथों को सौंप देना कौन सी शासन व्यवस्था है। फिर सवाल यह भी है कि उन सार्वजनिक उपक्रमों को क्यों बेचा जा रहा है जो फायदे में चल रहे हैं। क्या यह सब सरकार की नाकामी नहीं हैं। सिर्फ 23 सार्वजनिक उपक्रम की नहीं बेचे गए बल्कि रेलवे, एयरपोर्ट से लेकर उन तमाम चीजों को निजीकरण किया जा रहा हैं जो वेलफेयर के तहत आते हैं और यही हाल रहा तो देश के पास अपना कहने को क्या रह जायेगा?

सवाल यह भी नहीं है कि निजीकरण के इस दौर में किसे फायदा पहुंचाने की कोशिश हो रही है। सवाल तो यह है कि इस निजीकरण से किस तरह से सरकार धोखाधड़ी कर रही है? क्या यह सब लोकतंत्र का हिस्सा है। 

सरकारें इसलिए बनाई जाती है ताकि व्यवस्था को सुचारु रुप से चलाया जा सके और आम लोगों के हित में बेहतर सुधार हो लेकिन जिस तरह से मोदी सत्ता ने बीते 6 सालों में आर्थिक सुधार के नाम पर निजीकरण को प्राथमिकता दी है, उससे यह नहीं भूलना चाहिए कि अंग्रेजों ने इस देश पर राज्य इस्ट इंडिया कंपनी के माध्यम से ही शुरु किया था।

ऐसे में नगरनार संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने को लेकर जब विरोध शुरु हुआ तो इसके पीछे का सच भी जानना जरूरी है। और छत्तीसगढ़ के हित की बात करने वाले भाजपाई नेतृत्व क्यों इसका विरोध नहीं कर रहा यह भी समझना होगा।

नगरनार संयंत्र के लिए जमीन किसानों ने दी। जमीन इसलिए दी गई ताकि एक सरकारी संयंत्र लग सके यदि निजी संयंत्र के लिए जमीन मांगी जाती तो बहुत से किसान तैयार ही नहीं होते। एनएमडीसी से अपने भविष्य में बेहतरी आने की उम्मीद में दी गई इस जमीन पर लगने वाले संयंत्र को निजी हाथों में सौंपने की कोशिश न केवल बेईमानी है बल्कि किसानों के साथ धोखाधड़ी भी है।

इसलिए जब केन्द्र सरकार ने इसे निजी हाथों में सौंपने की दिशा में कदम उठाया तभी से इसका विरोध शुरु हो गया।

चूंकि निजी संयंत्र की स्थापना में किसानों से सीधे जमीन लेना आसान नहीं होता इसलिए सरकार यदि जमीन अधिग्रहण के बाद निजी हाथों को उसे सौंप दे तो यह जनता के साथ धोखा नहीं तो और क्या है? यह जमीनों की चोरी नहीं तो और क्या है? ऐसे में स्थानीय भाजपाईयों की  चुप्पी भी उन्हें गर्त में ले जायेगी।

मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

तब लोकतंत्र का पाठ और ज़रूरी हो जाता है

तब लोकतंत्र का पाठ           और जरूरी हो जाता है...

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह का बवाल खड़ा हुआ है उसके बाद सत्ता के अडिय़ल रुख को लेकर कई तरह के सवाल खड़ा होने लगा है, सत्ता और उनसे जुड़े लोगों ने आंदोलन को बदनाम करने की जो रणनीति अपनाई वह पूरी तरह असफल हो गई और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि किसान और भड़क गये। अडानी-अंबानी के बहिष्कार के साथ ही अब जिस तरह से आंदोलन का रुख जा रहा है वह देश के लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है।

निजीकरण के प्रति सरकार की बढ़ती रूचि की एकमात्र वजह सत्ता की रईसी को बरकरार रखने के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि किसान आंदोलन का परिणाम क्या होगा? बल्कि सवाल यह है कि यदि कृषि जैसे क्षेत्रों में भी इस तरह के कानून आ जाए तो किसानों का भला कैसे हो पायेगा? जबकि आज भी किसानो को अपनी उपज समर्थन मूल्य से कम में बेचना पड़ रहा है। जबकि इन्हीं अन्नदाताओं के भरोसे देश मजबूत हुआ है।

भले ही सत्ता और उनसे जुड़े लोग यह तथ्य न माने कि किसानों की वजह से ही भारत की समृति और आत्मनिर्भरता कायम है लेकिन सच यही है। किसानों ने हमेशा ही इस देश को आत्मनिर्भर बनाने में खूब मेहनत की है।

याद कीजिए वह दौर जब कम उपज की वजह से अमेरिका ने अनाज देने के नाम पर दादागिरी की थी तब इन्हीं किसानों के हरित क्रांति कर देश को अनाज के उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भर किया बल्कि निर्यात के माध्यम से विदेशी मुद्रा भी दिलाई। श्वेत क्रांति से लेकर सहकारिता में किसानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जब भी देश में संकट आया है, इन्हीं किसानों ने सबसे अग्रणी भूमिका निभाई है।

लेकिन हैरान करने वाली बात तो यह है कि सरकार कभी सोच ही नहीं सकती कि किसानों के हालात क्यों खराब है जबकि कृषि से जुड़े उद्योग हो या बीमा कंपनियां रातो रात अमीर हो जाते हैं, खाद बीज दवा बेचने वाली कंपनी अरबों कमा लेती है।

सच तो यही है कि जब तक किसानों की उपज का एक-एक दावा समर्थन मूल्य पर नहीं बिकेगा तब तक किसानों की आर्थिक स्थिति सुधर ही नहीं सकती।

ऐसे में प्रधानमंत्री जब लोकतंत्र की पाठ की बात करते है तो उन्हें अपनी पार्टी और अपने सांसद और विधायकों की तरफ झाकनी चाहिए कि कितने बड़े-बड़े अपराधी जमा हो गये हैं। उन्हें खुद की सुरक्षा में होने वाले खर्च की तरफ देखनी चाहिए जो रोज एक करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं।

खुद की सुरक्षा में हर रोज करोड़ों रुपये खर्च करने वाला यदि किसानों को रोज का 17 रुपये देने के बाद उसे सम्मान कहे तो लोकतंत्र का सबक याद करने की किसे जरूरत है। अपराधियों के भरोसे जब सत्ता चलती है, पार्टियां चलती है तो लोकतंत्र का सबक तो याद दिलाना ही पड़ेगा।

संवैधानिक संस्थाओं पर जब सत्ता की नकेल कसते चली जाएगी तो लोकतंत्र क्या सिर्फ नाम का नहीं रह जायेगा। तब भला लोकतंत्र का पाठ को लेकर तंज कसकर तालियां भी बटोरी जायेगी और पूंजीपतियों की गोद में बैठकर चुनाव भी जीते जायेंगे।

ऐसे में लोकतंत्र के लिए शबीना अदिम का यह शेर जरूरी सबक है...

यही बात खुद समझना,

यही बात आम करना।

जो गुरूर में हो डूबा,

उसे मत सलाम करना।


 

सोमवार, 28 दिसंबर 2020

लोकतंत्र का पाठ !

 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के द्वारा अपने विरोधियों पर तंज कसना नई बात नहीं है ऐसे में उनका यह कहना कि कुछ लोग उन्हें लोकतंत्र का पाठ सीखा रहे हैं, हैरान कर देने वाला है। क्योंकि बीते 6 सालों में जिस तरह से देश के हालात हुए हैं उसके बाद भी कोई लोकतंत्र का पाठ पर तंज कसे तो यह जरूरी हो जाता है कि लोकतंत्र को नये सिरे से समझने की कोशिश हो।

क्या वर्तमान सत्ता के लिए सिर्फ चुनाव कराना ही लोकतंत्र नहीं रह गया है? देश के प्रधानमंत्री ने क्या किया है यह देखना भी जरूरी है। बीते 6 साल में देश के इस हालात के लिए कौन जिम्मेदार है? चुनाव दर चुनाव जीतना और सत्ता हासिल करने के लिए छल प्रपंच करना ही लोकतंत्र है तो फिर लोकतंत्र का पाठ नये सिरे से पढऩे की जरूरत है।

लोकतंत्र की विद्वानों ने कई तरह की परिभाषा दी है, उन परिभाषाओं में प्रधानमंत्री कहां फिट बैठते हैं इस पर भी बहस की जा सकती है। जबकि लोकतंत्र को लेकर जितने भी परिभाषाएं गढ़ी गई हैं उनमें जनता का जनता के लिए शासन ही महत्वपूर्ण है और जनता जब लोकतंत्र में महत्वपूर्ण है तब सत्ता क्यों अपने को महत्वपूर्ण समझती है। सारी योजनाएँ सत्ता के अनुकूल ही क्यों बनती है?

यह सवाल इसलिए उठाए जा रहे हैं क्योंकि वर्तमान सत्ता के लिए चुनाव ही महत्वपूर्ण है। ऐसे में लोकतंत्र का पाठ पढ़ाना और उसे याद रखना कहां महत्वपूर्ण रहेगा।

सवाल जब लोकतंत्र का है तो यह भी समझना होगा कि लोकतंत्र का मतलब सिर्फ चुनाव नहीं है, सिर्फ जनता के हित के फैसले भी लोकतंत्र नहीं है, देश को सुदृढ़ बनाना भी लोकतंत्र का हिस्सा है न कि सार्वजनिक उपक्रमों को बेचकर अपनी रईसी बरकरार रखना।

हमने पहले भी लिखा है कि सत्ता की ताकत ने इस देश में लोकतंत्र का किस कदर रोका है। सत्ता ने कैसे अपनी जीत पर खुद को ईश्वर समझ लिया है। और जनमानस की भावनाओं की अनदेखी की है।

हम अपने पाठकों को याद दिला दें कि आजादी के बाद इस देश में जितने भी प्रधानमंत्री बने हैं उनमें से सभी ने इस देश को सुदृढ़ करने, इस देश में रोजगार देने और संसाधनों का देश हित में इस्तेमाल करने सार्वजनिक उपक्रमों की स्थापना की है। बाजारवाद के बढ़ते प्रभाव और रिफार्म के दौर में भी नरसिन्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी से लेकर मनमोहन सिंह के दौर में भी दर्जनों सार्वजनिक उपक्रम बनाये गये लेकिन नरेन्द्र मोदी ऐसे प्रधानमंत्री हैं जिन्होंने अपने 6 साल की सत्ता में कोई भी सार्वजनिक उपक्रम नहीं बनाये बल्कि तेईस सार्वजनिक उपक्रमों को बेच भी दिया।

ऐसे मे कोई लोकतंत्र के पाठ को लेकर जब सवाल खड़ा करे तो यह साबित नहीं करता कि लोकतंत्र का पाठ पढऩे की जरूरत है। 

फिर इस मजाक को जम्हूरियत का नाम दिया 

हमें डराने लगे हैं वो हमारी ताकत से

-नोमान शौक

मुझसे क्या लिखानी है कि अब मेरे लिये

कभी सोने, कभी चांदी के कलम आते हैं

-बशीर बद्र


रविवार, 27 दिसंबर 2020

लोकतंत्र कहां हैं...!

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जम्मू कश्मीर के लोगों के लिए आयुष्मान भारत की घोषणा करते हुए जब कहते हैं कि कुछ लोग मुझे रोज लोकतंत्र का पाठ पढ़ा रहे हैं तब यह सवाल स्वाभाविक रुप से उठता है कि क्या देश का प्रधानमंत्री लोकतंत्र की परिभाषा भूल गये हैं या वे लोकतंत्र को सबसे ज्यादा जानते है।

हमने पहले भी इसी जगह पर लिखा है कि वर्तमान सत्ता के किसान आंदोलन को लेकर जो अडिय़ल रुख अख्तियार किया है वह किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। लोकतंत्र में कानून बनाना या अपने एजेंडे को लागू करना सरकार का ही काम है लेकिन इसका यह कोई मतलब नहीं है कि विरोधियों को पाकिस्तानी या खालिस्तानी करार दिया जाए।

जब से तीनों कृषि कानून के खिलाफ किसानों ने आवाज बुलंद की है तभी से सत्ता और उनसे जुड़े लोगों ने आंदोलनरत किसानों के खिलाफ विषवमन किया है। यहां तक कि इस आंदोलन को विदेशी साजिश तक बता दिया गया। लेकिन सच तो यही है कि ये तीनों कानून को लेकर किसानों के मन में जो शंकाएं हैं उसे दूर करने की कोशिश नहीं की गई।

सरकार को अपनी दिक्कत हो सकती है लेकिन क्या यह सच नहीं है कि किसानों की हालत दिनों दिन बदतर होते जा रही है ऐसे में किसानों को लेकर गठित आयोग कि सिफारिश पर मोदी सत्ता ने पिछले 6 सालों में क्या किया? कुछ भी नहीं न भूमि सुधार न तकनीकी? ऐसे में जब किसानों के लिए मंडी और समर्थन मूल्य महत्वपूर्ण हो जाता है तब उस पर भी कानून नहीं बनाना क्या सरकार का अडिय़ल रुख नहीं है।

तब भला लोकतंत्र के पाठ को लेकर तंज कसना यह साबित नहीं करता कि प्रधानमंत्री को लोकतंत्र का सम्पूर्ण ज्ञान है और वे लोकतंत्र को लेकर कुछ भी नहीं समझना चाहते जबकि यह सर्व सत्य है कि जीवन के हर क्षेत्र में रोज सीखने का अवसर मिलता है चाहे आप उस क्षेत्र के कितने भी बड़े ज्ञानी हो। रोज कुछ कुछ सीखा जा सकता है।

जहां तक लोकतंत्र का सवाल है तो यह कौन नहीं जानता कि आज भी इस देश में लोकतंत्र सत्ता की ताकत और पूंजी के दबाव में पैरों तले रोज रौदा जाता है। जो व्यक्ति कानून के चक्कर में पड़ता है उससे पूछिये कि न्याय उसे कब मिलता है या तो वह टूट जाता है या जीवन का अंतिम सांस ले रहा होता है। इस न्याय को लोकतंत्र का विजय बताकर सत्ता भले ही खुश हो ले लेकिन सच तो यही है कि सत्ता का हर कदम उसके अपनी रईसी को बरकरार रखने में होता हैं।

ऐसे में आम आदमी का दर्द को लेकर मशहूर शायह राजेश रेड्डी के इस शेर की याद आती है-

शाम को जिस वक्त खाली हाथ घर जाता हूं मैं

मुस्कुरा देते हैं बच्चे और मर जाता हूं मैं।।

गुरुवार, 24 दिसंबर 2020

सूरज की चमक पर अंधत्व छाया है

(एक)

सूरज साफ़ चमक रहा है

अपनी ही रौ में

रात का वक़्त नहीं है यह,


फिर भी कुछ लोग अपने

अंधत्व का दोष

थोप रहें हैं अंधेरे पर!


राजा अपने में मग्न है

किसान मज़दूर परेशान 

जनमानस हलकान


ठिठुरता ठंड है

सत्ता का दभ है

मुखौटे पर मुखौटा है 

असली , बदरंग है


(दो)

राजधानी की तो सीमा है 

सत्ता की ताक़त असीमित है

किसानो की हड़ताल है

अंधेरे का आग़ाज़ है 


चैनल है , अख़बार है

लेकिन गीत दरबार है

ट्रोल आर्मी का साथ है 

सच यहाँ बेकार है 


ये क्या हो रहा है 

प्रहरी क्यों सो रहा है


(तीन)

विजय मद में मदमस्त 

ये कौन चीख़ रहा है 

मन की बात वह 

किसे सुना रहा है 


कभी वह हँसता है 

बनावटी रोता है

हर जीत के बाद 

अपनी ही पीठ ठोकता है 


अचानक विजय रथ के 

सामने कोई आता है 

सारथी भी अब 

ज़ोर से चिल्लाता है


दूर करो इसे 

ये विरोधी है 

सिर्फ़ धर्म का नहीं

देश का विरोधी है


पीछे पीछे भागते क़लमकार

अपनी जादुई भाषा बिखेरते है

सत्ता के पैसों से नोच देते हैं 

विरोधियों के चेहरे 


सच दूर चला जाता है 

सत्ता इतराता है 

जय जय की चीत्कार है 

तुम्हारी ही जयकार है 


(अंत)

सार्वजनिक उपक्रम बिके 

रेल बिके , प्लेन बिके 

विरोधियों का पाप भी बिक रहा


नोटबंदी से लॉकडाउन

कृषि बिल का ये क़ानून 

हर फ़ैसले पर मौत 

का साया है 


कोई नहीं सुनता 

कोई ध्यान नहीं देता 

अजब ग़ज़ब फ़ैसले पर

कोई कान नहीं देता 


झूठ की सत्ता है 

सूरज की चमक पर 

अंधत्व छाया है ।


( किसान आंदोलन को समर्पित )

बुधवार, 23 दिसंबर 2020

किसानों की मौत पर बेशर्म ट्रोल आर्मी...

 

किसानों की मौत पर बेशर्म ट्रोल आर्मी...

क्या चुनावों में लगातार जीत के बाद कोई सत्ता इस तरह हो जाती है कि वह किसी की नहीं सुने? या फिर चुनाव में जीत जाने का अर्थ कुछ भी करे? झूठ पर झूठ बोलता जाये और विरोधियों को कटघरे में खड़ा करने झूठ का सहारा ले।

आप कहेंगे नहीं, ऐसा नहीं हो सकता? लेकिन जब ऐसा होने लगे तो आप क्या कहेंगे? लेकिन सच यही है कि तीनों कृषि कानून को लेकर एक तरफ तीन दर्जन किसानों की जान चली गई लेकिन सत्ता को  इससे कोई सरोकार नहीं रह गया है। संवेदनहीनता की सीमाएं तो तब लांघ दी गई जब सत्ता में बैठे लोग इसे विरोधियों की साजिश और पैसे वाले किसानों का आंदोलन कहकर दुष्प्रचार करने लगे लेकिन क्या किसी ने सोचा भी है कि किसान आंदोलन के दौरान जिन तीन दर्जन किसानों की मौत हुई है उनकी आर्थिक स्थिति क्या है। क्या सत्ता बताएगी कि बीते सालों में पंजाब के बीस हजार से अधिक गरीब किसानों ने आत्महत्या की है।

नहीं सत्ता यह कभी नहीं बताएगी कि दिल्ली बार्डर में ठिठुरते ठंड में मरने वाले किसान गरीब हैं वह तो आंदोलन को तोडऩे उसी झूठ और नफरत का सहारा लेगी जिस झूठ और नफरत के दम पर वह सत्ता हासिल करने में सफल हुई है। न काला धन आया न भ्रष्टाचारी जेल ही गए। क्या हुआ राबर्ट वाड्रा के जमीन घोटाले का या शारदा चिटफंड कंपनी का प्रमुख आरोपी भाजपा में आते ही पाक साफ हो गया? नोट बंदी के दौरान मरे डेढ़ सौ लोगों के परिजनों को ही वह बता पायेगी कि इससे न कालाधन कम हुआ और न ही आतंकवाद का कमर टूटा।

इसलिए किसान आंदोलन को रौदने पूरी सत्ता और उसका ट्रोल आर्मी रोज नये झूठ के साथ सोशल मीडिया में खड़ा है। बेशर्मी के साथ। उसे बंगाल की चिंता है न कि किसानों की।

सच तो यह है कि तीनों कानून किसानों के लिए नहीं पूंजीपतियों के लिए बनाया गया हैं और सत्ता हासिल करने जब पूंजी महत्वपूर्ण साधन हो तो फिर इसे बचाने झूठ का सहारा लेना जरूरी है।

किसानों ने सरकार के सामने नहीं झुकने का फैसला लेते हुए आंदोलन को तेज करने की घोषणा कर दी है। हर एक किसान संगठन बारी-बारी से भूख हड़ताल पर बैठने लगे हैं ऐसे में सत्ता के सामने ट्रोल आर्मी एक नया हथियार बनकर सामने आने लगा है। झूठ और अफवाह की इस राजनीति से भले ही शहरी तपका प्रभावित हो जाए लेकिन किसानों के रुख से स्पष्ट है कि वे पीछे नहीं हटेंगे।

ऐसे में बाघ में केदारनाथ सिंह की यह पंक्ति याद आती है-

कि इस समय मेरी जिव्हा पर

जो एक विराट झूठ है

वही है - वही है मेरी सदी का

सबसे बड़ा सच।

सोमवार, 21 दिसंबर 2020

भक्ति में शक्ति...

बाजारवाद की आंधी में पूंजी के निरंतर बढ़ रहे प्रभाव के बीच मूल्य कहां बच पाता है और मूल्य ही नहीं बचेगा तो फिर सब झूठ या फिर बेईमानी-ईमानदारी में फर्क करना मुश्किल तो होगा ही। ऐसे में सच के साथ खड़ा होने का मतलब साहस दिखाना है।

श्रीकांत वर्मा ने कभी कहा था कि वास्तविकता का अनुभव हमेशा उसमें अवश्य रहेगा। इन दिनों लोकतांत्रिक व्यवस्था में भ्रम की स्थिति बन गई है या बना दी जा रही है, ऐसे में जब सत्ता की ताकत एक नये तरह का झूठ लिखने लगा हो तो उसके सामने कौन टिक पायेगा।

वैसे भी वास्तविकता और पूंजीवाद सत्ता के सबसे महत्वपूर्ण साधन है जो सच से दूर एक ऐसा भ्रम जाल बुन लेता है जिसके जाल में उलझ जाना आसान है और यही इस दौर का भक्तिकाल है।

वास्तव में हमारी सामान्य बुद्धि साम्प्रदायिकता और पूंजीवाद के छल को समझ पाने में नाकाम है और यर्थात कहीं दूर हो जाता है। पिछले 6 साल में जिस तरह से साम्प्रदायिक शक्तियों ने सत्ता में बने रहने पूंजीवाद को बढ़ावा दिय.ा वह भविष्य के आसन्न खतरों का संकेत है।

क्या इस भक्तिकाल में सच को किनारे कर दिया गया है। क्या सच यह नहीं है कि वर्तमान सत्ता ने या सीधे कहे तो मोदी सत्ता ने अपनी सुरक्षा के नाम पर अब तक के जितने भी प्रधानमंत्री रहे हैं उससे अधिक खर्च किया है। सत्ता की रईसी को बरकरार रखने के उपक्रम में आम लोग महंगाई से कराह रहे हैं। देश के गौराव माने जाने वाले सार्वजनिक उपक्रमों को लगातार बेचा जा रहा है और सरकारी संस्थानों को मजबूत करने की बजाय निजी संस्थानों को मजबूत किया जा रहा है। सरकारी बैकों का दिवालिया निकल रहा है और रिजर्व बैंक सहित तमाम संवैधानिक संस्थाओं के प्रति भरोसा समाप्त होने लगा है। और रेलवे से लेकर हवाई अड्डों को भी निजी हाथों में दिया जा रहा है।

देश में विरोध के स्वर को देशद्रोही और अराजकता का नाम दिया जा रहा है ऐसे में आम आदमी की चुप्पी क्या भक्तिकाल के प्रवाह का संकेत है।

जो लोग समझते है कि व्यवस्था के खिलाफ बोलने से बेहतर चुप रहना है। जबकि यह हमारी आदत बन चुकी है और यही आदत की वजह से सत्ता मनमानी पर उतारू है।

अब तक साम्प्रदायिकता और पूंजी ने एक मजबूत गठजोड़ बनाकर भक्ति की शक्ति को रेखांकित किया है उसे महत्वपूर्ण बना दिया है ऐसे में न केवल परिवार का ताना-बाना टूट रहा है बल्कि आम आदमी का जीवन नारकीय होता जा रहा है, साम्प्रदायिकता की आग में ्अपनी बुद्धि भ्रष्ट कर भक्ति में लीन लोगों ने जीस तरह से भक्ति की शक्ति को प्रदर्शित किया है। वह एक बात जान लें भक्ति जब अंधविश्वास की सीढ़ी पर पहुंचता है तो वह केवल देश समाज का ही नुकसान नहीं करता बल्कि स्वयं पर भी आघात करता है। अंधविश्वास से मरते लोगों के कितने ही उदाहरण है।

रविवार, 20 दिसंबर 2020

मौत से बड़ी होती है भूख

हजार बार सोचना पड़ेगा

अपनी खेती के बदले

तुम्हारा प्रस्ताव!

तुम्हारे हर प्रस्ताव को

कई कई बार गौर किया

और समझने की कोशिश की

तुम्हारे समझाने के तरीके

पर भी गौर किया।

आंदोलन के सिवाय और

क्या बचा है हमारे पास,

आपदा से घिरे लोग

कब मृत्यु से डरते हैं?

क्योंकि मौत से बड़ी

होती है भूख

तब वास्तविकता का

अनुभव अलग होता है

जो वास्तविक है।

दर असल तुम मेरी जगह

हो ही नहीं,

मेरी जगह होते तो

देखते, कैसे बिक जाते

है मेरी उपज

समर्थन मूल्य के बिना।

तुम्हे बेचना पड़ता

समर्थन मूल्य से कम कीमत

पर अपनी उपज

तब तुम देखते

पढ़ाई छूटते बच्चे,

मिट्टी में सने

हाथ-पांव ही नहीं मिल

कोस भर दूर से

दो पैसे बचाने के लिए

जाते बाजार घिसाते पांव।

तुम्हारे प्रस्ताव पर

मैं कैसे समझ

सकता हूं।

ये दर्द है किसानों का। लेकिन सरकार को यह दर्द कभी नहीं दिखने वाला है और न ही वह समझने तैयार है। ये सच है कि जब कोरोना की विपदा आई तब सिर्फ धान ही सहारा था,. लोगों ने जब लॉकडाउन में सब कुछ बंद कर रखा था, यहां तक कि धार्मि स्थल भी बंद हो चुके थे तब इन्हीं किसानों की बदौलत सब कुछ चल रहा था।

किसानों के आंदोलन को लेकर जो लोग सरकार की तरफदारी कर रहे हैं उन्हें सोचना होगा कि आखिर सरकार समर्थन मूल्य पर कानून क्यों नहीं बनाती। सिर्फ एक कानून से किसानों की हालत सुधर सकती है।

जिन तीन कानूनों का विरोध हो रहा है वह कानून वास्तविकता की धरातल से परे है। पूंजीवाद का वास्तविक चेहरा है और इसमें न किसानों का भला होने वाला है और न ही देश का ही भला होगा। हां, इस कानून को वापस लेने से सत्ता की रईसी पर फर्क पड़ेगा। इसकी रईसी को बरकरार रखने के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने में तकलीफें आयेंगी लेकिन किसानों का भला, कतई नहीं होने वाला है।

शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020

सरकार के अडऩे का अर्थ...

किसान आंदोलन के बढ़ते प्रभाव के बाद भी यदि मोदी सत्ता अड़ी हुई है तो इसका मतलब साफ है कि उसे किसानों की कोई परवाह नहीं है। दरअसल मोदी सरकार के पास सत्ता में बने रहने का जो विकल्प है उससे जनआन्दोलन कोई मायने नहीं रखता? उसके पास सत्ता में बने रहने केलिए जो आवश्यक साधन चाहिए वह उसने जुटा लिये है। ऐसे में कोई भई मांग सिरे से खारिज किया जा सकता है।

सत्ता में बने रहने के लिए सबसे जरूरी साधन पैसा है और भारतीय जनता पार्टी इस देश में सबसे पैसे वाली पार्टी है, दूसरा साधन उसका हिन्दू-मुस्लिम है और तीसरा साधन विरोधी दलों का बिखराव और खरीद फरोख्त या दबाव की राजनीति है। इन सभी में साधन सम्पन्न सत्ता कब जनहित की परवाह करती है।

यही वजह है कि 2014 के चुनाव के बाद मोदी सत्ता ने ऐसे कई निर्णय लिये जो देश या आम लोगों के हितों के विपरित थी लेकिन 2019 के चुनाव परिणाम उसके पक्ष में गये, यही नहीं राज्य दर राज्य जीत, पंचायत से लेकर नगरीय निकायों में उसे सफलता मिलते रही। और उसका पूरा ध्यान इसी पर लगा रहा। 

नोटबंदी का परिणाम क्या हुआ? किसी से नहीं छिपा है। डेढ़ सौ के लगभग मौत क ेबाद भी न कालाधन खत्म हुआ और न ही आतंकवाद की कमर टूटी लेकिन मोदी सत्ता के इस दावे के बिखर जाने के बाद भी उसकी जीत चलते रही। जीएसटी लागू करने का परिणाम भी उसके पक्ष में रहा ऐसे में जब मोदी सत्ता ने सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का काम शुरु किया तब भी वहां काम करने वालों की पीड़ा का कहीं असर नहीं दिखा, रेलवे से लेकर एयर पोर्ट और लालकिला तक गिरवी रखने के बाद भी वह चुनाव जीतते रही तब भला किसान आंदोलन से उसे क्या फर्क पडऩा है।

वह जानती है कि लोकतंत्र में चुनाव जीतना ही सभी अपराधों की माफी है और चुनाव जीतने के लिए पूंजी सबसे अहम हथियार है और पंूजी से औवेसी खड़ा किया जा सकता है। पूंजी से कट्टर हिन्दू की नींव रखी जा सकती है, पूंजी से जमीन ही नहीं आकाश-पाताल सब पर कब्जा किया जा सकता है और जब विरोध के स्वरों के अपने राजनैतिक स्वार्थ हो तो सत्ता की मनमानी को कोई कैसे रोक सकता है।

यही वजह है कि कड़कड़ाती ठंड में किसानों की मौत के बढ़ते आकड़े हमें अब नहीं झकझोरते है क्योंकि हमने तय कर लिया है कि बाबर से लेकर औरंगजेब ने जो अत्याचार किया है उससे मुक्ति यही सत्ता दिलायेगी।

अरे साहेब किसानों का हित सिर्फ समर्थन मूल्य पर धान खरीदी से है। इसे ही कानून बना दो किसानों को और कुछ नहीं चाहिए?

गुरुवार, 17 दिसंबर 2020

आंदोलन से उपजे सवाल

 

मोदी सरकार सत्ता में आते के लिए जब किसानों की आय 2022 तक दो गुनी करने का दावा कर रही थी, तब उसी समय कार्पोरेट की आय कई गुना करने की नीति पर काम चल रहा था, यही वजह है कि इस कानून के आने के पहले ही एक तरफ जहां अडानी पूरे देश में गोदाम बनाने में जुट गया था तो अंबानी के द्वारा शहर दर शहर रिटेल शॉप खोल रहा था।

सवाल यह नहीं है कि अडानी-अंबानी क्या कर रहे हैं, सवाल यह है कि सरकार की मंशा क्या सचमुच किसानों की आय दो गुनी करने की है? यह सवाल इसलिए भी उठाये जा रहे हैं क्योंकि किसानों ने सरकार के हर प्रस्ताव को नकार दिया है और तो और कानून को वापस लेने की मांग पर अड़े हुए है।

आंदोलन का रुख क्या होगा? क्या आंदोलन दिल्ली बार्डर पर ही सिमट कर रह जायेगा? या इसका विस्तार देशभर में फैलेगा? ये तमाम सवाल इसलिए गैर जरूरी है क्योंकि किसान कड़कड़ाती ठंड में भी एक पग पीछे हटने तैयार नहीं है ऐसे में आंदोलन का असर देश भर में होने लगा है।

क्या बगैर समर्थन मूल्य पर खरीदी से किसानों की आय दो गुना हो सकती है, बिल्कुल नहीं हो सकती इसलिए सरकार यदि किसानों की आमदनी बढ़ाना चाहती है तो वह समर्थन मूल्य से कम खरीदी पर प्रतिबंध क्यों नहीं लगाती? इस पर कानून बना दे कि समर्थन मूल्य के नीचे खरीदी पर जेल होगी? किसानों का दावा है कि सिर्फ इस एक कानून से न केवल किसानों की हालत सुधर जायेगी बल्कि आमदनी भी बढ़ जाएगी।

लेकिन मोदी सत्ता जिस तरह से तीनों कानून को लेकर अड़ी हुई है वह उसकी नियत ही नहीं अहंकार को भी प्रदर्शित करता है। क्योंकि चुनाव जीतने में माहिर हो चुकी इस सत्ता को इस बात की परवाह ही नहीं है कि विरोध कितना जायज है। इसलिए वह आंदोलन को तोडऩे हर संभव कोशिश में लगी है।

आंदोलन के दौरान एक तरफ जब किसान चर्चा कर रहे थे तो दूसरी तरफ सत्ता इस कानून को सही बताने में लगी रही ऐसे में चर्चा का नतीजा क्या होना है स्पष्ट था।

अब भी सत्ता और उसकी पूरी टीम कानून को जायज ठहराने में लगी है जबकि सच तो यह है कि इस कानून से केवल कार्पोरेट की आय बढऩी है। आंदोलन को तोडऩे की साजिश पर भी सवाल उठने लगे है ऐसे में आंदोलन का विस्तार देशभर में होने लगा है।

कल ही छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने दो टूक कह दिया है कि बगैर एमएसपी के किसानों की आय दो गुना हो ही नहीं सकती। भूपेश बघेल किसान हैं वे किसानों का दर्द समझते हैं इसलिए वे जानते हैं कि किसान किस तरह से अपनी उपज बेचने मजबूर होते हैं।

छत्तीसगढ़ में एक कहावत है करम फूटहा खेती करय, अकाल पडय़ नहीं त भाव गिरय। इस कहावत को भूपेश सरकार ने तोडऩे की कोशिश की है। मोदी सत्ता भी इस मॉडल को अपना ले।

बुधवार, 16 दिसंबर 2020

मोदी सत्ता का अहंकार...


 

खबर यह नहीं है कि किसान आन्दोलन कर रहे है और न खबर यह भी है कि आन्दोलन के दौरान आधा दर्जन से अधिक किसानों की मौत हो गई, खबर यह भी नहीं है कि किसानों ने मोदी सत्ता के मर्म पर प्रहार करते हुए अडानी-अंबानी का बहिष्कार कर दिया है। खबर तो यही है कि सत्ता का अहंकार आसमान छूने लगा है।

कड़कड़ाती ठंड में भी आन्दोलन बेधड़क चल रहा है और सत्ता अब भी यह समझाने में लगी है कि उनके द्वारा बनाये गए तीनों कानून सही है। जबकि हकीकत तो यही है कि ये तीनों कानून किसानों के लिए नहीं उद्योगपतियों के लिए बनाई गई है। यदि कानून किसानों के लिए बनाई जाती तो समर्थन मूल्य में धान की खरीदी अनिवार्य होता। लेकिन सत्ता का मतलब ही जब रईसी हो तो वह मुनाफा से कैसे मुंह मोड़ सकती है।

करोना काल में जब समूची दुनिया की गतिविधियां ठप्प पड़ गई थी, अर्थव्यवस्था का बुरा हाल था और जीडीपी लगातार गिर रही थी तब इकलौता कृषि क्षेत्र ऐसा था जिसने अर्थव्यवस्था को संबल दिया। और सत्ता की निगाह अब इसी पर है। यही वजह है कि सरकार ने कृषि सुधार के नाम पर ऐसे कानून लाये जिससे किसानों से ज्यादा फायदा कार्पोरेट को हो, क्योंकि सत्ता की रईसी के लिए पैसा चाहिए और पैसा किसान नहीं कार्पोरेट देता है।

सत्ता की इस सोच ने ही समर्थन मूल्य से नीचे पर खरीदी को लेकर कानून नहीं बनाया है क्योंकि सिर्फ यही एक कानून किसानों को सुदृढ़ करने के लिए काफी है।

मोदी सरकार के 6 साल में कार्पोरेट घरानों को जो फायदा मिला है उसका दुष्परिणाम दिखने लगा है लेकिन जब सारा कुछ चुनावी जीत पर निर्भर हो तो बुरे फैसले पर सवाल उठाने का मतलब ही कहां बचता है। यही वजह है कि नोटबंदी से लेकर जीएसटी जैसे फैसले में मौत के आंकड़े हिला देने वाले होने के बावजूद सरकार के रुख में कोई परिवर्तन नहीं आया।

किसानों ने आन्दोलन के दौरान जब तीनों कानून को लेकर दो टूक निर्णय लिया तब भी सत्ता को कोई फर्क नहीं पड़ा और वह आने वाले दिनों में बंगाल चुनाव की रणनीति पर व्यस्त है।

विपक्ष भी किसान आन्दोलन का समर्थन तो कर रहे हैं लेकिन किसान नेताओं के फैसले से दूरी बना रहे हैं। किसानों ने जब अडानी-अंबानी के बहिष्कार का निर्णय लिया तो विपक्ष भी इस पर कुछ नहीं बोल पाये क्योंकि राजनैतिक दलों के बाद पानी का सवाल है। यही वजह है कि किसान अपने ढंग से बहिष्कार में लगे है और यह बहिष्कार यदि देशभर के किसानों ने कर दिया तब अडानी-अंबानी का क्या होगा? अडानी-अंबानी को गरियाने वाले विपक्ष भी अब तक इस मामले में चुप है।

मंगलवार, 15 दिसंबर 2020

किसानी पर अधिकार


 

किसानी पर अधिकार

यह सर्व सत्य है कि जिसके पास पैसा है उसी के पास धरती, आकाश और पाताल पर अधिकार है और सत्ता वह बात हर बार समझाते रही है लेकिन हम ही नहीं समझ पाये या इसे किसानों ने ही नहीं समझा तो गलती सत्ता की कैसे हुई।

याद किजीए जब गैट समझौते के उथल पुथल के बीच आर्थर डेकल का प्रस्ताव आया तो स्वदेशी को प्रमोट करने वाले संगठन, आरएसएस और भाजपा पूरे देश में विरोध के स्वर को हवा देने में लगी थी और तब की सत्ता कृषि सब्सिडी को लेकर अलग ही  राग अलाप रही थी। लेकिन तब भी कोई नहीं समझ पा रहा था कि मामला गड़बड़ है।

दरअसल सभ्यता का सारा विकास ही जमीनों पर कब्जे करने का इतिहास है। महाभारत से लेकर आज तक जितने भी युद्ध हुए हैं वह सब जमीनों के लिए है। आदिवासी क्षेत्रों में संघर्ष की बात हो या जाति संघर्ष, सभी ने मूल में जमीनों पर कब्जा जमाने का ही खेल रहा है।

यही वजह है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जब युद्ध आसान नहीं रह गया तो जमीनों पर कब्जों के लिए नया रास्ता अख्यितार किया गया। अमेरिका, चीन, सउदी अरब जैसों देशों ने अफ्रीका में खेती के नाम पर जमीनों पर कब्जा करना शुरु किया। कई देश आज विकसित देशों के कृषि उपनिवेश बने है। पैसों की जरूरत के लिए कई देश अपनी जमीन खेती के लिए दे रहे है। अमेरिका बायोफ्यूल के नाम पर मक्का की खेती करवा रहा है तो चीन की रूचि व्यवसायिक फसलों की तरफ है।

वह भी सत्य है कि जिन देशों में भूखमरी के हालात है, उन देशों की जमीनों पर खेती के नाम पर व्यवसायिक घरानों का कब्जा है और इस कब्जे के खेल में सरकार उन्हीं का साथ दे रही है। ऐसे में उत्पादन पर किसका हक हो रहा है यह समझना आसान है। और व्यवसाय में मुनाफा कमाना ही जब ईमानदारी हो तो फिर आम आदमी के हित की बात कोई व्यवसायी कैसे सोच सकता है। जबकि पूंजीवाद का सीधा तर्क है कि बच्चे को तभी तक हाथ पकड़कर चलाना चाहिए जब तक वह चलना न सीख ले। और चलना सीख ले तो हाथ छोड़ दो भले ही वह गड्ढे में क्यों न गिर जाए।

लेकिन हम कुछ समझना ही नहीं चाहते जबकि हमें तभी समझ लेना चाहिए था कि जब रिलायंस देश भर में स्टोर्स खोल रहा था, अडानी देश भर में गोदाम बना रहा था। आखिर लाभ के लिए सिर्फ मार्केटिंग की ही नहीं, उत्पादन की भी जरूरत होती है। और उत्पादन के लिए जमीन की जरूरत होती है।

इसलिए जब तीन कृषि कानून को लेकर किसान आंदोलन करने लगे तो सरकार यह सब कैसे बर्दाश्त करेगी। आंदोलन लंबा चले या न चले सरकार की मंशा स्पष्ट है। आज वह भले ही किसानों के दबाव में आ जाए लेकिन वह पिछले दरवाजे से यही करने वाली है। भविष्य के इस संकेत से सावधान रहना होगा, क्योंकि जमीन सिर्फ जमीन  नहीं है वह धरती, आकाश, पाताल भी है और धरती, आकाश पाताल को रखने का अधिकार भी उन्हीं को है जिनके पास पैसा है। और दुर्भाग्य से सत्ता भी इसी पर चलने लगी है।