शुक्रवार, 9 अप्रैल 2010

पुरस्कार पाने के आसान नुश्खे...

छत्तीसगढ राय बनने के बाद अन्य लोगों की तरह पत्रकारों में भी पुरस्कार पाने की होड़ मच गई है और पुरस्कार पाने पत्रकार भी तिकड़म करने लगे है। वैसे तो पत्रकारों को हर जगह सम्मान मिलता ही रहता है। राय बनने के बाद कुकुरमुमत्ते की तरह उग आए संस्थाएं अपनी खबर छपाने पत्रकारों को आए दिन सम्मानित करती है।
इस सबके बावजूद कई पत्रकार ऐसे हैं जो राय स्थापना के अवसर पर दिए जाने वाले फैलोशिप को पुरस्कार के रुप में लेने गणितबाजी करते हैं तो कई पत्रकारों का ध्यान विधानसभा द्वारा आयोजित उत्कृष्ठ रिपोर्टिंग पुरस्कार के लिए लगे रहते हैं। नवम्बर में रायोत्सव बनाम लुटोत्सव में दिए जाने वाले पुरस्कार कैसे किसे दिए जाएंगे यह अब मंत्री पर निर्भर होने लगा है और आखिरी वक्त पर नाम की घोषणा की जाती है। इस बार जिसे दिया गया उसके मैग्जीन के अंक में मंत्री भाई की तारीफ के पुल बांधे गए थे।
विधानसभा में इस बार दिए गए पुरस्कार की अपनी ही कहानी है। पूर्व विधानसभा अध्यक्ष ने अपने खास इस पत्रकार को पास दिलाने एड़ी चोटी लगाकर थक गए थे तब भी पिछली बार पास नहीं बना और इस बार पास भी बना तो पुरस्कार भी मिल गया। अब रसीदी टिकिट में दस्तखत करवाकर पुरस्कार राशि लिए जाने का मोह कोई कैसे छोड़ सकता है वह भी जब सेटिंग करके पुरस्कार पाने की कोशिश की गई हो।
छत्तीसगढ राय बनने के बाद तो मालिक भी पुरस्कारों में रूचि लेने लगे हैं और अपने चहेते पत्रकारों को पुरस्कृत करने लॉबिंग भी करने लगे हैं अब हर किसी को तो पुरस्कार दिया नहीं जा सकता इसलिए जिसे नहीं मिला या जिसकी नहीं सुनी गई उसे ओब्लाईज करने के नए तरीके ईजाद किए जा सकते हैं।
और अंत में...
पत्रकारिता पुरस्कारों को लेकर पिछले दिनों जब पत्रकारों में बहस चल रही थी तो जनसंपर्क का एक अधिकारी ने रहस्य खोला कि पहला पुरस्कार किस अधिकारी के रूचि पर दिया गया। यह सुनकर कई पत्रकार ने ऐसे पुरस्कार पाने से ही कान पकड़ लिया।

शराब से सराबोर सरकार

कभी एक जमाना था जब छत्तीसगढ धान का कटोरा कहलाता था लेकिन मध्यप्रदेश के तत्कालीन सरकारों ने ऐसी लूट मचाई कि छत्तीसगढ़ राय की मांग उठने लगी और मांग पूरी हुई तो सरकार ने धान के इस कटोरे को दारू से लबरेज कर दिया।
नई आबकारी नीति में सरकार ने दारू ठेकेदारों को इतना प्रश्रय दिया है कि वे समनान्तर सरकार चलाने लगे हैं। प्रदेश के गृहमंत्री ननकीराम कंवर के अनुसार तो पुलिस वाले उनकी बजाय दारू वालों की बात मानते हैं। यह अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है। दारु ठेकेदारों द्वारा खुले आम कानून का उल्लंघन किया जा रहा है और प्रशासन शिकायतों के बाद भी कार्रवाई नहीं कर रही है। जब धार्मिक स्थलों व शैक्षणिक संस्थानों के नजदीक दारू दुकान बंद नहीं कराई जा सकती तब भला सरकार ऐसे नियम बनाती ही क्यों है।
छत्तीसगढ़ के राजधानी में ही नियमाें का उल्लंघन करने वाली ऐसी दर्जन दुकानों को हटाने की मांग नागरिक कर रहे हैं। दुकानें तो हटाई नहीं जा रही है उल्टा शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर रहे नागरिकों को ही पुलिस द्वारा परेशान किया जा रहा है। विवेकानंद आश्रम से लेकर तेलीबांधा तक जीई रोड में ही धार्मिक स्थलों और स्कूलों के पास दारु दुकान है और इसके विरोध में यहां के लोग सालों से आंदोलन करते आ रहे हैं। दारु ठेकेदारों की मनमानी और गुण्डागर्दी की कहानी तो ग्रामीण क्षेत्रों में सारी इंतेहा पार कर जाती है हालत यह है कि दारु ठेकेदार ही गांव-गांव में अवैध शराब बिकवाते हैं।
दारु दुकानवालों के अंधेरगर्दी का आलम यह है कि कोई उनसे दारु खरीदने पर बिल नहीं मांग सकता। नियमानुसार जिस तरह से दूसरे सामान खरीदने पर बिल दिया जाता है वैसा दारु दुकान में नहीं चलता। पिछले दिनों एक ग्राहक ने जीई रोड स्थित एक दारु दुकान से जब बोतल खरीदी और बिल मांगा तो उस ग्राहक के साथ गाली गलौज तक कर दी गई और ग्राहक ने जब थाने में इसकी शिकायत की तो उसे थाने से ही भगा दिया गया।
अंधेरगर्दी का आलम यहा है कि नेताओं द्वारा दारु ठेकेदारों को खुलेआम न केवल संरक्षण दिया जा रहा है। बल्कि पार्टनरशिप तक किया जा रहा है। वर्तमान सरकार के मुखिया के रिश्तेदार से लेकर तीन मंत्रियों पर दारु ठेकेदारों के साथ पार्टनरशिप की कहानी आम लोगों में जा सकती है। एक दारु ठेकेदार पर तो न केवल गुण्डागर्दी का आरोप है बल्कि इसके द्वारा सदर बाजार जैसे इलाके में ट्रस्ट की जमीन तक निगल रहा है और कलेक्टर ने इसे कैसे अनुमति दी यह भी जांच का विषय है।

राज्य सभा के लिए कौन,थोपने पर कांग्रेसी मौन

छत्तीसगढ़ मेंराज्य सभा सीट को लेकर भीतर ही भीतर कांग्रेसियों में जबरदस्त सुगबुगाहट है और मोहसिना किदवई की तरह आनंद शर्मा या अन्य को थोपे जाने का दबी जुबान पर विरोध भी है लेकिन छत्तीसगढ़ की उपेक्षा के सवाल पर कांग्रेसी मौन है।
कभी केन्द्र में मंत्री देने वाला छत्तीसगढ़ प्रदेश पिछले दशक भर से केन्द्र सरकार की उपेक्षा का शिकार है तो इसकी वजह स्थानीय कांग्रेसियों की बुजदिली को बताया जा रहा है जो रायसभा की सीटों पर भी अपनी बात बेबाकी से नहीं रख पाते। दरअसल छत्तीसगढ क़ांग्रेस इन दिनों कुशल नेतृत्व की शून्यता से उबर नहीं पा रहा है। अजीत जोगी सरकार की पराजय के बाद से ही कांग्रेस में जबरदस्त बिखराव देखा जा रहा है। यह अलग बात है कि कांग्रेस में टूटन नहीं हुई है लेकिन कथित बड़े नेताओं की लड़ाई ने भाजपा को मनमाने तरीके से राज करने की छूट दे रखी है।
पिछली बार राज्य सभा में मोहसिना किदवई को छत्तीसगढ़ से भेजा गया तब भी इसका दबी जुबान से विरोध हुआ और इस बार तो आनंद शर्मा को भेजे जाने की खबर पर बड़े नेता चुप्पी साध रखी है। यह अलग बात है कि राज्य सभा के लिए किसी तरह का बंधन नहीं है लेकिन मोहसिना किदवई ने रायसभा में छत्तीसगढ क़े हितों की कितनी वकालत की है यह भी किसी से छिपा नहीं है। इसलिए इस बार थोपे जाने को लेकर दबी जुबान में विरोध करने वालों की संख्या तो बढ़ी है लेकिन कथित बड़े नेता अब भी इस मामले में खामोश है।
छत्तीसगढ प्रदेश में कांग्रेस की राजनीति मुख्यत: दो खेमों में बंट गई है एक खेमा अजीत जोगी का है जिनके पास विधायकों की फौज के अलावा जनसंपर्क भी है तो दूसरा खेमा कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा और जोगी विरोधियों का है। दोनों ही खेमों ने अभी तक रायसभा के लिए खुलकर पत्ते नहीं खोले हैं लेकिन अजीत जोगी के पुत्र अमीत जोगी के पक्ष में एक गुट का सामने आने को थोपने की परिपाटी का विरोध के रुप में देखा जा रहा है।
कांग्रेस कमेटी के वर्तमान अध्यक्ष धनेन्द्र साहू ने अपनी सक्रियता से जरूर कांग्रेस में उर्जा डालने की कोशिश की है लेकिन विधायकों के समर्थन का अभाव और पिछड़े वर्ग के नेता के रुप में प्रचारित कर उन्हें अभी से हाशिये में डालने की कोशिश शुरु हो गई है। ऐसे में मंत्री नहीं बनाने की वजह से उपेक्षा शिकार यहां के कांग्रेसी राज्य सभा में भी उपेक्षा की खबर को लेकर जहां हैरान है वहीं भाजपा एक बार फिर इसे मुद्दा बनाने में लग गया है।

पहली लड़ाई में भारी पड़ी किरण


भाजपा को मुंह की खानी पड़ी...
यह तो आ बैल मुझे मार की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना नवनिर्वाचित पार्षदों की पहली सामान्य सभी की बैठक में भाजपा को मुंह की नहीं खानी पड़ती, वहीं अवैधानिक कृत्यों में साथ देने वाले निगम के अधिकारी अब अपनी चमड़ी बचाने में लग गए हैं।
राजधानी के नगर निगम में भाजपा ने अपना सभापति बिठाकर महापौर किरणमयी नायक की राह में कांटे बिछाने का संकेत पहले ही दे दिया था लेकिन भाजपाईयों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि जिस महापौर को वे घेरने जा रही है उसके चक्कर में स्वयं घिर जाएंगे। निगम की पहली बैठक तीन दिन चली या दो दिन इसका फैसला तो बाद में होगा लेकिन बहुमत के बाद भी सत्तापक्ष को परेशान होना पड़ा। दूसरे दिन तो अभूतपूर्व हंगामा हुआ और पार्षदों को भी निगम एक्ट पढना पड़ गया। तीसरी बार पार्षद बने भाजपाई सुनील बांद्रे ने कहा कि दस साल में पहली बार उन्हें निगम एक्ट पड़ना पड़ा तो नेता प्रतिपक्ष सुभाष तिवारी ने महिला पार्षदों की आड़ लेकर महापौर को घेरने की कोशिश की नेता प्रतिपक्ष ने तो महापौर को कानूनबाज तक कह दिया।
भाजपा की ओर से सूर्यकांत राठौर, प्रफुल्ल विश्वकर्मा ने भी मोर्चा खोला जबकि कांग्रेस में प्रमोद दुबे, ज्ञानेश शर्मा ने भाजपाईयों की बखिया उधेड़ने में कोई कमी नहीं छोड़ी। निर्दलीय पार्षदों में दीनानाथ शर्मा, मृत्युंजय दुबे, पूर्णप्रकाश झा ने अपने तीखे तेवर दिखाये। मृत्युंजय ने तो निगम की घटना के लिए दोनों राजनैतिक दल भाजपा और कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराते हुए तीखी टिप्पणी की। महापौर के जब बोलने की बारी आई तो उन्होंने साफ कहा कि उन्हें कानूनबाज होने में गर्व है और वे इस बात के लिए सफल हुई हैं कि कल तक पार्टी या बहुमत के कारण बंद आंखों से समर्थन करने वालों को निगम में कानून पढ़ने पढ़े। जबकि उन्होंने नेता प्रतिपक्ष पर महिलाओं की आड़ लेने के लिए आड़े हाथों लिया। महिला पार्षदों ने भी
जमकर हिस्सा लिया

नगर निगम में इस बात बड़ी संख्या में महिला पार्षद जीत कर आई है। इनमें से पहली बार भाजपा से जीत कर आई श्रीमती मीनल चौबे ने निगम के हंगामे की जमकर आलोचना करते हुए कहा कि यहां राजनीति करने की बजाय शहर के विकास पर ध्यान देना चाहिए। उन्होंने अपने प्रभावशाली बातों से नए नेतृत्व उभरने का संकेत दिया। जबकि अन्य महिला पार्षदों ने भी कार्रवाई में जमकर हिस्सा लिया जो आने वाले दिनों में बेहतर नजारें के संकेत हैं।