गुरुवार, 30 अप्रैल 2020

बच्चे नहीं है न साहेब!


हाँ मैं मज़दूर हूँ साहेब
जो काँधे में बच्चों को 
और सिर में पोटली उठाये 
पाँच-सात सौ कोस चल सकता हूँ
लेकिन आप क्या हो ! साहेब
इन बरसों मे किसने सोचा है हमारे लिए 
आप भी क्यों सोचते?
जान का डर किसे नहीं होता 
लेकिन कोरोना का डर हमसे पहले 
आपको था साहेब 
अपनी जान के डर से होली नहीं मनाई 
होली हमने मनाई 
ताकि ख़ुशियों का रंग 
पूरी कायनात में बिखर जाये
आप तो ख़ुशियाँ लुट रहे है साहेब 
जब इतना भयावह का पता था 
तब ही हमारे लिये निर्णय 
क्यों नहीं लिया साहेब 
ख़ाली जेब दान के दो समय के 
खाने के सहारे कोई कैसे 
रह सकता था साहेब 
पत्नी रह भी ले लेकिन 
बच्चे कैसे रहेंगे साहेब 
आपके बच्चे नहीं है न साहेब !!!!
-कौशल तिवारी 
( मज़दूर दिवस - २०२० )

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

यादों के झरोखों से ...

आफ़त की चाहत क्या एक आँखो देखी और महसूस किया गया भारतीय राजनीति का वह कुरूप चेहरा है जिसे लिखने जब बैठा तो सोचा नहीं था कि इसका इतना प्रतिसाद मिलेगा
सिर्फ़ कवर पेज और भूमिका पर  तारीफ़ मिली तो गाली देने वालों की भी कमी नहीं थी
लेकिन लिखना जारी रखा
आज जब इसका चौदहवाँ किश्त प्रकाशित हुआ
इसके पहले पाठकों की जो प्रतिक्रिया है उसे सहेज रहा हूँ
अच्छा है चाहे बुरा है
संतोष यह है कि ये मेरा है



















रविवार, 12 अप्रैल 2020

कट्टरता और श्रेष्ठता - 2


मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं कैसे उन लोगों के मन में बैठे डर को दूर करूं जो यह तय कर चुके है कि मोदी सरकार आई तो उनका नुकसान होगा या नहीं आई तो यह देश एक और मुस्लिम राष्ट्र की तरफ कदम बढ़ायेगा।
राकेश विनय ही नहीं शहर में कितने ही लोग थे जो इस डर को हवा दे रहे थे और इस पूरी कहानी में हर उस घटना को ज्यादा प्रचारित किया जा रहा था जिसमें दोनों ही धर्म के लोग जुड़े थे।
मसलन राकेश को कश्मीर से भगाये कश्मीरी पंडित तो दिखाई देता था लेकिन उड़ीसा में चले मारवाड़ी भगाओं आंदोलन या आमचीं मुंबई के तहत गैर महाराष्ट्रियनो पर अत्याचार का सलवा जुडुम में खाली हुए पांच सौ गांव इसलिए राकेश को नहीं दिखलाई देता था क्योंकि उसमें मुसलमान या ईसाई नहीं होते थे।
हिन्दू लड़के के हिन्दू लड़की को प्यार या शादी के नाम पर धोखे का मामला उस ढंग से कभी नहीं उभारा गया जिस ढंग से लव जेहाद के नाम पर अभियान चलाया गया। बलात्कार के मामले मे भी घटना में राजनैतिक फायदे देखे जाने लगे तो लगने लगा था कि हम किस तरह का भारत निर्माण कर रहे हैं।
ऐसा लगता कि लोगों के दिलों दिमाग में इसे न केवल बैठा दिया गया है बल्कि उसे किसी बीज की तरह बो दिया गया है और इस बीज ने अपनी जड़े उनकी रगो में खून के साथ बढ़ता चला जा रहा है और अपनी पकड़ रगो के शिराओं पर मजबूत कर ली है।
मैं अपने शहर मे ही इस डर को महसूस करने लगा था। टूटे हुए आईनों में उभरा हर शख्स कुछ अधूरा सा लगने लगा था। सामाजिक सौहाद्र्र और अमन शांति के लिए पूरे देश में अपनी अलग पहचान बना चुके इस शहर की दिवारे कई बार दरकती हुई दिखाई देने लगता था। सोचता था यह डर हकीकत न हो।
कोई भी शख्स किसी दूसरे धर्म के बेतुकापन पर बात करने को तैयार नहीं था जबकि अमल में लाना न लाना उनकी मर्जी है लेकिन बात तो की ही जानी चाहिए।
सूरज कुमार या संतोष जी ही कुछ गंभीर थे जिन्हें मैं पूछ सकता था इसलिए राजनीति के इस हिन्दूकरण के हिंसक होते प्रहार पर मैं अक्सर सवाल छोड़ देता था। वे एक सीमा तक ही जवाब देते फिर श्रेष्ठता की परिभाषा गढऩा शुरू कर देते।
राफेल के मुद्दे को भी संतोष जी ने बड़ी सफाई से जब हिन्दू-मुस्लिम की तरफ मोड़ दिया तो मैं हतप्रभ रहने के सिवाय क्या कर सकता था। नक्सली हमले से मर रहे आदिवासियों की मौत पर वे चिंता तो जाहिर करते लेकिन उनकी चिंतन आतंकवाद की चिंता से ईतर हो जाती। अखलाक या रोहित वेमुला के मुद्दे भी इनके लिए बेमानी हो जाते लेकिन उत्तप्रदेश के किसी सुदूर गांव में कुछ मुसलमान गुण्डों द्वारा घर में घुसकर तोडफ़ोड़ और मारपीट देश की अस्मिता पर आघात हो जाता था।
ऐसा ही कुछ उलट अकील या हासीम के साथ होता। 84 के सिख विरोधी दंगे उन्हें मामूली लगते लेकिन गुजरात में हुए कत्लेआम उनके लिए आज भी बड़ा हादसा था। जबकि दोनों ही मामले पर सरकार द्वारा कत्लेआम कराये जाने या कत्लेआम को बढ़ावा देने का आरोप लगता रहा है।
यह बाते जो दोनों ही धर्म के लिए लोग हर घटना को अपने नजरिये से देखने की वजह से ही दिक्कतें हुई थी और सामाजिक ताना बाना न केवल छिन्न भिन्न हुआ था बल्कि दिलों में प्यार की जगह नफरत या डर ने स्थान बना लिया था।
मैं और मेरा , सारी लड़ाई की जड़ यहीं से शुरू हो रहा था। स्वयं को श्रेष्ठ साबित करने के फेर में आदमी किस तरह एक-दूसरे के प्रति कठोर होता जा रहा था कि वह टस से मस होना नहीं चाह रहा था। हर ऐसे व्यक्ति में जड़े उग आया था जो मजबूती से गहराई में लगातार समाता जा रहा था।
आप अंदाजा नहीं लगा सकते कि मौजूदा हालात को लेकर मैं कितना उदास हूं। मेरी जितनी चिंता पहले के माहौल को पुर्नस्थापना की होती उतनी ही तेजी से कोई न कोई ऐसा वाक्या देश में हो जाता था कि हिन्दू या मुस्लिम के झंडाबरदार फिर खड़े हो जाते और उसका असर यहां साफ दिखाई पड़ता।
मैने कितने ही बार धर्म के इस्तेमाल कर सत्ता हासिल करने की राजनैतिक शैली का उदाहरण दिया ताकि माहौल हल्का हो सके। सब जानते थे कि मैं झूठ नहीं बोलता हूं लेकिन इसे वे महज अपवाद करार देते थे।
मेरे शहर में पहले भी माहौल खराब कर राजनातिक फायदे की कोशिश हो चुकी है। एक बार एक फैंसी स्टोर चलाने वाले मुस्लिम युवक ने एक सिंघी परिवार की युवती को लेकर भाग गया। मैं जानता था कि ये दोनों एक दूसरे से बेहतंहा मोहब्बत करते थे। मेरा एक दोस्त था विरेन्द्र वह उस मुस्लिम युवक का दोस्त था इसलिए गाहे बगाहे पूरे मामले को मैं जानता था लेकिन इस मामले को राजनैतिक ढंग देकर हिन्दू मुस्लिम तक ले जाया गया और शहर में जुलूस निकाले गये जुलूस में तमाम तरह के हिन्दू संगठनों के लोग शामिल ते। सिंघी समाज से जुड़े एक प्यापारी नेता ने इस मामले का नेतृत्वकर्ता हो चुका था और बाद में वह विधायक भी बना।
पुलिस  दबाव में प्रेमी जोड़ा लौट आया। दोनों को अलग कर दिया गया। प्रशासन के दबाव में युवक भी अपना अलग रास्ता अख्तियार कर लिया.
हैरान तो मैं तब हुआ जब इस घटना के कुछ ही महीने बाद एक जुलूस कौमी एकता जिन्दाबाद के नारे के साथ पहुंचा और इस बार भी जुलूस का नेतृत्व सिंघी समाज का वहीं व्यापारी नेता कर रहा था और उसके साथ वह जुगल जोड़ी के नाम से चर्चित मुस्लिम समाज का व्यापारी नेता भी जुलुस के सामने था। कुछ ही महीने पहले हिन्दू एकता का नारा लगाने वाले को कौमी एकता का नारा लगाते कलेक्टोरेट परिसर में दाखिल होते देख जब इसकी वजह ढूंढी तो पता चला कि इस बार ब्राम्हण समाज के किसी युवक ने सिंधी समाज के युवती को ले भागा था।
यानी जिसे राजनीति करनी है वह हर हाल में धर्म का इस्तेमाल अपनी सुविधा अनुसार कर ही लेता है और अब लोग इनके नारे में कट्टरता या उन्माद के स्तर तक जा पहुंचते है।
ऐसी कितनो ही जानकारी मेरे पास थी और मै गाहे बगाहे इन घटनाओं का जिक्र कर राजनीति में धर्म के इस्तेमाल से होने वाले खतरे से आगाह करता रहा हूं। लेकिन राजनीति की हवा उस लू की तरह शैतानी हवा है जो जान ले लेने का डर पैदा करती है। वह किसी भी साक्ष्य या तर्क को नहीं मानती है उसके भीतर का डर इस कदर भयावह हो जाती है कि उसकी अपनी धार्मिक श्रेष्ठता खतरे में दिखाई देने लगता है और मौजूदा हालात को उसी तरह बना दिया गया था। राकेश तो साफ कहता था कि यदि मोदी हार गया तो यह देश का हिन्दु खतरे में पड़ जायेगा। कश्मीर की तरह दूसरे राज्यों की हालत खराब हो जायेगी। हिन्दू अपने ही देश में मारे जायेंगे। अपने कथन को सही साबित करने वह इस तरह का कुतर्क का सहारा लेता था कि समझदार व्यक्ति हंसे बिना नहीं रह सकता था। लेकिन इस तरह की बात करने वाला राकेश अकेला नहीं था। निक्की भी अमूमन यही बात करता था लेकिन निक्की यह बात करने में थोड़ी समझदारी दिखाता था। क्योंकि वह जानता कि वह गलत कह रहा है। निक्की की समझदारी के पीछे उसका भीरुपन भी था वह सीधे टकराहट से बचता था।
राकेश उज्जड़ किसम् का था इसलिए वह धर्मान्तरण से राष्ट्रान्तरण की सावरकर थ्योरी को ही मानता था। उसे तो जहां चार मुसलमान वहां एक पाकिस्तान कहने से भी गुरेज नहीं था।
दरअसल हम सब एक दूसरे को इतना कम जानते है मौजूदा परिस्थितियों के बाद ही इसका पता चला था इसलिए तकलीफ ज्यादा हुई थी
और गुस्सा भी ज्यादा था। 

शनिवार, 11 अप्रैल 2020

दो युवा व्यापारियों की गोली मार कर हत्या….. पड़ोसी ने लाश घर के पीछे गाड़ कर छिपाई…… मामले में दो आरोपी गिरफ्तार


अंबिकापुर। दो दिनों पहले 10 अप्रैल की रात से लापता दो भाईयों की गोली मारकर हत्या कर दी गई है। साक्ष्य छिपाने के लिए दोनों भाइ्रयों की लाश को हत्यारे ने अपने घर के पीछे ही गाड़ दिया था। जिस इनोवा क्रिस्टा से दोनों भाई सौरभ अग्रवाल और सुनील अग्रवाल निकले थे, उसे आकाशवाणी के पास संदिग्ध परिस्थितियों में बरामद किया गया था। परिजनों की शिकायत पर अज्ञात के खिलाफ दर्ज अपराध के तहत मामले की तफ्तीश शुरू हुई। एसपी सरगुजा ने इस मामले में लापता दोनों भाईयों की तलाश के लिए तीन टीम गठित किया था। 
संदेह के आधार पर पड़ोसी आकाश गुप्ता को जब हिरासत में लेकर सख्ती से पूछताछ की गई तो उसने हत्या करना स्वीकार किया। इस दोहरे हत्याकांड में दूसरे आरोपी सिद्धार्थ यादव को भी हिरासत में लिया गया है। हत्या के पीछे वजह का खुलासा फिलहाल नहीं किया गया है, लेकिन सूत्रों के मुताबिक इनके बीच लेन-देन को लेकर विवाद चल रहा था। इसी बीच 10 अपै्रल को आकाश को मौका मिला और दोनों भाईयों की उसने हत्या कर दी।

लाँकडाउन से छत्तीसगढ़ सरकार को लगभग 11 हजार करोड़ का नुकसान!




 कोरोना के कहर से छत्तीसगढ़ के व्यपार में ग्रहण लग गया है। कोयला, लोहा, सीमेंट और बिजली छत्तीसगढ़ के लिए धन कुबेर कहे जा सकते हैं। दरअसल राज्य को कुल राजस्व का करीब 50 फीसदी से अधिक हिस्सा इन्हीं चारों सेक्टरों से आता है। लेकिन इस वक्त कोरोना वायरस के चलते प्रदेश में भी लॉक डाउन है। जिस वजह से प्रदेश की अर्थव्यवस्था डगमगा जाएगी।

आपको बता दें कि लॉकडाउन के चलते सभी क्षेत्रों में उत्पादन बंद है। लॉकडाउन के चलते ट्रांसपोर्ट की सुविधा भी पूरी तरह से ठप्प है जिसके कारण फैक्ट्रियों में बना हुआ माल भी डिस्पैच नहीं हो पा रहा है।

छत्तीसगढ़ के प्रमुख व्यापार स्तंभ
कोयला : राज्य के राजस्व का एक बहुत बड़ा हिस्सा कोयला से आता है। यहां देश का 16 फीसद कोयला भंडार है। देश के पूरे उत्पाद में 18 फीसदी योगदान छत्तीसगढ़ का है।इस मामले में राज्य देश में दूसरे स्थान पर है।

लोहा : राज्य का 26 फीसद से अधिक खजाना लोहा ही भरता है। देश का करीब 20 फीसद लौह अयस्क भंडार यहीं है। देश का 15फीसद लोहे का उत्पादन छत्तीसगढ़ में होता है। लोहा उत्पादन के मामले में भी राज्य देश में दूसरे स्थान पर है।



सीमेंट : देश का करीब पांच फीसद चूनापत्थर का भंडार छत्तीसगढ़ में हैं। राज्य में फिलहाल एक दर्जन से अधिक बड़े सीमेंट संयंत्र हैं जो देश की करीब 20 फीसदी जरूरत पूरी करते हैं। सीमेंट उद्योगों से भी राज्य को बड़ा राजस्व प्राप्त होता है।

बिजली : छत्तीसगढ़ को देश का पॉवर हब कहा जाता है। यहां सरकारी और निजी सेक्टर मिलाकर करीब 23 हजार मेगावॉट बिजली का उत्पादन होता है। राज्य की सरकारी बिजली कंपनी देश की उन चुनिंदा बिजली कंपनियों में शामिल है जो मुनाफे में रहती हैं।

कम से कम 3 माह का लगेगा समय
इसके अलावा प्रदेश में ट्रेडिंग का व्यवसाय भी किया जाता है। जिसमें अनाज, किराना, कपड़ा, इलेक्ट्रानिक के सामान शामिल हैं। पड़ोसी राज्य ओड़िशा, झारखंड, महाराष्ट्र व मध्यप्रदेश में भी छत्तीसगढ़ से ही व्यापार किया जाता है। लॉकडाउन खुलने के बाद भी कम से कम 3 माह व्यापार को सुचारू रूप से चलाने में समय लगेगा। इस दौरान 10-11 हजार करोड़ के कर व आर्थिक सेवाओं का नुकसान सरकार को उठाना पड़ सकता है।

लॉकडाउन का असर
स्टील, सीमेंट, पॉवर, कोल उद्योग लगातार चलने वाले उद्योग हैं। जो एकबार बंद होते हैं तो बगैर मेंटेनेंस के उन्हें शुरू करने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इसके अलावा इन उद्योगों में काम करने वाले लेबर उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब से आते हैं जो अपने-अपने क्षेत्रों में लौट चुके हैं। लॉकडाउन के खत्म होने के बाद इन कर्मचारियों को वापस लौटने में भी समय लगेगा। जिसके कारण औद्योगिक क्षेत्रों को इसका भारी नुकसान उठाना पड़ेगा। लॉक डाउन की वजह से छत्तीसगढ़ में इन उद्योगों को बड़ी मार पड़ी है। प्रदेश में बंद पड़ी इन फैक्ट्रीयों को शुरू करने में समय लगेगा साथ ही खर्चे भी बढ़ेंगे। हालांकि केंद्र सरकार ने 10 फीसदी एडॉक लिमित देने हा निर्देश बैंकों को दिया है। इसके बावजूद प्रदेश के व्यापारी वर्ग व उद्योग घरानों को इस लॉकडाउन का नुकसान उठाना पड़ेगा।

नोटः यह लेखक सीए बजरंग अग्रवाल, पूर्व सचिव इंस्टीट्यूट ऑफ चार्टेड अकाउंट ऑफ इंडिया(ICAI), रायपुर ब्रांच के स्वतंत्र विचार हैं।
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शुक्रवार, 10 अप्रैल 2020

कोरोना को लेकर कुछ जानकारी

क्या यह सब बाते सच है ?

प्रश्न 1) क्या कोरोना वायरस को ख़त्म किया जा सकता है?

*उत्तर:-* नहीं! कोरोना वायरस एक निर्जीव कण है जिस पर *चर्बी की सुरक्षा-परत* चढ़ी हुई होती है। *यह कोई ज़िन्दा चीज़ नहीं है, इसलिये इसे मारा नहीं जा सकता* बल्कि यह ख़ुद ही रेज़ा-रेज़ा (कण-कण) होकर ख़त्म होता है।

प्रश्न( 02)- कोरोना वायरस के विघटन (रेज़ा-रेज़ा होकर ख़त्म होने) में कितना समय लगता है?

*उत्तर:-* कोरोना वायरस के विघटन की मुद्दत का दारोमदार, *इसके आसपास कितनी गर्मी या नमी है? या जहाँ ये मौजूद है, उस जगह की परिस्थितियां क्या हैं?* इत्यादि बातों पर निर्भर करता है।

प्रश्न(03):- इसे कण-कण में कैसे विघटित किया जा सकता है?

*उत्तर:-* कोरोना वायरस बहुत कमज़ोर होता है। *इसके ऊपर चढ़ी चर्बी की सुरक्षा-परत फाड़ देने से यह ख़त्म हो जाता है।* ऐसा करने के लिये साबुन या डिटर्जेंट के झाग सबसे ज़्यादा प्रभावी होते हैं। *20 सेकंड या उससे ज़्यादा देर तक साबुन/डिटर्जेंट लगाकर हाथों को रगड़ने से इसकी सुरक्षा-परत फट जाती है* और ये नष्ट हो जाता है। इसलिये अपने शरीर के खुले अंगों को बार-बार साबुन व पानी से धोना चाहिये, ख़ास तौर से उस वक़्त जब आप बाहर से घर में आए हों।

प्रश्न(04):- क्या गरम पानी के इस्तेमाल से इसे ख़त्म किया जा सकता है?

*उत्तर:-* हाँ! गर्मी चर्बी को जल्दी पिघला देती है। इसके लिये कम से कम 25 डिग्री गर्म (गुनगुने से थोड़ा तेज़) पानी से शरीर के अंगों और कपड़ों को धोना चाहिये। छींकते या खाँसते वक़्त इस्तेमाल किये जाने वाले रुमाल को 25 डिग्री या इससे ज़्यादा गर्म पानी से धोना चाहिये। गोश्त, चिकन या सब्ज़ियों को भी पकाने से पहले 25 डिग्री तक के पानी में डालकर धोना चाहिये।

प्रश्न(05):- क्या एल्कोहल मिले पानी (सैनीटाइजर) से कोरोना वायरस की सुरक्षा-परत को तोड़ा जा सकता है?

*उत्तर:* हाँ! लेकिन उस सैनीटाइजर में एल्कोहल की मात्रा 65 पर्सेंट से ज़्यादा होनी चाहिये तभी यह उस पर चढ़ी सुरक्षा-परत को पिघला सकता है, वर्ना नहीं।

प्रश्न(06):-क्या ब्लीचिंग केमिकल युक्त पानी से भी इसकी सुरक्षा-परत तोड़ी जा सकती है?

*उत्तर:-* हाँ! लेकिन इसके लिये *पानी में ब्लीच की मात्रा 20% होनी चाहिये।* ब्लीच में मौजूद क्लोरीन व अन्य केमिकल कोरोना वायरस की सुरक्षा-परत को तोड़ देते हैं। *इस ब्लीचिंग-युक्त पानी का उन सभी जगहों पर स्प्रे करना चाहिये जहाँ-जहाँ हमारे हाथ लगते हैं।* टीवी के रिमोट, लैपटॉप और मोबाइल फ़ोन को भी ब्लीचिंग-युक्त पानी में भिगोकर निचोड़े गये कपड़े से साफ़ करना चाहिये।

प्रश्न(07):-क्या कीटाणुनाशक दवाओं के द्वारा कोरोना वायरस को ख़त्म किया जा सकता है?

*उत्तर:-* नहीं! कीटाणु सजीव होते हैं इसलिये उनको *एंटीबायोटिक* यानी कीटाणुनाशक दवाओं से ख़त्म किया जा सकता है लेकिन *वायरस निर्जीव कण होते हैं, इन पर एंटीबायोटिक दवाओं का कोई असर नहीं होता।* यानी कोरोना वायरस को एंटीबायोटिक दवाओं से ख़त्म नहीं किया जा सकता।

प्रश्न(08):-कोरोना वायरस किस जगह पर कितनी देर तक बाक़ी रहता है?

*उत्तर:-*
*कपड़ों पर :* तीन घण्टे तक
*तांबा पर :* चार घण्टे तक
*कार्डबोर्ड पर :* चौबीस घण्टे तक
*अन्य धातुओं पर :* 42 घण्टे तक
*प्लास्टिक पर :* 72 घण्टे तक

इस समयावधि के बाद कोरोना वायरस ख़ुद-ब-ख़ुद विघटित हो जाता है। लेकिन इस समयावधि के दौरान अगर किसी इंसान ने उन संक्रमित चीज़ों को हाथ लगाया और अपने हाथों को अच्छी तरह धोये बिना नाक, आँख या मुंह को छू लिया तो वायरस शरीर में दाख़िल हो जाएगा और एक्टिव हो जाएगा।

प्रश्न(09):-क्या कोरोना वायरस हवा में मौजूद हो सकता है? अगर हाँ तो ये कितनी देर तक विघटित हुए बिना रह सकता है?

*उत्तर:-* जिन चीज़ों का सवाल न. 08 में ज़िक्र किया गया है उनको हवा में हिलाने या झाड़ने से कोरोना वायरस हवा में फैल सकता है। कोरोना वायरस हवा में तीन घण्टे तक रह सकता है, उसके बाद ये ख़ुद-ब-ख़ुद विघटित हो जाता है।

प्रश्न(10):-किस तरह का माहौल कोरोना वायरस के लिये फायदेमंद है और किस तरह के माहौल में वो जल्दी विघटित होता है?

*उत्तर:-* कोरोना वायरस क़ुदरती ठण्डक या एसी की ठण्डक में मज़बूत होता है। इसी तरह अंधेरे और नमी (Moisture) वाली जगह पर भी ज़्यादा देर तक बाक़ी रहता है। यानी इन जगहों पर ज़्यादा देर तक विघटित नहीं होता। *सूखा, गर्म और रोशनी वाला माहौल कोरोना वायरस के जल्दी ख़ात्मे में मददगार है।* इसलिये जब तक इसका प्रकोप है तब तक एसी या एयर कूलर का इस्तेमाल न करें।

प्रश्न(11):-सूरज की तेज़ धूप का कोरोना पर क्या असर पड़ता है?

*उत्तर:-* सूरज की धूप में मौजूद *अल्ट्रावायलेट किरणें* कोरोना वायरस को तेज़ी से विघटित कर देती है यानी तोड़ देती है क्योंकि सूरज की तेज़ धूप में उसकी सुरक्षा-परत पिघल जाती है। इसीलिये चेहरे पर लगाए जाने वाले फेसमास्क या रुमाल को अच्छे डिटर्जेंट से धोने और तेज़ धूप में सुखाने के बाद दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

प्रश्न(12):-क्या हमारी चमड़ी (त्वचा) से कोरोना वायरस शरीर में जा सकता है?

*उत्तर:-* नहीं! तंदुरुस्त त्वचा से कोरोना संक्रमण नहीं हो सकता। अगर त्वचा पर कहीं कट लगा है या घाव है तो इसके संक्रमण की संभावना है।

प्रश्न(13):-क्या सिरका मिले पानी से कोरोना वायरस विघटित हो सकता है?

*उत्तर:-* नहीं! सिरका कोरोना वायरस की सुरक्षा-परत को नहीं तोड़ सकता। इसलिये सिरका वाले पानी से हाथ-मुंह धोने से कोई फ़ायदा नहीं है।

Jya Jaya Singh जी

मैं जीऊँगी...

कितनी अजीब बात है
किसी को ज़िंदगी भर प्यार नहीं मिलता
ना माँ का
ना पिता का
ना ही पति का
ना ही किसी का साथ
सिर्फ इसलिए क्योंकि
मैं किन्नर हूँ
ये जिंदगी हैं
ये कोई सोचता ही नहीं
सपने भी
अपने भी
वही ज़ज़्बात
वही रूह
वही खून
फिर क्यों नहीं है साथ
मैं मन क्यों मारू
इच्छा क्यों ना रखूं
इश्क क्यों ना करूँ
ज़िंदगी से
मैं जीऊँगी ,जीने की संघर्ष के लिए
खुश रहने के लिए
हँसने के लिए
अपने अरमानों को
पूरा करने  के लिए
तब तक
जब तक ज़िंदगी मेरी
तेरी जैसी नहीं हो जाती
मैं जीऊँगी

-विद्या राजपूत 

गुरुवार, 9 अप्रैल 2020

पूरी मानव सभ्यता के लिए कोरोना का खुला पत्र.

पूरी मानव सभ्यता के लिए कोरोना का खुला पत्र....✍️श्रिया

कहते हैं प्रकृति अपना विकास हो या विनाश स्वयं कर लेती है.. और शायद आप ये बात भूल गए थे तो उसे ही याद दिलाने ये कोरोना महामारी अपने इस भयावह रूप के साथ वापस आई है...

ये वक़्त एक दूसरे को कोसने या बेफिजूल के बहस में समय व्यर्थ करने का नही बल्कि ये सोचने का है कि, ये पृथ्वी आपको क्या सीखना चाह रही है..? किन वास्तविकताओँ से आपका परिचय करना चाह रही है..?
इन्हीं कुछ मुख्य बातों पर गौर फरमाइए..!

1} शादी:- आजकल 25 लाख से कम में किसी की शादी नही होती.. लेकिन सोचिये की क्या इसकी सच मे जरूरत होती है.. जवाब मिलेगा बिल्कुल नही..सादगी के साथ सिर्फ उतने ही लोग जितनी जरूरत हो जितने की आशीर्वाद हेतु आवश्यकता होती है... दिखावे की इस दुनिया से बाहर निकलने की सीख यह कोरोना बीमारी आपको दे रही है...

2}माल, फ़ूड, मनोरंजन:- इन सब ख्वाहिशों को पूरा करने के लिए आपको बेहिसाब मेहनत करनी पड़ती है ताकि आप जरूरत से ज्यादा कमा सके और उन पैसों को मनोरंजन हेतु मॉल , फूड या फिर लग्जरियस गाड़ी से उतरकर अपनी शेखी बघारने में खर्च कर सके.. लेकिन इस कोरोना वायरस ने सबको एक ही लाइन पर लाकर खड़ा कर दिया है क्योंकि अब आपके पास लंबोर्गिनी भी होगी तो वहआपके घर के बाहर धूल खाती पड़ी होगी और बाहर निकलने के लिए आपको पैदल या साइकिल की ही जरूरत होगी...

3} पैसो की जरूत:- कोरोना आपको यह सिखाना चाह रही है कि आपको आखिर कितने पैसों की जरूरत पड़ती है.. सिर्फ उतनी ही जिससे आप दो वक्त की रोटी खा सकें और अपने परिवार के चेहरे पर खुशी ला सके,  ना कि अपनी पूरी जिंदगी को भागदौड़ में बिताते हुए पैसे कमा कर अपनी परिवार को लग्जरियस लाइफ दे सके.. और इस चक्कर में आप अपनों से दूर हो जाते हैं, परिवार टूट के बिखर जाते हैं ..लेकिन हम अपनी लालच में इस कदर डूबे रहते हैं कि इस बारे में सोचते ही नहीं कि बिना परिवार के यह पैसे किस काम के..?  तो सिर्फ उतना ही कमाए जितना आपके जिंदगी को गुजारने के लिए जरूरी है अधिक धन संग्रह आपको व्यासना की ओर धकेलता है..

4} खुशी का अर्थ:- कोरोना आपको यह सिखाना चाह रहा है कि आखिर जीवन में वास्तविक खुशी क्या है..?
 देश और दुनिया को बदलना आपके बस में नहीं क्योंकि प्रकृति अपने अनुसार स्वयं का परिवर्तन करती है आप मंगल पर पहुंचना चाहते थे,  लेकिन प्रकृति तो धरती पर ही रहना चाह रही थी..और उसने आपको ही उस एक कमरे में बंद करके रख दिया है.. जहां से आप मंगल तो जाना छोड़ घर के बाहर तक नहीं निकल सकते...फिर इतनी हाय तौबा करने से क्या फायदा..!

5}. प्रसिद्धि का पैमाना:- कोरोना ने आपको यह समझा दिया है कि आखिर प्रसिद्धि का क्या पैमाना होना चाहिए अगर वैश्विक महामारी के दौर में आप अपने आस-पड़ोस के लोगों की मदद करते हैं तो आप श्रेष्ठ हैं..
ना कि बड़ी-बड़ी बातें कर,  टीवी पर आने , ऑटोग्राफ देने या भीड़ के सामने हाथ हिलाने वाले को महान समझा जाए.. क्योंकि जब प्रकृति अपने वास्तविक रूप में आती है तब यह सभी जो तथाकथित प्रसिद्ध और महानहस्ति थे..वह भी अपने घर में दुबके बैठे हैं इसलिए श्रेष्ठ या महान बनने के लिए जरूरी नहीं कि करोड़ों लोग आपको जाने बल्कि वे लोग आपको जाने जिनसे आप रोज मुलाकात करते हैं और किसी एक व्यक्ति के भी काम आ सके तो आप श्रेष्ठ हैं..

6.}प्रकृति का न्याय:- पूरा विश्व फिलहाल जलवायु संकट को लेकर चिंतित था लेकिन कोई भी खनन कार्य हो या फिर औद्योगिक कार्य बंद करने को आतुर नहीं था.. एक तरफ तो आप जलवायु परिवर्तन को लेकर बड़ी-बड़ी डींगे हांक रहे थे लेकिन वहीं दूसरी तरफ आपका कार्य निरंतर जारी था .. इसलिए प्रकृति ने अपने आप को फिर से रिकवर करने के लिए आप सभी को अपने घरों पर बिठा दिया...ताकि ना कोई उद्योग काम कर सके ना ही कोई खुदाई हो सके.. जितने बेदर्दी से आपने धरती का सीना चीरा है और इस वायुमंडल को अपने उद्योगों से निकलने वाले धुंवे से बर्बाद किया है.. उसका बदला लेना तो प्रकृति का धर्म था ..बिना देरी के उसने अपने साथ हुए अन्याय का बदला लिया और आप सबको अपनी वास्तविक औकात दिखा दी कि आप सिर्फ अपनी चिंता करें ना कि इस पूरे विश्व की..क्योंकि इस धरती को बनाने वाला मौजूद है..

#imshriya #कोरोना_मंथन

सोमवार, 6 अप्रैल 2020

प्रतिक्रियाएँ


मेरी किताब के शीर्षक ,कवर पेज और भूमिका पर फ़ेसबुक में प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई
इन प्रतिक्रियाओं में शुभकामनाएँ भी है तो गालियाँ भी
जिनके पास जो है वही तो देंगे की तर्ज़ पर मेरा लेखन जारी है
फ़िलहाल आप प्रतिक्रियाएँ देखिए
















शनिवार, 4 अप्रैल 2020

जनआवाज की सुविधानुसार परिभाषा...


मीडिया की विश्वसनियता पर जब सवाल उठने लगे हैं तब यह सवाल मौजूदा वक्त में बेहद जरूरी हो जाता है कि आखिर यह सब हो क्या रहा है? मीडिया की भूमिका में कहा चूक हो रही है। क्या उसने सचमुच जन सरोकार की तरफ से आंख मूंद लिया है? या फिर वह अपनी सुविधानुसार खबरें छापने लगा है? सवाल यह भी है कि क्या सरकार की पसंद नापसंद पर मीडिया की भूमिका सिमटता चला जा रहा है? तब फिर जन सरोकार की पैरवी कौन करें।
सवाल यह नहीं है कि मीडिया की विश्वसनियता क्यों समाप्त हो रही है बल्कि सवाल यह है कि मीडिया अपनी भूमिका निभाने में कहां चूक कर रही है। अपना प्रचार बढ़ाने या टीआरपी बढ़ाने की अंधी दौड़ में वह कहां चली जायेगी। मीडिया की भूमिका विवाद बढ़ाने की है या विवाद को समाप्त करने की है।
मौजूदा दौर में जब सब कुछ बदल रहा है तो मीडिया की भूमिका के बदलाव पर चर्चा जरुरी हो गया है। राजनीति के रंग से दूर जन सरोकार में मीडिया क्योंं पीछे होते चली जा रही है। क्या राजनेताओं की बयानबाजी और भ्रष्टाचार ही मीडिया का एकमात्र हथियार हो गया है या शिक्षा स्वास्थ्य बेरोजगारी बिजली-पानी भी पत्रकारिता का ह्स्सिा है?
राज्य बनने के पहले छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता को जिन उंचाईयों पर देखा जन सरोकार के मुद्दों ने जिस तरह से सरकार की चूलें हिला दी थी। क्या वैसी खबरें राज्य बनने के बाद देखने को मिल रही है। इसका जवाब में ही मीडिया की विश्वासनियता का पैमाना जुड़ा हुआ है।
राज्य बनने के बाद पत्रकारिता ने नई करवट ली। चूंकि छत्तीसगढ़ की राजधानी में मीडिया की बाढ़ आ गई तो पत्रकारिता भी यहीं से चलने लगी। राजधानी में नेताओं अफसरों और माफियाओं के गठजोड़ ने सबसे पहले तो मीडिया को घेरना शुरु किया और विज्ञापन के दबाव तले पत्रकारिता को दबाने की कोशिश होने लगी। नेताओं की बयानबाजी और भ्रष्टाचार की खबरों ने अखबारों या चैनलों की जह को घेरना शुरु किया तब स्कूल में टीचरों या अस्पतालों में दवाओं का अभाव पर खबरें कम होती चली गई। रिपोर्टिंग जैसी चीज तो लुप्त प्राय: होने लगी और यह किसी से नहीं देखा कि कांक्रीट में तब्दिल होते शहर में प्रदूषण का स्तर कहां जा रहा है।
पत्रकारिता के रवैये में आई इस तब्दिली के इस दौर में एक खास बात और हुई कि मीडिया सत्ता केन्द्र के आगे मंडराने लगी और यह सब इतना खुला होने लगा कि आम जन भी इसे आसानी से देखने लगे और यहीं से उनकी विश्वसनियता पर सवाल उठने लगे और जब सवाल उठेंगे तो निशाना भी वहीं होंगे इसलिए जैसे ही सोशल मीडिया का दौर आया सबसे पहले निशाने पर मीडिया ही आया।
मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार करने की कोशिश में वे लोग भी जुड़ गए जो माफियागिरी चला रहे थे। भ्रष्टाचार में लिप्त थे और अनैतिक कार्य कर रहे थे। यह सब साजिशन भी हुआ क्योंकि उनके खिलाफ मीडिया में खबरें आने पर जनआक्रोश बढ़ सकता था तो जनआक्रोश को दबाने के लिए ही मीडिया की विश्वसनियता पर सवाल उठाये गए।

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2020

पैदा होते ही चर्चा में आ गए दोनों बच्चे



रायपुर के मेडिकल कालेज अस्पताल में लगभग एक सप्ताह पहले प्रीति वर्मा ने जुड़वा बच्चों को जन्म दिया था | डॉ. भीमराव आम्बेडकर मेमोरियल अस्पताल के डाक्टरों ने ऑपरेशन कर दोनों बच्चों का जन्म कराया। अस्पताल की जनसंपर्क अधिकारी शुभ्रा सिंह ने बताया कि महिला को लॉक डाउन की स्थिति में जब लेबर पैन की शिकायत हुई तो उसे यहां लेकर आया गया था ।

महिला प्रीति ने बताया कि जब पेट में दर्द उठा कोई वाहन नहीं मिल रहा था। ऐसे में उसके पति ने यहां उसे मोटरसाइकिल में ही बैठाकर उसे अस्पताल पहुंचाया था। यह आधी रात की बात थी। रास्ते में कई जगह उन्हें पुलिसवालों ने रोककर पूछताछ की थी। डिस्चार्ज होने के बाद घर में जब नामकरण संस्कार हुआ तो घर के बुजुर्गों ने बेटे का नाम कोविड एवं बेटी का नाम कोरोना रखने पर सहमति जताई ।
इस बारे में श्रीमती वर्मा ने कहा कि अभी सभी के दिलो दिमाग में कोरोना छाया है।ऐसे में लोगो में कोरोना का भय दूर करने के लिए बेटे का नाम कोविड एवं बेटी का नाम कोरोना रखने का निर्णय लिया। बच्चों के पिता विनय वर्मा ने बताया कि कोरोना संक्रमण को लेकर लोगों में काफी ज्यादा चिंता देखने को मिल रही है, ऐसे में वह इनका ट्रेंडिंग नामकरण करके लोगों का कुछ तनाव कम करने की कोशिश की है। उधर इन बच्चों की चर्चा लोगों की जुबान पर है |

सच को भ्रमित करता ट्रोल आर्मी

कोई माने या न माने, लेकिन यह सत्य है कि पत्रकारिता इन दिनों बेहद नाजुक दौर में है, आलोचना सहन नहीं करने की बढ़ती प्रवृत्ति का सर्वाधिक शिकार पत्रकार ही हुए है। स्वयं की सत्ता स्थापित करने और पैसों की भूख ने पत्रकारिता को ऐसे अंधेरे कमरे में कैद कर लिया है जहां से रोशनी की किरणें भी बेहद बारिक हो चली है। जहां से निकलना मुश्किल नजर आ रहा है।
हमने इसी जगह पर ट्रोल आर्मी के तेवर और इससे होने वाले खतरे को लेकर विस्तार दिया था लेकिन इस दौर में पत्रकारिता के लिए गंभीर चुनौती खड़ा हुआ है। झूठ की चादर इतनी उजली दिखाई देने लगा है कि सच को लेकर भ्रम होने लगा है।
प्रो सरकारी तंत्र से जिस तरह से मीडिया के सच को ट्रोल करना शुरु किया उससे भ्रम तो फैला ही मीडिया की विश्वसनियता को भी कटघरे में खड़ा करने का काम किया और यह सब इतने सलीके से किया गया कि वह आदमी भी मीडिया को गरियाने लगा जिसे अपने रोजी रोटी के अलावा किसी से मतलब नहीं है। मीडिया न हुआ गरीब की लुगाई हो गई जिसके साथ आप जब चाहे कुछ कर लो।
ऐसा नहीं है कि यह सब हाल के वर्षों में हुआ लेकिन चंद सालों में इसे धारदार तरीके से इस्तेमाल किया जाने लगा। दरअसल बगैर संवैधानिक अधिकार के मीडिया ने जिस तरह से राजनेताओं, अधिकारियों और अपराधियों के गठजोड़ पर प्रहार करना शुरु किया तब से ही इन तीनों के गठजोड़ ने अपनी ईज्जत बचाने मीडिया की विश्वसनीयता पर प्रहार शुरु किया।
नेताओं, अफसरों और माफियाओं के गठजोड़़ ने जिस तरह से देश में लूट खसोट की परिपाटी शुरु की उस पर मीडिया ने ही बाधा डाली कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मीडिया के बढ़ते प्रभाव से लुट खसोट में बाधाओं को बर्दाश्त करना इन गठजोड़ के लिए कठिन काम था इसलिए साजिशन मीडिया की विश्वसनियता पर न केवल सवाल उठाये गये बल्कि पत्रकारों की हत्या तक की जाने लगी है। 
अपनी छवि चमकाये रखने मीडिया की छवि को बिगाडऩे के लिए जिस तरह का षडय़ंत्र किया गया वह शोध का विषय है। ऐसे गठजोड़ ने सत्ता के दम पर सबसे पहले ऐसे मीडिया घराने को अपने जाल में फंसाया जो पैसों के दिवाने थे। उन्हें भय और प्रलोभन से ऐसी खबरों के लिए मजबूर किया गयाजो उनके हितों की रक्षा तो करे ही उनकी छवि को भी चमकाने का काम करे। इसके बाद आपराधिक कमाई से मिले धन से स्वयं का मीडिया हाउस खड़ा करने की कोशिश में ऐसे पत्रकारों को अपने जाल में फंसाया जिसके नाम का इस्तेमाल शार्पशूटर की तरह कर ले।
इन सबके बाद भी जब मीडिया को जब वे प्रभावित नहीं कर पाये तब फेंक न्यूज और ट्रोल आर्मी का इस्तेमाल करना शुरु कर दिया। हालात को इस तरह से वे संचालित करने लगे कि आम आदमी की जरुरतों को नजरअंदाज किया जा सके और आम आदमी अपनी जरुरतों की बजाय उन मुद्दों में भटक जाए जिससे उनका ध्यान सरकार की तरफ से हट जाए और वे जाति, धर्म और देशभक्ति में उलझ कर रह जाए।
जन सरोकार के मुद्दे उठाने वालों को इतना ट्रोल किया जाए कि उसकी विश्वसनीयता पर सवाल खड़ा कर दिया जाए। उसे धर्म विरोधी, देश विरोधी साबित कर दिया जाए। राजनीति, अपराधियों और अफसरों के इन गठजोड़़ की वजह से पत्रकारिता के इस नाजुक दौर में जिस तरह से खबरों की विश्वसनीयता संकट में है वह देश के हित में कतई नहीं है। मीडिया हाउस तो पहले ही बंटे थे और अब पत्रकार भी बंटे नजर आने लगे है।

गुरुवार, 2 अप्रैल 2020

नरफत का मुंडन

नफरत का मुंडन
आदमी को आदमी बनाये रखना सबसे कठिन काम है। सत्ता की चाहत ने राजनेताओं को इस तरह स्वार्थी बना दिया है कि वह सहज जन की आस्था ही नहीं उसकी भीतरी ताकत व सुरक्षा को हिलाकर रख दिया है। उसकी अपनी आदमी होने की पहचान धर्म-जाति में सिमटने लगी है।
बचपन में एक कहानी पढ़ी थी। दो सेव के पेड़ आपस में बात कर रहे थे। एक सेव दूसरे सेव से कहता है। देख रहे हो धर्म जाति और रंग को लेकर आदमी इस कदर लड़ रहा है कि देखना एक दिन सब कुछ समाप्त हो जायेगा और हम सेव ही सेव बच जायेंगे। उसकी बात पर सहमति जताते हुए दूसरे सेव ने पूछा था कौन सा सेव? हरा या लाल? यानी यह लड़ाई कभी समाप्त नहीं होने वाली है? लेकिन क्या यह लड़ाई समाप्त नहीं होनी चाहिए?
यह सवाल आज मैं इसलिए उठा रहा हूं कि मुझे लगता है कि आदमी होने का अर्थ ही ज्ञान है, उसकी सोच उसका दिमाग है जो उसे अच्छे-बुरे की पहचान करने की ताकत देता है। इस देश में पूर्वजों की यही सोच ने हमें विश्व में गुरु होने की संज्ञा दी। अलग पहचान दी। पूरी दुनिया में भारत जैसा कोई देश नहीं है तो इसकी वजह हमारे आदमियत के नजदीक होने की कोशिश है। जितने श्रीराम यहां के मिट्टी पानी में बसे है उतने ही श्रीकृष्ण, माता स्वरुप शक्ति या हनुमान बसे हैं, ब्रम्हा-विष्णु-महेश भी हवा में समाये हुए हैं। कभी किसी ने एक दूसरे के मानने वालों पर लाठी-बंदूक नहीं तानी।
गौतम-महावी-गांधी के इस देश में न केवल सबको आश्रय मिला और वे भी आपस में गंगा जमुना की तरह मिल गये। राजशाही के दौर में भी दंगों की बात नहीं सुनी गई। पहला दंगा विश्व में कहां हुआ। यह कौन बपता सकता है? पर यह दावा है कि पहला दंगा कम से कम भारत में नहीं हुआ है। क्योंकि यहां वे लोग रहते हैं जो आदमीयत के ज्यादा नजदीक है। आदमी होने का अर्थ बचपन से ही संस्कार की छुट्टी में शामिल है। घर-परिवार-रिश्तेदारी, गांव-समाज का बंधन इस कदर दिलो-दिमाग में समाया है कि भरा-फरा परिवार में स्वर्ग का सुख देखा जाती है।
इस देश में जहां संस्कृति की रक्षा के लिए श्रीराम और धर्म की रक्षा के लिए श्रीकृष्ण का जन्म होता है वहां आदमियत में जहर घोलने की कोशिश कभी सफल नहीं हो सकती। लेकिन क्षणिक सत्ता सुख की खातिर राजनेताओं का विष वमन विचलित करने वाला है। 
छत्तीसगढ़ में एक कहावत है हंडिया (हंडी) के मुंह में परई (ढक्कन) रख सकते है लेकिन आदमी के मुंह में क्या रखें? यानी आदमी का मुंह कब जहर उगल दे? जिस देश में आदमियत जिन्दा रखने रिश्तेदारी की अहमियत बचपने से समझाई जाती है। धर्म कथाओं व त्यौहारों का उत्सव मनाया जाता है, कर्म के अनुसार फल की दुहाई दी जाती हो। रावण के क्रोध, कंस के अत्याचार और शिशुपाल की बदजुबानी को क्या सिर्फ सत्ता सुख के लिए नजरअंदाज कर दिया जाए।
यह सच है कि कलयुग के पर्दापण के साथ ही बुराईयों का पहाड़ जगह-जगह खड़ा होगा लेकिन क्या हम बुराईयों को समाप्त करने कलि अवतार की प्रतिक्षा में आदमियत में घुलते जहर का घुंट खामोशी से पीते रहे? कर्म के अनुसार फल तो तय है? यह सोचकर कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ाने वाले समाज में नफरत के बीज बोने वालों के प्रति आखिर कब तक खामोशी की चादर ओढ़ कर बैठा जा सकता है?
अमेरिका में सिर्फ काला या गोरा होने पर हत्या कर दी जाती है? क्या हम वैसा ही विकास चाहते आज तो लोग हिन्दू-मुस्लिम सिख-इसाई को आपस में उलझाकर अपना सुख ढूंढ रहे है कल यदि कोई शिव भक्त, कृष्ण भक्त और राम भक्त को आपस में उलझाने लगे तब अजान से नींद खराब होने की बात कहने वाले सिर्फ इसलिए शिव मंदिर या राम मंदिर में चल रहे भजन कीर्तन को बंद कराने की कोशिश नहीं करेंगे कि वह तो ईश्वर खुदा या गाड को नहीं मानता! यह आज्बर की वजह से उसे आने जाने में तकलीफ होती है। उसकी आवाज उसे विचलित करती है। हिरण्यकश्यप ने आखिर प्रहलाद को सिर्फ विष्णु भक्त होने की सजा देना चाहता था। यह बात सभी को समझनी होगी और अजान पर टिप्पणी करने वाले सोनू निगम की तरह जितनी जल्दी नरफत का मुंडन कर दे उतना ही आदमी का आदमी बने रहने की कोशिश में प्रभावी कदम होगा।

बुधवार, 1 अप्रैल 2020

पत्रकारिता पर हावी होती वैचारिकता...

पत्रकारिता पर हावी होती वैचारिकता...
एक जमाना था, पत्रकारों का जबरदस्त रुतबा था। पारे-मोहल्ले में ही नहीं शहरभर में पत्रकारों की धाक होती थी। शासन-प्रशासन का रुह कांपता था। तब पत्रकारिता का मतलब देश समाज की सेवा करना, शासन-प्रशासन की खामियों को उजागर करना। मूलभूत सुविधाएं आम लोगों को कैसे मिले, जनप्रतिनिधियों की बेरुखी पर खबरें प्रकाशित होती थी। तब भी ऐसे पत्रकारों की कमी नहीं थी जो कांग्रेस-भाजपा या वामदलों से प्रभावित होते थे परन्तु खबरों पर यह कभी नहीं लगा कि वे खबरों में अपने विचारों को थोप रहे हैं। वैचारिक खबरों के लिए अलग से पेज होते थे।
परन्तु अब जमाना बदल गया है। पत्रकारिता में ऐसे लोग हावी होने लगे हैं जो अपने विचार हर हाल में खबरों के रुप में प्रकाशित करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। राजनैतिक दलों के ये पट्टाधारी पत्रकार न केवल खबरों को तोडऩे मरोडऩे लगे हैं बल्कि इस बात का भी ध्यान रखते हैं कि खबरों से उनके राजनैतिक दलों या राजनैतिक आकाओं को कोई नुकसान नहीं पहुंचे। ऐसे लोगों को अपने आकाओं से बंधई बंधाई रकम भी मिलते हैं।
छत्तीसगढ़ की पत्रकारिता में आये इस परिवर्तन से पत्रकारों की विश्वसनियता पर सवाल तो उठा ही है। खबरों से भरोसा भी टूटा है। कलम पर हावी होती वैचारिक पत्रकारिता की एक बड़ी वजह अखबारों का व्यवसायिकरण के अलावा सरकारी विज्ञापन भी है। छत्तीसगढ़ में पत्रकारिता का अपना मुकाम रहा है। स्व. माधवराव सप्रे से लेकर स्व. मधुखेर की बात करें या स्व. बबनप्रसाद मिश्र, रमेश नैयर, आसिफ इकबाल से लेकर वर्तमान में पत्रकारिता के मूल्यो के प्रति चिंतित पत्रकारों की कमी नहीं रही। इनमें से कई पत्रकार संघ या कांग्रेस के विचारों से प्रभावित भी रहे परन्तु उन्होंने अपने विचारों को खबरों पर नहीं लादा। किसी खबर में नहीं लगा कि इसमें जरा भी पूर्वाग्रह है। खबरों को लेकर समान दृष्टिकोण की वजह से वे आम लोगों में सम्मान कायम रख सके। 
परन्तु 90 के दशक के बाद जिस तरह से व्यवसायिकता हावी होने लगी  उसका दुष्परिणाम धीरे-धीरे सामने आने लगा। खबरों पर व्यववसायिकता तो हावी होने ही लगी। राजनैतिक दलों ने भी अपने हिंतों के लिए पत्रकारों पर डोरा डालने का उपक्रम शुरु किया। छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद तो अखबारों पर सरकारी विज्ञापनों का असर साफ दिखने लगा। सत्ताधारी की खबर देखने वाले पत्रकारों की रहन सहन की स्थिति में बदलाव साफ महसूस किया जाने लगा। सरकार को लेकर खबरें कैसी और कौन सी जानी चाहिए इस पर तो नजर रखी ही जानी लगी। किसे कौन सा बीट दिया जाए ताकि अखबारों को भरपूर विज्ञापन मिले। इसका भी ध्यान रखा जाने लगा। राजनैतिक दलों का पट्टाधारी पत्रकारों में अचानक वृद्धि होने लगी। ये न केवल अपने दलों के हित में विज्ञप्तियां बनाने लगे। बल्कि विरोधियों के हर कदमों से अपने राजनैतिक आकाओं को आगाह करने लगे। एक दल के नेता का प्रेस कांफ्रेंस की खबर विरोधी दल के नेता के पास कांफ्रेंस समाप्त होने के पहले ही पहुंचने लगा। इसके एवज में नगद गिफ्ट सब चलने लगा है।
जब पहले वाले दिन रहे तो यह दिन भी नहीं रहने वाला है। परन्तु वर्तमान में जिस तरह से पट्टाधारियों का वजन बढ़ा है। वह हैरान कर देने वाला है। क्षीण होती वैचारिक पत्रकारिता के इस दौर में अब भी ऐसे पत्रकार हैं जो पत्रकारिता के मूल्यों को लेकर न केवल चिंतित है बल्कि मूल्यों की रक्षा में लगे है। परन्तु व्यवसायिकता के इस दौर में पट्टाधारियों की बढ़ती आमद चिंतनीय तो है कि इसके परिणाम भी भयावह हो सकते है।