सोमवार, 8 मार्च 2021

समय लिखेगा अपराध...



एक तरफ फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को अमेरिका के विदेश सचिव ने स्वीकार करते हुए दरियादिली दिखाई है और कहा है कि हाल के सालों में जो कुछ हुआ उसमें अमेरिका सरकार सुधार लायेगी तो दूसरी तरफ भारत सरकार ने इस रिपोर्ट को भ्रामक, गलत और अनुचित कहा है?

ेऐसे में भारत के हर नागरिक को फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट पढऩी चाहिए और फ्रीडम हाउस द्वारा आंशिक रुप से स्वतंत्र कहने वाले मुद्दों के अलावा दूसरी बातों को भी गौर करना होगा? एक तरफ हम 21वी सदी में भारत की तरक्की और अच्छे दिन आयेंगे के सपने में जी रहे हैं तो दूसरी तरफ नागरिक स्वतंत्रता का क्या हाल है यह किसी से छिपा नहीं है।

जिस देश में आज भी लिंग भेद, जाति और धर्म के नाम पर न केवल विभाजन रेखाएं खींची जाती है बल्कि कानूनन भेदभाव होता है, वहां आजादी का मतलब आसानी से समझा जा सकता है। सत्ता और राजनैतिक दलों की मनमानी, उनके झूठे वादों पर कानून की भूमिका पर कितने ही सवाल उठते रहे हैं। माफिया, आतंक की परिभाषाएं तक सुविधानुसार बदलती रही है।

हमने पहले ही कहा है कि इस देश में चुनाव करा लेना और कुछ भी बोल देना को ही लोकतंत्र मान लिया गया है, जबकि लोकतंत्र का मतलब नागरिक अधिकार से जुड़ा हुआ है, लेकिन नागरिक अधिकार का कोई मतलब ही नहीं रह गया है। बोलने की आजादी के नाम पर सत्ता के साये में कुछ भी बोले जाने की छूट है लेकिन सत्ता विरोधी स्वर को देशद्रोही मान लिया जाता है।

कोरोना काल में तब्लीकी जमात पर कोरोना फैलाने का आरोप लगाकर क्या एक धर्म विशेष पर निशाना साधने की कोशिश नहीं हुई, किसान आंदोलन के दौरान भी खालीस्तानी और आतंकवादी बताकर क्या धर्म विशेष पर निशाना नहीं साधा गया। इस आंदोलन के दौरान नमाज पढऩे मुस्लिमों का वीडियो जारी कर क्या बताने की कोशिश हुई।

दिल्ली के सड़कों के नामकरण को लेकर की जा रही टिप्पणी किसे निशाना बनाने किया जाता है? ऐसे कितने ही सवालों को आप छोड़ दे तो थानों में रिपोर्ट लिखने की स्थिति, अदालतों में तारीख पर तारीख क्या लोकतंत्र और नागरिक स्वतंत्रता की आदर्श स्थिति है। आम कहावत है आप कितने भी सच्चे और ईमानदार रहे एक बार ताकतवर के चंगुल में फंस गये तो न्याय धरा का धरा रह जायेगा। ताकतवर तारीख लेता रहेगा और ईमानदार थक कर स्वयं से हार जायेगा?

हम यहां फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को जस्टिफाई नहीं कर रहे हैं बल्कि हमारा कहना है कि न्याय यदि विलंब से मिले तो उस न्याय का कोई अर्थ नहीं रह जाता। विरोध के स्वर को देशद्रोह कहकर हम क्या अपने ही नागरिकों के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार नहीं कर रहे है। हाल के वर्षों में तुष्टीकरण और धर्मनिरपेक्ष शब्दावली पर प्रहार करके किसे निशाने पर लिया जाता है।

प्रवीण तोगडिय़ा, हरेन पंड्या और आडवानी को किनारे करने की राजनीतिक मजबूरी को सब जायज करार देने वाले ये भूल जाते हैं कि पड़ोसी के घर में आग लग जाये तो चुप बैठने का अर्थ स्वयं के घर को भी आग में झोंक देना है। जेएनयू आंदोलन हो सीएए आंदोलन, नोटबंदी के खिलाफ आंदोलन हो, या किसान आंदोलन हर उस विरोध के स्वर को देशद्रोह का रुप दिया गया, रोहित वेमुला से लेकर कितने दलित आज भी दबंगों के आगे न्याय मांगने मर जाते हैं!

ऐसे में फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को सिरे से नकारने का क्या मतलब है? जब सत्ता के इशारे पर इडी, आयकर सीबीआई के छापे पड़ते हो और धर्म और जाति के आधार पर हमले होते हो!