सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

जिम्मेदारी कहां है...

 

यह दौर अजीब है, खुद की जिम्मेदारी से भागती मोदी सत्ता ने अपनी जिम्मेदारी से बचने दोषारोपण का सहारा लेने लगी है और इस खेल में ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप यूनिवर्सिटी की भूमिका किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार कर सकती है!

और जब सत्ता जिम्मेदारी से बचने लगे तो फिर इसका साफ मतलब है कि नियत ठीक नहीं है और जब नियत ही ठीक न हो तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है।

इन दिनों संसद से लेकर सड़क तक बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी किसानों का मुद्दा छाया हुआ है। ऐसे में सत्ता की जिम्मेदारी है कि वह किसानों से बातचीत करके कोई रास्ता निकाले या फिर तीनों कृषि कानून ही रद्द कर दे लेकिन सत्ता अपनी जिम्मेदारी निभाने की बजाय आंदोलन तोडऩे में पूरी ताकत लगा रही है। पहले तो उन्हें आतंकवादी, नक्सली देशद्रोह कहा जाने लगा फिर दीवारें खड़ी की गई। सड़कों पर छड़ो की कीलें लगाई गी, रसद-पानी-बिजली इंटरनेट तक बंद किया गया। किसानों के खिलाफ इस तरह से विषवमन किया गया मानों वे आंदोलन करके दुश्मन हो गये है। और जब पूरी दुनिया का ध्यान इस मानवाधिकार हनन पर होने लगा तो इसे एक बार फिर भारत को बदनाम करने की साजिश बताई जा रही है जबकि हकीकत यह है कि पूरी दुनिया में अभी भी ऐसे लोग हैं जो मानवाधिकार के उल्लंघन पर तीखी प्रतिक्रिया देकर किसी भी देश की सत्ता को बेचैन कर देते है।

इस मोदी सत्ता की दुविधा यही है कि वह मीठा गप्प गप्प तो करती है लेकिन कड़वा के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराती है, संसद  न चले तो विपक्ष जिम्मेदार, जीएसटी में तकलीफ हो तो कांग्रेस ला रही थी, किसान आंदोलन हुआ तो यह बिल कांग्रेस ली रही थी। इसका क्या मतलब है। क्या तब भाजपा विरोध में नहीं खड़ी थी और जब वह विरोध में खड़ी थी तो आज यह सब क्यों कर रही है।

लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वह हर असहमति के स्वर को देशद्रोही का नाम देती है जबकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि कुछ और ही कहता है।

संसद में संजय सिंह ने पूछा भी कि यदि जीएसटी कांग्रेस, किसान कानून कांग्रेस लाने वाली थी इसलिए भाजपा ले आई तो फिर पार्टी का नाम ही कांग्रेस, बी कांग्रेस ही कर देना चाहिए। सवाल कई है जिसे पूछा जाना चाहिए कि आखिर स्टॉक सीमा में छूट देने का अर्थ क्या है, क्या यह महंगाई, कालाबाजारी को बढ़ावा देना नहीं है लेकिन यह सवाल कोई नहीं पूछेगा? क्योंकि अति राष्ट्रवाद और धर्मान्धता किसी कोढ़ से कम नहीं है। यह बात हरिशंकर परसाई जी ने जब कही थी तब कितनों को इस पर यकीन रहा होगा ! लेकिन आज की परिस्थितियां यह चिख चिख कर कह रही है कि अति सर्वेत्र वर्जते ! अति का अंत होता ही है और किसान आंदोलन ने जिस शांतिपूर्ण ढंग से अपने को विस्तार दिया है वह किसी भी सत्ता के लिए बेचैन कर देने वाला है।