शुक्रवार, 19 मार्च 2021

पितृ सत्ता का रोग...


21वीं सदी के सफर के बाद भी पितृ सत्ता अपनी सलतनत की मनमानी छोडऩे तैयार नहीं है वह कभी फटी जींस पर झांकने लगती है तो कभी पहनावे से जाति-धर्म की पहचान करती है। घोर धार्मिकता प्रदर्शित करने वाले ये लोग महादेव की जयकारा तो करते हैं लेकिन अर्धनारिश्वर के लिए एक इंच जगह छोडऩे को तैयार नहीं है।

लिबास को संस्कार और राष्ट्रवाद से जोडऩे वालों की बुद्धि पर यह देश सालों से तरस खा रहा है लेकिन इनकी बेशर्मी कम नहीं होती। आज हम जिस दैार में जी रहे है उसकी अनदेखई करना न केवल बौद्धिक दिवालियापन है बल्कि देश के पुरातन संस्कृति को नकारना भी है।

ऐसे में पंडित जवाहर लाल नेहरु को गरियाने वालों के समर्थन करने वाली महिलाओं को यह याद रखना चाहिए की जब पंडित नेहरु ने महिलाओं को पैतृक सम्पत्ति में बराबर का हकदार बनाने और पितृ सत्ता की मनमानी और अत्याचार से मुक्ति के लिए हिन्दू कोड बिल लाने लगे तो किन लोगों ने खिलाफत की और यह हिन्दू कोड बिल क्या था।

बात 1941 की है, हिन्दू प्रॉपर्टी लॉ कमेटी बनाकर सम्पत्ति के हस्तांतरण के लिए, जिसके अध्यक्ष बीएन राव थे। लेकिन भारत छोड़ो आंदोलन की वजह से यह काम रुक गया। लेकिन 1944 में इसी कमेटी को फिर अपडेट किया गया। इस कमेटी ने आजादी के कुछ महीने पहिले 1947 में अपनी रिपोर्ट दी। लेकिन इससे पहले महिलाएं जान ले कि तब व्यवस्था क्या थी?

इस कमेटी के रिपोर्ट के पहले व्यवस्था थी कि महिलाओं को सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं था पिता की संपत्ति केवल बेटों को मिलता था, पत्नी के गुजारे का पति पर कोई दायित्व नहीं था, पति की सम्पत्ति पर भी अधिकार नहीं था, पति से रिश्ता जन्म जन्मांतर का था।

हिन्दू कोड बिल इन सारे प्रावधानों को खत्म करने वाला था, बेटी को सम्पत्ति पर अधिकार, बहु विवाह पर रोक, गुजारे भत्ते का प्रावधान इस बिल में खास प्रावधान थे। इस बिल के विरोध में उतरने वालों में श्यामा प्रसाद मुखर्जी, हिन्दु महासभा और संघ अगुवाई करने लगे। कांग्रेस के भीतर राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल और तत्कालीन अध्यक्ष पुरुषोत्तम दास टंडन प्रमुख थे।

दूसरी तरफ थे डॉ. भीमराव अम्बेडकर और पंडित नेहरु। नेहरु भी अड़ गये उन्होंने साफ कह दिया कि  वे यदि यह बिल पास नहीं करा पाये तो उनके प्रधानमंत्री रहने का कोई अर्थ ही नहीं है। तो राजेन्द्र बाबू ने भी कह दिया कि राष्ट्रपति किसी भी बिल पर हस्ताक्षर करने बाध्य नहीं है। बढ़ते विरोध के बीच यह भी कहा जाने लगा कि नेहरु चुने हुए नेता नहीं है फिर वे कैसे इतना बड़ा फैसला कर सकते है? यह सवाल नेहरु को साल गया और उन्होंने कहा चुनाव के बाद ये बिल लायेंगे। अम्बेडकर ने बिल पास नहीं कराने के फैसले के विरोध में केबिनेट से इस्तीफा दे दिया।

चुनावी बिगुल फूंका गया। नेहरु हर सभा में इस बिल का जिक्र करते और भारी जीत के बाद संसद में यह बिल पास कराया। बेटी को पिता की सम्पत्ति में अधिकार और बहुविवाह पर रोक क्रांतिकारी फैसले सिर्फ नेहरु की जिद् से पूरी हुई।

हम नहीं कहते कि विरोध के उन चेहरों को याद रखिये लेकिन महिलाओं को अत्याचार और पितृसत्ता की मनमानी तो याद रखना ही होगा क्योंकि यह एक बीमारी है जो कभी भी फटी जींस से आ सकती है।