मंगलवार, 20 दिसंबर 2016

मिडिया पर मिडिया का प्रकाशन शीघ्र

मिडिया पर मिडिया का प्रकाशन  शीघ्र
मैं और मेरा प्रेस क्लब की अपार सफलता और रिकार्ड तोड़ बिक्री के बाद मेरी दूसरी पुस्तक मिडिया पर मिडिया तैयार है। ..... कवर पेज बन गया है। ....... शीघ्र छपने जा रहा है
आपका प्यार फिर चाहिए।

गुरुवार, 12 मई 2016

स्वास्थ्य मंत्री की मीडिया को सलाह...

स्वास्थ्य मंत्री की मीडिया को सलाह...
http://midiaparmidiaa.blogspot.in/

शनिवार, 7 मई 2016

जो घर फूंके अपना के चले हमारे साथ...


कबीरदास की यह पंक्ति कभी मीडिया के लिए उदाहरण हुआ करती थी। आलोचना तब भी बर्दाश्त के बाहर की बात थी। परन्तु समय बदला तो मीडिया का रुख भी बदल गया। बाजार वाद में कबीर की यह पंक्ति कहीं खो गई। अखबार कमाई का जरिया बनने लगा और 90 के दशक के बाद इस पेशे में दो तरह के लोग आने लगे। एक वे जो इस पैसे के बाजारीकरण से प्रभावित हुए और व्यवसाय के रुप में इसे देखते थे। दूसरे उस तरह के लोग अखबार या चैनल लांच करने लगे जो गलत सलत ढंग से अनाप शनाप पैसा कमाये और अपने धंधे को संरक्षण देने का उद्देश्य लेकर आये।
छत्तीसगढ़ में भी दूसरे किस्म के लोगों की संख्या अधिक रही जो गलत सलत कामों से पैसा कमाकर अखबार खोलने लगे और शासन प्रशासन में रुतबा बनाने की कोशिश में लग गये। इसमें एक नाम बालकृष्ण अग्रवाल का प्रमुखता से लिया जा सकता है। हालांकि अपने अखबारों को नामचीन पत्रकारों को नौकरी पर रखने के बावजूद ऐसे लोगों के मंसूबों को जनमानस ने कभी तवज्जों नहीं दी परन्तु ऐसे लोगों को मंत्री व प्रशासनिक स्तर पर तवज्जों जरुर मिली।
अभी भी ऐसे लोग अपने कुकर्म छुपाने अखबार का सहारा ले रहे हैं परन्तु जनमानस अच्छे कर्मों को जानते हुए उनके अखबार को तवज्जों नहीं देते। सुबह शाम हो या दोपहर हो या मैग्जिन इस तरह के लोगों को नेताओं और अधिकारियों का संरक्षण प्राप्त है। ये लोग पत्रकारों को अपने निजी फायदे के लिए शार्प शूटर की तरह इस्तेमाल करना जानते है।
इस कड़ी में अब एक और नाम उभर कर सामने आया है। डाक्टरी के पेशे में नाम कमा चुके इस शख्स को पता नहीं कैसे अखबार खोलने की चूल लग गई है। इसे चूल किसने लगाया यह तो वही बता पायेंगे परन्तु अखबार के रुतबे से प्रभावित इस डाक्टर ने अखबार तो शुरु कर रहा है परन्तु इसकी दिक्कतों से वह अनजान है। अखबार खोलना कभी उस कहानी की तरह है जिसमें दुश्मनी भुनाना हो तो किसी को ट्रक खरीदने की सलाह दे दो। जिस तरह से ट्रक खरीदने वाला डीजल पम्प, मिस्त्री से लेकर ड्राइवर तक से त्रस्त रहता है और कर्ज में डूबता चला जाता है ठीक उसी तरह दैनिक अखबार चलाने वाला यदि आज के समय में सौ करोड़ से कम का आसामी है तो उसे कर्ज के जाल में फंसने से कोई रोक नहीं सकता। थोड़े से ऊंच नीच मं वह शासन-प्रशासन के कोपभाजन का शिकार भी होता है। फिर पत्रकारों को काम पर खना वैसे ही कठिन काम है। और यदि सर्कुलेशन कम हुआ तो फिर उसे जनसंपर्क विभाग भी आंख दिखाकर पसीना छुड़ा सकता है।

सोमवार, 18 अप्रैल 2016

मुकाबले से भागना



कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के चेहरे में भीषण गर्मी की परेशानी साफ झलकने लगी। इधर उधर देखते, कसमसाते हुए अंतत: उन्होंने दीक्षांत समारोह में पहनाये गाउन को उतार ही दिया। बगल में बैठे प्रदेश के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह की मुस्कान का अर्थ क्या था यह तो वही जाने परन्तु गृहमंत्री राजनाथ सिंह की परेशानी उनके चेहरे से साफ झलकने लगा था।
विगत सालों में रायपुर के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। हर आदमी परेशान है। गांव-बस्तियों से विकास के नाम पर पेड़ों की बलि चढ़ाई जा रही है। गर्मी की बढ़ती अकुलाहट से आदमी का दिमाग अब एसी-कूलर से निकलकर जंगल की तरफ भागने लगा है। पेड़ लगाओं, पानी बचाओं की चिल्ल पौ शुरु हो गई है। राउण्ड टेबल कांफ्रेंस में बोतल बंद पानी के साथ गर्मी प्रदूषण से निजात की योजनाएं बनाई जाने लगी। एक वर्ग है इस देश में जो सिर्फ सीख देता है और एक वर्ग विपक्ष है जो केवल आलोचना करता है। सत्ता के बाहर कुछ सत्ता में आते ही कुछ। बेचारी जनता के पास तो गाउन उतारने तक का अधिकार नहीं है।
वेद कहता है - या मृध, तेन व्यक्तेन भुंजीथा। लालच मत करो और धन का त्यागपूर्वक भोग करो। परन्तु उत्तर आधुनिकता के  इस सोपान पर खड़े सत्ताधारी को इस गुढ़ वाक्य से क्या लेना देना। उसे तो हर हाल में सुविधा चाहिए। सुविधा इस कदर हावी हो गया है कि वह कठिन परिस्थितियों में विचलित हो जाता है। सीधा मुकाबले से दूर भागता है। दुश्मन के प्रत्यक्ष वार को भी वह छद्य वार के रुप में देखता है। पाकिस्तान लगातार इस देश को अस्थिर करने की कोशिश में लगा है। आतंकवाद और घुसपैठ के चलते आम आदमी की सुरक्षा पर प्रश्न चिन्ह है। कहां-कब किस तरह से आम लोगों की जिन्दगी के परखच्चे उड़ा दिये जाएंगे कोई नहीं जानता। सीमा पर नियंत्रण रेखा के पास सीज फायर का लगातार उल्लंघन हो रहा है। पाक के चौतरफा वार से भले ही हम घबराते नहीं है परन्तु सीधी कार्रवाई से हमारे हाथ-पांव फूल जाते है। देश हमारा, शिकार हम हो रहे हैं फिर मुकाबले की बजाय विश्व बिरादरी को गाउन की परेशानी को दिखाने की कवायद कितनी जायज है।
दीक्षांत समारोह में  और भी लोग मौजूद थे जो गाउन पहने थे। गर्मी उन्हें भी लग रही थी। परन्तु गृहमंत्री राजनाथ सिंह ही गर्मी नहीं सह पाये जबकि राजनाथ सिंह की परेशानी देख मुख्यमंत्री रमन सिंह मुस्कुराते रहे। उनके मुस्कान का क्या अर्थ है। क्या वे इस असहज होते माहौल को सहज कर रहे थे या राजनाथ की गर्मी तक नहीं सहपाने का अर्थ ढूंढ रहे थे।
दोनों ही बातों का अपना अर्थ है। त्याग से भोग करने में मानव मजबूत होता है समाज में समता और समन्वय स्थापित होता है जबकि भोग से भोग आदमी को सुविधा भोगी ही नहीं बनाता बल्कि मुकाबले के लिए भीतर से मन को खोखला कर देता है। राष्ट्र का अहित तो होता ही है। आदमी स्वयं को दिलों दिमाग से कमजोर कर लेता है। वह तब दुश्मन से सीधे मुकाबले से परहेज करता है। सुविधा छिन जाने के भय से ही वह मुकाबले से दूरी बना लेता है।
परन्तु आम आदमी इस विषम परिस्थिति को हंस कर झेल लेता है उसके पास छिन जाने का भय नहीं है। उसे तो हर हाल में संघर्ष करना है। वह जानता है सोना तपकर ही खरा होता है। गाउन की परेशआनी समय आने पर उतर ही जायेगा। इसी विश्वास में वह गर्मी को भी हंसकर सह लेता है।

बुधवार, 6 अप्रैल 2016

आतंकवादी से खतरनाक है सड़कें

आतंकवादी से खतरनाक है सड़कें
आतंकी सड़कों में पहचान की जद्दोजहद 
एक शेर है ---
घर से निकलो तो पता जेब में रखकर निकलो।
हादसे चेहरों की पहचान मिटा देते हैं ।।
पहचान मिटने के गुनहगार तो हम सब हैं। सच को मानने  का हौसला किसी के पास नहीं है।  विकास की राह में कुछ ऐसा घालमेल हुआ है कि खिड़कियों को हमने खोलना बंद कर दिया है। रेल और हवाई जहाज और ६-८ लेन की सड़कों को देख हमने दुनिया नाप लेने का मन बना लिया है।  परन्तु इन्ही  सड़कों में अपनी पहचान गंवा रहे लोगों की तरफ मुंह मोड़ लिया है।  चाँद और मंगल तक के सफर में हमने खूब सीने  चौड़े किये हैं , परन्तु इसके प्रभाव की तहजीब हम आज भी नहीं सीख पा  रहे हैं।
विकास की हमने नई परिभाषाएँ गढ़  ली है।  एक तरफ पुराने को ढहाया जा रहा है,और दूसरी तरफ नए के जोश से हमारे होश गायब है। नई रफ़्तार के वाहनों का रेलमपेल हमने  सड़कों पर तो उतार दी , सड़के भी चौड़ी कर दी , परन्तु इस रफ़्तार में पहचान खोने का भान ही नहीं रहा। हमने इस सवाल का उत्तर जानने की कोशिश ही नहीं की, कि रफ़्तार में पहचान कैसे बनाए रखे।  चौड़ी सड़के , तेज रफ़्तार के इस विकास में हमें स्वयं की पहचान बनाए रखना कितना जरूरी है।  यदि स्वयं की पहचान कायम नहीं रख पाए तो इन चौड़ी  सड़कों का औचित्य ही क्या रह पाएगा।
नियम-कानून इसलिए बनाए जाते है,ताकि सब कुछ व्यवस्थित चले। समाज सुखी व् आनंद से रहे , हमने हजारों साल पहले एक यात्रा शुरू की थी। बच्चा पहले माडी के बल चलता है,फिर वह खड़ा होकर चलने की कोशिश करता है। इस कोशिश में वह माँ की ऊँगली का सहारा लेता है,फिर धीरे-धीरे वह चलता है,दौड़ता है। कुछ बड़े और कुछ स्वयं के तजुर्बों से वह सीखता है। वह दौड़ता है,परन्तु कितने लोग पूरा जीवन अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो पाते।
यही हल इन दिनों विकास की आंधी में अपने को घालमेल कर लेने वालों का है। रफ़्तार वाली गाड़ियां लेकर वे  सड़कों पर निकल जाते हैं , उन्हें लगता है,हैंडल उसके हाथ में है,ब्रेक पांव में है। तब खतरा किस बात का। वे खतरों को जानना ही नहीं चाहते। वे मोटर यान अधिनियम के जरूरी मापदंडों को समझना ही नहीं चाहते। मोटर साइकल वालों को हेलमेट व्यर्थ का बोझ और चार पहिया वालों को सीट बेल्ट बेवजह का बंधन लगता है। परन्तु वे भूल जाते हैं कि  सिर्फ इस बोझ और बंधन की वजह से सड़क दुर्घटना में २० से २५ फीसदी कमी आ सकती है , किसी अनहोनी में उनकी पहचान कायम रह सकती है।
पुरे देश में रफ़्तार की वजह से मरने वालों की संख्या हर साल लाख से उप्र है। छत्तीसगढ़ में ही यह आंकड़ें हर साल चार हजार से ऊपर पहुंच रही है। छत्तीसगढ़ में वर्ष 2014 में बारह हजार से अधिक लोग मारे गए,जबकि इतने ही लोग अपाहिज  हो  गए।   सिर्फ  सड़के चौड़ी हो जाने से या रफ़्तार कम हो जाने  से दुर्घटनाएं नहीं टलती , इसके लिए जरूरी है , मोटर यान अधिनियमों का पालन करना। हम हर बात पर सरकार को दोषी नहीं ठहरा सकते। हेलमेट पहनना जरूरी है,यह स्वयं को समझना होगा। सीट बेल्ट बांधना है,यह स्वयं की तहजीब में शामिल होना चाहिए।
हम जिस तरह से नौकरी के लिए तयशुदा समय में पहुंचते हैं,उसी तरह से हमे अपनी सुरक्छा का तहजीब धर्म और कर्तव्य की तरह निभाना पड़ेगा। सामान्य तहजीब नहीं सिखने वालों की वजह से उनका परिवार तबाह हुआ है। कोई अपाहिज होकर बोझ बन रहा है , तो कोई किसी बच्चे को अनाथ और महिला को विधवा होने का संताप दे रहा है।  संवेदना मशीनों के बीच खड़ी होकर फुर्र हो रही है। हम चीटीं का पेट नहीं बना सकते ,हम खरगोश के कान नहीं गढ़ सकते,तो फिर स्वयं को इस तरह मौत के मुंह में डालने की अनजानी कोशिश क्यों करनी चाहिए। जब हमने स्वयं को बनाया ही नहीं तो फिर मिटाने के लिए क्यों तुले हैं। हमने नक्सली हमले और आतंकी हमले में मरने वालों के आंकड़े इकठ्ठे किये। इस पर बवाल भी मचाया पर क्या किसी ने सड़क दुर्घटनाओं के आंकड़ों  को जानने की कोशिश  की। सड़क हादसों में मरने वालों की संख्या किसी भी नक्सली और आतंकी हमले से  आहत लोगों की संख्या से  अधिक है। हमने अपने इन करतूतों पर कभी बवाल नहीं मचाया। मोटर यान अधिनियम की अनदेखी ने सड़क को आतंकी के रूप में खड़ा कर दिया है,परन्तु इसकी चिंता कंही दिखाई नहीं देती।
यह सच है  कि मृत्यु अवश्वम्भावी है पर  तरह स्वयं होकर मृत्यु का आव्हान करना कितना तर्क संगत है। विश्व का सारा चिंतन मनन इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि मानव और मानवता से बड़ा कुछ नहीं है , फिर जो नियम बने हैं उसे हमारे द्वारा चुनी सरकारों ने ही बनाए हैं,तब भला इन नियमों के साथ चलने में असुविधा कैसी ? चलो हेलमेट के बोझ और सीट बेल्ट के बंधन  अंगीकार कर अपनी पहचान बचा लो। सड़कों को आतंकवादी बनने से रोक लो।


सोमवार, 4 अप्रैल 2016

नवरात्रि की ज्योति

नवरात्रि की ज्योति
त्यौहार सावन में बहते झरने की तरह जीवन में प्रवाह पैदा करता है। वह सूरज की चमक पैदा करता है तो चाँद की शीतलता को अंगीकार करता है।  इससे हमारी आस्थाओं की फसले पुष्ट होती है।  हरी होती है,और एक सुगंध फैलाती है,जो मानव को मानव बना रहने का रास्ता होता है।  भारतीय जीवन ने इस गहरी पैठ को समझा है। ज्ञान और कर्म के इस अद्भुत मेल का नाम ही तो त्यौहार है। समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े व्यक्ति को खुशियां मनाने का हक है,और त्यौहार के माध्यम से वह मंदिरों के चौखट तक आकर सब संग साथ खड़े होते है।  जात -पात  के बंधन से परे नवरात्रि की ज्योति सबको समान रूप से ऊष्मा , ऊर्जा प्रदान करती है।
फाल्गुन के उत्साह व् रंग में सराबोर पकृति मदमस्त होकर झूमती है तब भाषा बोली का भेद मीट जाता है।  स्वयं के भीतर के विकास को रंगो से साथ धोने का कर्म पूरा एक पक्छ चलता है।  होलिकोत्सव  से रंगपंचमी बीच  कितने  विकारों में रंगो की खूबसूरती चढ़ जाती है। फिर इन्हे उतारने में समय तो लगता ही है। चैत्र के पहले पक्छ में रंगो के साथ विकार भी उतरने लगता है। समय का यह अद्भुत संयोग है।कृष्ण व शुक्ल पक्छ का यह मेल जीवन  में सुख - दुःख  की तरह आता जाता है। समय के चक्र से कौन अपने को बचा सका है।
लहलहाते खेत देख पकृति भी आन्दित है,किसान आन्दित है,पूरा घर अभिलाषा करता है कि फसल अच्छे से पके,पेड़ों का हरापन और बिज का प्राण बचा रहे।  जीव   और जीवन को पोषण देने वाली वसुधा मुस्कुराती रहे।  पर रक्तबीज,महिषासुर ऐसा कंहा होने देना चाहते है वे तो स्वयं की सत्ता स्थापना में सब कुछ तहस -नहस कर देना चाहते है। वसुधा का हरापन छीन लेना चाहते है। मानव-मानव को वे राकछस बना देना चाहते है। रक्तबीज के पास वरदानी शक्ति है। शक्ति हर कोई कंहा संभाल पाता है। फिर शक्ति का अर्जन स्वयं की सत्ता स्थापना के लिए किया गया हो तब भला मर्यादा नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है।  रक्तबीज अपनी शक्ति से वसुधा का प्राणशक्ति मिटा देना चाहता है। परन्तु प्राणशक्ति , वसुधा का आधार है। देवो के देव महादेव यह सब कैसे देख सकते थे,वे शव हो जाते हैं,शिव का ई निकलकर शक्ति-पूंज बन जाता है। ई नौ रूपों में जयन्ती,मंगला,भद्र-काली,कपालिनी,दुर्गा,छमा,शिवा,धात्री,स्वाहा ,स्वधा,वसुधा की प्राणशक्ति और आसुरी शक्ति  के बीच खड़ी  हो जाती है। सूर्य,चन्द्र,ग्रह , नछत्र , जल,वायु,अग्नि,आकाश,पेड़-पौधे,पशु-पकछि,मानव की यात्रा निर्बाध चलती है। यात्रा हमारे जीवन का आधार है। इसमें निरंतरता बनी रहे। सभ्यता,संस्कृति और चिंतन की धाराओं में मनुष्य डुबकी लगाता  रहे। उषा मनुष्य का अभिषेक करती है। भाषा- बोली,खान-पान के भीतर का असली स्वाद प्राणशक्ति की तरह संचारित होता रहे।
खल्लारी,डोंगदगड , मैहर की ओर चलने वाली गाड़ियां खचाखच भर जाती है। नौ दिन भीड़ अनुशासन के वृत्त में गम हो जाता है। भीड़ का यह अनुशासन ही भारत की पहचान है। व्यक्ति के दायरे से बाहर आकर समाज का नया  व्यक्तित्व रचने का यह अद्भुत संयोग नवरात्रि लेकर आता है।
विकास और भौतिकता की आज के इस अंधी दौड़ के बीच भी यदि परकोटे में चिड़िया के लिए पानी व् दाना रखा जाता है,तो इसका मतलब रक्तबीज या महिषासुर नहीं मनुष्य का मनुष्य होने का भाव है। बिटियाँ  रंगोली बनाती है।  माँ चौका पुरती है। लकीरे शुरू होती है,रंगोली सज जाती है,रंगोली की शुरुवात किस लकीर से हुई कोई नहीं बता सकता।  रंग भरते चला जाता है। खूबसूरती धरती में आकृति लेकर मन मस्तिष्क तक समा जाता है। चौक-कलश को आमंत्रण देते हुए  ज्योति प्रज्वलित हो जाती है। जीवन की राह रोशन हो जाती है। रोशनी भ्रम मिटा देता है,भेद मिटा देता है,ज्योति लोगो के भीतर तक प्रकाश बन जाता है।
देवी मंदिरों तक पुरे नौ दिन भीड़ ही भीड़ है। भीड़ में चेहरे गुम है। दोनों हाथ की हथेलिया आपस में स्वतः मिल जाती है , श्रद्धा से सर झुक जाता है। सबके मस्तिष्क में चेतना एक सी हो जाती है। आदमी मैं से बाहर निकल जाता है। हम के भाव जुड़ जाते है। जिस तरह से जड़ , तना , पत्ती पुल मिलकर वृक्छ के रूप में अपनी पहचान बन जाते है वैसे ही श्रद्धा नमन दया धर्म मिलकर व्यक्ति को महामानव बना देता है।
गुलाब को देखकर जीवन के खाद-पानी का अनुभव नहीं किया जा सकता। हमारी दृष्टि गुलाब की सुंदरता और खुशबू  में अटक कर रह जाती है परन्तु मंदिर के भीतर हम गुलाब के खाद-पानी तक की सोचते है। चिड़ियों को उसके घोसले के लिए तिनका मिलता रहे,धान के दाने  में दूध भरता रहे।  समूह मन की प्रार्थना ही हमारे जीवन का आधार है।  छोटे से छोटे जीव मात्र की अस्तित्व को लेकर हमारी  चिंता ही हमारे जीवन के हरेपन का आधार है।
रंगोली से लेकर कलश की स्थापना फिर ज्योति का प्रकाश ही हमारे जीवन में उत्साह बनाए रखता है। लोग अब भी प्रकाश की ओर दौड़ रहे हैं। व्यक्ति ने रौशनी के लिए कितने  शॉर्टकट निकाल लिए है। बल्ब से एल ई डी के सफर में पूरी दुनिया रोशन तो हो गई पर क्या इन सबमे हमारे भीतर का अँधेरा मिट पाया? काले -गोरे ,धर्म-जाति  का अंधकार मिट पाया। पहले स्वयं को रोशन कर सबमे रौशनी भरने का रास्ता हम आज भी नहीं तलाश पाए है। रास्ता सामने है पर हम उस रास्ते   देखना ही नहीं चाहते। ज्योति कलश की स्थापना मनुष्य के भीतर प्रकाश भरने का रास्ता है।

बुधवार, 30 मार्च 2016

मन चंगा तो कठौती में गंगा

मन चंगा तो कठौती में गंगा
कहा गया है- मन चंगा तो कठौती में गंगा। बात बहुत सीधी है। अर्थ गहरा है। स्वास्थ अच्छा है तो सब अच्छा है। सूरज अपने समय पर उग रहा है।  वृक्छ वैसे ही ताजी हवा दे रही है।  गाय अब भी बछड़े को वैसे ही चाटती है।  कुत्ते वैसे ही दम हिलाते अपने मालिक के आगे -पीछे घूमता है।  शाम को अब भी  हवा मदमस्त कर देती है।  चिड़िया घोसले पर लौट आती है। प्रकृति अब भी अपने समय पर अडिग है।  मंदिर-मस्जिद में धर्म-कर्म का भी समय अब भी वैसा ही है।
विकास का हुंकार चहुंओर सुनाई पड़ता है। विकास के तमाम दावों के बाद भी बेहतर स्वास्थ के बिना काम नहीं चल सकता।  कम से कम मानव जीवन का तो अच्छे स्वास्थ के बिना सब कुछ बेमानी है।  अच्छा स्वास्थ केवल लम्बी उम्र जीने भर का माध्यम नहीं है। स्वास्थ मन मस्तिष्क में अच्छे विचार का भी घोतक है। अच्छे स्वास्थ का मतलब समृद्धि और खुशहाली है।  अच्छा स्वास्थ  यूँ ही नहीं बना रहता , इसके लिए संयमित जीवन और खान - पान में नियंत्रण जरुरी है।  जिस तरह से बादल का जमना,बरसना,मिटना धरती पर कई कई जन्मोत्सव का उद्गम है,वैसा ही स्वास्थ  अच्छा हमारी खुशहाली और विकास का जनक है।
यह बात उतनी ही सच है जितना जीवन में पानी की आवश्य्कता।  स्वास्थ और मन का बड़ा अद्भुत रिश्ता है।  इसके आपसी रिश्ते बहुत ही मुलायम और पुराने है।  परन्तु इस रिश्ते को हमने अपनी सुख-सुविधा की खातिर कुरेदना शुरू क्र दिया।  हवा में जहर तो घोला ही वृक्छो की बलि चढ़ाकर स्वयं के लिए कांक्रीट का जंगल लगाना शुरू क्र दिया।  तजि हवा के लिए बनी खिड़कियों पर एयरकंडीशन तो लगाया ही,कहना नाश्ता बनने को झंझट मान फ़ास्ट फ़ूड या रेडी टू ईट पर हमारी निर्भरता बढ़ते चली गई।
इसका सीधा असर हमारे स्वास्थ  पर दीखता है।  हर आदमी परेशान सा है।  हर चौथे पांचवे आदमी को शक्कर की बीमारी और हर दसवें आदमी को दमा -खांसी , एलर्जी और पता नहीं रोज नई नई बीमारियां होने लगी है।  आये दिन ख़बरें छप रही है।  विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे है।  यही हल रहा तो शहरी जीवन तबाह हो जायेगा।  नर्क बन जायेगा। शहरों से पेड़ों के डेरे उजड़ गए है।  एक जमाना था आदमी पौधों को आकांछाओं की तरह रोपता था, बेटो बेटी की तरह पलटा था।  पेड़ों में सावन के झूले बंधते थे , पेड़ों के नीचे खड़े होकर दो आँखे अपनों की बाट जोहता था।  पेड़ों के नीचे स्कूल लगते थे।  कथा होती थी।  पेड़ों के नीचे बैठकर गौतम बुद्ध हो गए महावीर हो गए।
सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा था।  परन्तु अपने सुख-सुविधा की खातिर आदमी इतना स्वार्थी हो गया कि उसने पनि हवा में जहर घोलना शुरू कर  दिया।  हवा के व्यवहार को विकास के अंधानुकरण ने बदल दिया।  हवा में ऐसा रूखापन देखकर भी कोई भयभीत नहीं है तो फिर उसका भगवान ही मालिक है।
चार मंजिला भवन है।  सैकड़ों मरीज है।  व्यवस्था में लाइन लम्बी होते जा रही है।  जेब में पैसों की थैली समाये नहीं जा रही है।  पत्नी चिंतित है,बच्चे बिलख रहे है,और जिंदगी किरच किरच के चल रही है।  भवन की दीवारें शिलालेख नहीं है परन्तु माथे की परेशानी बता रही है कि कुछ भी अच्छा नहीं है।  अपनों को देखने वालों की भीड़ लगातार बढ़ रही है।  श्मशान की चित लगातार धधक रही है।  कब्रिस्तान में जगह कम पड़ने लगी है।  और हम अब भी पेड़ों की बलि लेने आमदा है।  खेती की जमीनों पर सीमेंट का प्लास्टर चढ़ाने तत्पर हैं।  अपने घरों की खिड़कियां खोलने तैयार नहीं है।
स्वास्थ इस युग का चिंतन और आवशयकता है।  आजादी के बाद न जाने कितनी सुबह आयी।  योजनाओं की रौशनी जलायी गयी।  एयरकंडीशन में बैठकर आदमी की बेहतरी की योजनाएं बनाई गई।  सबको शिक्छा सबको स्वास्थ के नारे बुलंद किये गये। परन्तु परिणाम और उपलब्धियों का कंही मेल ही नहीं हुआ।  अस्पताल में बेहतर ईलाज की कोशिश तो हुई परन्तु बीमार बनाने का उपक्रम भी तेज गति से चला।  आदमी अपने को खड़ा करने के फेर में   ऐसा  उलझने लगा कि कब उसके पैर से जमीन खिसक गई ,पता ही नहीं चला।  शहरी उद्यानों में सुबह शाम भीड़ तो बढ़ने लगी पर यंहा मनोरंजन की बजाय बीमार ज्यादा आने लगे। बच्चों की किलकारी कहीं गम होने लगी।  उद्यानों में चहल पहल तो बढ़ी पर इस कोने से उस कोने तक भागने वालों की तादात  ही ज्यादा होती है।  व्यक्ति स्वास्थ के महत्व को नहीं नकार सकता।  तन अच्छा तो मन अच्छा और मन अच्छा तो सब अच्छा के दर्शन को लेकर चलना ही होगा।
अब मुद्दा स्वस्थ रहने का है।  और जब तक विकास को स्वास्थ  से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक न अस्पतालों की भीड़ ही कम होगी और न ही उद्यानों में भागमभाग ही कम होगी।  स्वास्थ की बेहतरी के लिए खेती की जमीनों को बचाना ही होगा।  पौधे रोपने ही होंगे।  उद्योगों में प्रदुषण नियंत्रण यंत्र लगने कड़े नियम बनाने होंगे। नाली के पानी को नदियों में गिरने से पहले साफ करना होगा।  समाज सेवी सस्थाएं दवाई , फल,बांटकर खुश हो लेती है।  युवा पीढ़ी शिक्छा की चादर ओढ़ कर मस्त है।  हम समझ लेते है कि स्वास्थ की सारी जिम्मेदारी सरकार की है।  परन्तु भागदौड़ की जिंदगी के बीच सिर्फ स्वयं की खुशहाली की सोच से आगे निकलना होगा। विकास की योजनाओं पर जन भागीदारी भी सुनिश्चित होनी चाहिए।  तभी मन चंगा तो कठौती में गंगा का उद्देश्य सफल हो पाएगा।

शनिवार, 26 मार्च 2016

आदमी तोता नहीं है

आदमी तोता नहीं  है
एक  कहानी है। गर्मी में शिकारियों का जंगल  की तरफ बढते कदम से चिंतित एक बुजुर्ग पक्छी अपने साथियो को सावधानी बरतने की सलाह देता है। शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे।  जंगल के दूसरे पक्छियो ने यह ज्ञान सीख ली।  तोतो ने भी इसे रट लिया ,परन्तु ज्ञान रटने से नहीं आता , ज्ञान का जिव्हा से नहीं मष्तिस्क से सम्बन्ध है बुध्दि से सम्बन्ध है। सिर्फ जिव्हा से काम नहीं चलता , आत्मसात करना पड़ता है।  दूसरे पकछियों ने बुजुर्ग की सलाह को  आत्मसात किया।  तोतो ने     शब्दों को जिव्हा में ही लटका रखा , वे शब्दों को न नीचे दिल तक उतार पाए और न ही ऊपर मष्तिस्क तक ही ले जा पाए। वे दिन-रात रटते रहे, शिकारी आएगा , दाना डालेगा , जाल फैलाएगा,दाना नहीं चुगना,जाल में फंस जावोगे। परन्तु दिल और दिमाग के बीच शब्द का कोई महत्व नहीं रह जाता,काला  अक्छर भैंस बराबर ,,,,,,, .
          अब वे दिन गुजरे जमाने की बात है। शिकारियों ने शिकार का तरीका ही नहीं  बदला  है बल्कि  शिकार तक  बदल चुके है।  उत्तर आधुनिकता ने मनुष्य और जानवर में फर्क का अवकाश समाप्त कर दिया है।  तोता अब भी सिर्फ रटकर रह जाता है।  आदमी अपनी भाषा की बजाय अंग्रेजी बोलने में गर्व महसूस करने लगा है। आज भी  कई लोग है जो सोचना भी नहीं चाहते कि जुबान के अलावा भी कुछ है जो मनुष्य को आगे बढ़ाती है , वह समझना ही नहीं चाहता कि उसके जबान के ऊपर मष्तिस्क और निचे भरोसा है। ऊपर पहाड़ है,निचे जल श्रोत है। ऊपर राजधानी है,नीचे शहर है गांव है। ऊपर राजा है नीचे प्रजा है।
ऊपर और निचे के बिच भी कुछ है और इस खाई में जुबान महत्वपूर्ण है वह पूल का काम करती है , और इस पूल पर पहरा बैठा दिया जाये तो उसकी स्थिति उस रटन्त तोते  की तरह ही होगी जो शिकारियों के आने से लेकर फसने तक को झटके में बोल लेता है,परन्तु शिकार होने से नहीं बच पाता।  सत्ता यही करती है।  ज़माने से यही करते आई है।  उसने दिल और दिमाग के बिच के सेतु पर पहरा बिठा रखा है।  प्रजा को उतना ही बोलना है जितना सिखाया गया है। उससे ज्यादा नहीं बोलना है। क्योंकि वह जनता है,मष्तिष्क और हृदय के बीच जुबान पर पहरा नहीं लगाया गया तो सब कुछ संतुलित हो जायेगा , फिर उसकी सत्ता कैसे बनी रहेगी। सोवियत संघ की तरह बिखर जायेगा,लातूर या केदार नाथ की तरह तबाह हो जायेगा। इस तबाही को रोकना है।  कुछ ऐसा करना है कि आदमी तोता हो जाये। सत्ता की अनचाही भाषा न बोल पाए।
वाणी व्यक्ति को पहचान के स्तर पर खोलती है।  उसका एक एक शब्द समाज में दूर दूर तक असर करता है।  जिस तरह से आग जलती है तो लौ ऊपर की तरफ उठती है,उसी तरह वाणी भी दूर दूर तक लोगो के मष्तिस्क तक पहुंचती है।  कुछ हृदय में भी जा पहुंचती है।  तोते की तरह सिर्फ जिव्हा में नहीं अटकती। यह बात सत्ता में बैठे लोग जानते है , इसलिए अभिव्यक्ति पर पहरा लगाने के नए नए तरीके ईजाद किये जाते हैं। ऐसे शब्दों पर पानी डाल दिया जाता है जो आग की लौ की तरह सुलगते है उप्र उठते है।
एक तरफ आधुनिकता के चलते पूरा विश्व एक गावं की तरह हो गया है,श्री श्री रविशंकर जैसे आध्यात्मिक गुरु जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के उद्घोष करते हैं तो दूसरी तरफ बस्तर है जंहा अभिव्यक्ति पर पहरे है,सत्ता की अनचाही भाषा राष्ट्रदोह बन जाता है। सत्ता की अनचाही भाषा को आतंक की भाषा करार दिया जाता है। यह सत्ता की विकृति है,लोकतंत्र पर गहरे काले धब्बे है। हमारी विचारधारा ही सही है , यह हठधर्मिता का उदाहरण जेएनयू दिल्ली के साथ पुरे देश ने देखा है।  हठधर्मिता कही न कही संकीर्णता को छूती है।  पहरा कंही भी बिठाओ , अभिव्यक्ति पर या जीवन पर , इससे स्वतंत्रता और विकास के मूल्य तो प्रभावित होंगे ही।  मूल्यों को लेकर कल तक चिंता जताने वाले आज स्वयं पहरेदार होने लगे है। हर बात में बुराई देखने वाले अब अच्छाई की वकालत करने लगे हैं वे भूल जाते है कि पहरेदारी आदमी को तोता बना देता है।
परन्तु आदमी तोता नहीं। है।  लोकतंत्र में हमारी आस्था है।  आस्था तुलसी के बिरवे में भी है,और गंगा  जल के साथ भी है। आस्था में तर्क नहीं चलता।  सिर्फ भारत माता की जय नहीं कहने या लाल सलाम कह देने भर से लोकतंत्र और देश के प्रति आस्था को नहीं तौला जा सकता।  आस्थाएं  है जो मनुष्य को उसके हक और उसूल के साथ खड़ा होने की ताकत दे।  प्रगति वह जो विवेकशील हो।  कागज पर लिखे शब्द केवल आड़ी तिरछी रेखाएं भर नहीं होती , कलम उन रेखाओं में जान डालती है। मनुष्य के हृदय और मष्तिस्क में हलचल उतपन्न करती है।  इसलिए वह हृदय के पास खीसे में रहती है,वाणी और ह्रदय के बीच कलम होती है।  आदमी चुप भी रहे तब भी कलम दिखती है,बोलती है। अभिव्यक्ति के खतरे सामने है। कोई भी एक चीज ज्यादा होगी तो दूसरे का पलड़ा हल्का हो जायेगा।  दोलन की स्थिति बनेगी।  इस स्थिति को कोई बदलना नहीं चाहता सब अपना पलड़ा भारी रखना चाहता है।
इसलिए धर्म में नैतिकता,मर्यादा की सीख है। संस्कार को लेकर पूरी किताबें है।  राम-कृष्ण से लेकर जीसस-पैगम्बर तक मर्यादा में रचे-बसे है। धर्म और संस्कृति को लेकर हाय तौबा मचने,मार -काट  करने वाले यह भूल जाते है कि जब आदमी ही नहीं बचेगा तब धर्म का औचित्य क्या रह जायेगा।  धर्म व्ही है जो धारण करने योग्य है।  और शासक वह है जो सबकी सुने।
इतिहास की दुहाई देने वाले इतिहास से सबक लेने को तैयार नहीं है।  राम को मानने वाले राम की सुनने तैयार नहीं है। जबकि राम ने पवित्रता पर उठी तर्जनी को न्याय देने सीता को वनवास की आज्ञा देने से भी नहीं हिचके ।  उन्होंने न्याय स्थापना के लिए आमजन की सुनी। जबकि तब बड़ी आसानी से वे उस तर्जनी को मरोड सकते थे परन्तु उनके मानने  वाले तर्जनी दिखाने वालो के गर्दन और जुबान तक नापने तैयार है।
विरोधियो को कुचलने की कोशिश  का हश्र हमने ७० के दशक के मध्य में देखा है।  इतिहास से भी हम सबक लेने को तैयार नहीं है।  जब धर्म और इतिहास से भी सबक नहीं लिया जाये तब क्या किया जा सकता है।  तब बस्तर ही क्यों कही भी अभिव्यक्ति का गला घोटने वाले खड़े हो जायेंगे जब पांच साल के लिए कुर्सी संभालने वाले तर्जनी तोड़ने आमदा हो तो साठ साल तक कुर्सी में बैठने वालो से क्या उम्मीद बेमानी हो जाती है क्योंकि इन पर लगाम कसने की जिम्मेदारी ही पांच साल वालो की है।  जनप्रतिनिधियों को याद रखना चाहिए कि पांच साल में परीक्छा उन्हें ही देनी है।  तब वह तर्जनी मतदान केंद्र में  अपना काम करेगी। लोकतंत्र कायम रहेगा,यह विश्वास अपनी जड़े जमा चुका है।





शनिवार, 19 मार्च 2016

आतंकी की भाषा बनते विरोध के स्वर

क्या सरकार के बजट और मौसम की गर्मी का कोई सीधा सम्बन्ध है? यह सवाल कई लोगो के जेहन में पिछले कुछ सालों से उठ रहा हो तो कोई आस्चर्य नहीं है।  बजट आया और पहले ही दिन विरोध का स्वर उठने लगा , सरकार ने सूत-बूट के इतर इसे गरीब किसानो का बजट बताया।  फिर भी ईपीएफ के निकासी पर ब्याज को लेकर उसे बैकफुट पर जाना पड़ा।
अप्रैल से सरकार के बजट का असर शुरू हो जायेगा, गर्मी के मिजाज की तरह।  पिछले कुछ सालो से आम आदमी भी यह मन बैठा है कि बजट के बाद मंहगाई बढ़ेगी ही. कर्मचारियों के दबाव में ईपीएफ निकासी में ब्याज वापस ले ली गई, परन्तु अब जमा राशि में कटौती की घोसना कर दी गई. इतना ही नहीं छोटे और माध्यम श्रेणी के उन तमाम लोगो के ब्याज दर में कटौती कर दी गई जो किसी तरह रो-गाकर थोड़े पैसे जमा कर पाते थे.
सरकार के  छोटे और मध्यम श्रेणी आय वर्ग की जेब से पैसे निकलने की यह योजना से वे लोग भी हैरान होंगे जो जेएनयू  जाकर सरकार के अच्छे कार्यो को देखने की सलाह देते अच्छे कार्यो को लेकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक एक सीधी लकीर देखने की वकालत कर रहे थे. सरकार के कसीदे गड़ने के लिए जेएनयू तक पहुचने वाले फिल्म अभिनेता अनुपम खेर को कम से कम वित्त मंत्री के दफ्तर जाकर पूछना    चाहिए कि आखिर  छोटी बचत पर  ब्याज दर में कटौती की जरुरत   क्या  है?
भुखमरी और  बेरोजगारी  के साथ भारत  आज़ादी के सवाल  सवाल  करनेवालो को  पूछना    चाहिए कि हर साल जिस तरह से गरमी तपती ही जा रही है वैसे ही हर बजट के बाद  महंगाई क्यों  है ?    ईपीएफ के निकासी पर ब्याज के फैसले  वापस   लेने वाली सरकार बचत में ब्याज दर कम कर क्या मध्यम वर्ग से  बदला नही ले रही है.
 फिल्म अभिनेता अनुपम खेर उन चंद भाग्यशाली लोगो में होंगे जिनके घरो में आज़ादी के स्वर नही गूंजते वरना कोख से भी बेटियों में  आज़ादी के स्वर सुनाई  है. औरतो और बच्चो की प्रताड़ना से लेकर स्कूल नही जाकर काम करने की मज़बूरी में आज़ादी  सुनाई देते है।  घर में  नही सुन पाने  फिल्म अभिनेता अनुपम खेर को देश में आज़ादी  के स्वर इसलिए बुरा लगता है क्योंकि उन्होंने एक विशेष नंबर का चश्मा पहन रखा है. वे अप्रेल में  साल दर  साल तपती गर्मी भी कंहा महसूस करते होंगे?वे समृद्धि के टापू से बाहर ही नही  जाना चाहते?
कितने किसान और  मध्यम श्रेणी आय वर्ग के परिवार के लिए दो जून का खाना जुटाना दिनों-दिन कठिन होता जा रहा है. कश्मीर से कन्याकुमारी तक विकास की लकीर इण्डिया और  भारत हो गया है यह सब सत्ता के एयरकंडीशन में बैठकर नही देखा    जा सकता. सरकार ने छोटी बचत में ब्याज दर घटाने के लिए इन बचतों को बाजार दरो के समतुल्य के जो  तर्क दिए है और इसे एकमात्र उपाय बताया है वह बचपना है।
विगत वर्षो में महंगाई बड़ी है।   महँगाइयो को विश्व बाजार में आई मंडी से जोड़ा गया।  कल तक महंगाई बाप- रे- बाप! कहने वाले विशेषज्ञ अब सरकार के एयरकंडीशन  कमरे में छूप कर बैठ गए है। सत्ता की ठंडकता के घुंघरू  उनकी वाणी में उलझ गए है,अच्छे दिन की आस जुमलेबाजी हो चली है और  अप्रेल आते आते जब सूरज और तपेगा  तब बजट का असर इस्पात की भट्टी की तरह महसूस होगा और सरकार सौतेली माँ नज़र आएगी। और इसके बाद उठने वाले विरोध के स्वर को आतंकी की भाषा करार दिया जायेगा।


मंगलवार, 15 मार्च 2016

लिखने की दो...... आजादी!


जेएनयू में कन्हैया कुमार जब लाल सलाम का मतलब समझा रहा था तब दिल्ली से दूर बैठे छत्तीसगढ़ में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि यहां सिर्फ लाल सलाम कहने वाले जेल में क्यों और कैसे ठूंस दिये जाते है। दिल्ली में लाल सलाम पर कानून का नजरिया अलग और छत्तीसगढ़ में अलग क्यों है। क्या इस देश में दो तरह के कानून है।
सवाल तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के इस वक्तव्य को लेकर भी उठ रहे है कि कल तक भारत में पैदा होने में शर्म महसूस होता था। कोई और ऐसा कह दे तो चड्डी वाले उसका जुलूस ही नहीं निकालते पुलिस भी मार कूट कर उसे सलाखों के पीछे डाल देती।
सवाल अभिव्यक्ति की आजादी और उसके खतरे का बना हुआ है। सरकार किसी की भी हो अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे सामान रुप से बना हुआ है। पत्रकारिता से इन बातों का सीधा संबंध हम देखते हैं कि कैसे दिल्ली से दूर गांव तक आते-आते पत्रकारिता पर दबाव बढ़ता जाता है।
राजधानी में यह खतरे दूसरी तरह का है। यहां पत्रकारों को कोई सीधा पकड़कर जेल में नहीं डालता परन्तु उसकी नौकरी छुड़ा दी जाती है। इस खेल में पुलिस का नहीं जनसंपर्क विभाग का सहारा लिया जाता है। ऐसे कितने ही उदाहरण है जब सिर्फ एक खबर पर कितनों की नौकरी चली गई कितनों के तबादले कर दिये गये। एक अखबार सारा संसार की बात हो या पत्र नहीं मित्र की बात हो राजस्थान से आये धुरंधर की बात हो या मंझोले कद की बात हो। खबरों की सच्चाई पर कम जनसंपर्क के दबाव में लिखने की आजादी पर बंदिशें लगाई गई।
कन्हैया के लाल सलाम का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है कि बस्तर में पत्रकारिता तलवार की धार पर चलने जैसी है। नक्सली की आड़ में भ्रष्टाचार खूब फल फूल रहा है। सड़क-भवन के नाम पर आने वाले करोड़ों रुपये भ्रष्टाचार की भेट चढ़ रहा है। नक्सलियों का डर बताकर सरकारी सेवक कार्यालयों से गायब हो जाते हैं। महिनों स्कूल नहीं लगता पर वेतन बराबर बंटता है। राजीव गांधी शिक्षा मिशन का बुरा हाल है। पीडब्ल्यूडी के भवन व सड़क निर्माण का कोई हिसाब नहीं है। मनरेगा से लेकर दूसरी सरकारी योजनाएं दम तोड़ रही है और इस पर लिखने वालों को सीधे धमकी ही नहीं दी जाती जेल तक में ठूंस दिया जाता है। आरोप भी नक्सलियों से सांठ-गांठ का होता है। 
दिल्ली में जिस मस्ती से कन्हैया ने लाल सलाम कह दिया वैसा बस्तर में कोई कह नहीं सकता। जन सुरक्षा कानून मजबूती से पैर जमाये हुए है। बीबीसी के पत्रकार आलोक पुतुल को भेजे जाने वाले मैसेज क्या यह चुगली करने के लिए काफी   नहीं है कि यहां सब कुछ ठीक नहीं है। परन्तु सरकार को यह सब नहीं दिखता। पर्याप्त सबूत के बाद भी सरकार की खामोशी क्या यह साबित नहीं करते कि बस्तर में पत्रकारों के साथ जो कुछ हो रहा है वह सब सरकार के इशारे पर हो रहा है?
यह सच है कि इन दिनों देश भर में पत्रकारों को गरियाने का दौर चल रहा है। परन्तु इसके लिए जिम्मेदार क्या सरकार-प्रशासन और वे मीडिया हाउस नहीं है जो दबाव में है। जो अपने हितों के लिए पत्रकारों को शार्प शूटर की तरह इस्तेमाल करते हैं और जब उन्हें खबरों पर स्वयं के हित में खतरे दिखते हैं पीछे हट जाते हैं।
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सोमवार, 14 मार्च 2016

पाकिस्तान जिंदाबाद ! का मतलब

या खुदा मेरे दुश्मन को सलामत रखना
 वर्ना मेरे मरने की दुआ   कौन करेगा
 यह बहुत ही मार्मिक और असाधारण बातें हैं , जिसके भाव पर कोई नहीं जाना चाहता , केवल ऊपर ऊपर ही अर्थ निकाल  लिया जाता है । फिर जब आजकल हर बातों का मतलब अपनी सुविधानुसार निकाला  जाता हो वंहा ऐसे गुड़ वाक्यों का मतलब ही कहा  समझ आएगा ।
देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह अवाक् हो जाते हैं , जब आध्यात्मिक गुरु के रूप में चर्चित श्री श्री रविशंकर जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद का  उद्घोष करते हैं , कार्यक्रम में उपस्थित  गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सामने ही यह उद्घोष उनके लिए हैरान करने वाला होगा जो  श्री श्री रविशंकर को केवल हिंदूवादी मानते हैं , हतप्रभ तो कार्यक्रम में उपस्थित अन्य हिंदूवादी भी थे ,और  श्री श्री रविशंकर ने इस स्तिथि को भांपते हुए तुरंत सफाई देते हुए सवाल उछाल दिया कि  जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद के नारे क्यों नहीं लग सकता ।
यह सवाल  गृहमंत्री राजनाथ सिंह के लिए था या दूसरे कट्टरपंथी हिन्दू नेताओं के लिए यह तो  श्री श्री रविशंकर ही बता सकते हैं, परन्तु सवाल बहुत गहरा है ,और तब जब इन दिनों पुरे देश में असहिष्णुता और जेएनयू का मामला सुर्ख़ियों में हो, क्या  श्री श्री रविशंकर ने यह सवाल इसलिए तो नहीं उठाये कि इस देश में ज्यादार लोगों की  सोच यही है ।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्तासीन होने के बाद असहिष्णुता के पक्छ और विपक्छ में तर्क दिए जा रहे हैं, कोई किसी का सुनाने को तैयार नहीं है ।
तुम्हारी कमीज से ज्यादा उजली की प्रतिस्पर्धा में उजाला कंही खोने लगा है , सब तरफ धुंधला है, जनता के सामने इस धुंध को हटाने का कोई उपाय नहीं करना चाहता, क्योंकि धुंध हटते ही सच्चाई सामने आ जाएगी, इसलिए सभी ने   तय  कर  लिया हैं  कि धुंध  कायम रहे  । जनता  को  कुछ दिखाई न दें    क्योंकि जिस दिन  जनता देखने लगेगी उनकी कुर्सी चली जाएगी ।  इसलिए  धुंध में उतनी ही शब्दों के फूंक मरे जातें हैं जितने में उन्हें सामने वाले  की कालिमा दिखाई दे ।
श्री श्री रविशंकर का पाकिस्तान जिंदाबाद का उद्घोष का क्या होगा ? राजनाथ की इस दौरान उपस्तिथि के क्या मायने निकाले जायेंगे ? जेएनयू में कश्मीर की  आज़ादी के नारे  कभी रुक पाएंगे ? मोदी-शरीफ  दोस्ती का रंग कितना चढ़ पायेगा?  पाकिस्तान को लेकर कब तक क्रिकेट की बलि चढाई जाएगी?और  न जाने कितने सवाल पाकिस्तान जिंदाबाद  उद्घोष  जायेंगे? यह कहना  मुश्किल है ।
पाकिस्तान जिंदाबाद को लेकर सहमति असहमति  का खेल भी राजनैतिक फायदे के लिए चलता रहेगा । शिवसेना और भाजपा का इसे   लेकर अपना - अपना विचार हो सकता है, परन्तु श्री श्री रविशंकर के  पाकिस्तान जिंदाबाद के उद्घोष के   अपने मायने है,श्री श्री रविशंकर बड़ी आसानी से  देश की राजधानी में  देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह के सामने पाकिस्तान जिंदाबाद का  उद्घोष कर लिए , परन्तु क्या यह उद्घोष कोई देश के दूसरे हिस्से या सुदूर कोने से कर सकता है?
यह उद्घोष कट्टरपंथी हिन्दू संगठनो के लिए चेतावनी भले ही न हो,सरकार के लिए मुसीबत का सबब भले ही न  बने परन्तु विश्वबंधुत्व के लिए एक नई  राह उनके लिए है जो राजनैतिक तिकड़म का शिकार होतें है। अब सवाल इस बात का  भी है कि  श्री श्री रविशंकर के इस आयोजन का सार क्या  जय हिन्द के साथ पाकिस्तान जिंदाबाद का उद्घोष है?
कश्मीर से लेकर सुदूर बस्तर तक और उत्तर पूर्व से लेकर कन्याकुमारी तक श्री श्री रविशंकर के सन्देश का मतलब क्या होगा? यह सरकार को भी समझाना होगा ?

शनिवार, 5 मार्च 2016

गुरुवार, 3 मार्च 2016

एक बहस पत्रकारिता पर...

अब इस पत्रकारिता का क्या करोगे? जिसे देखो वही गरियाने लगा है। लोगों की उम्मीद बढ़ी है। इस उम्मीद में खरा उतरना मुश्किल होता जा रहा है। अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे पहले भी कम नहीं थे परन्तु सरकार का पहले इतना दबाव नहीं होता था। तब अखबार का मतलब एक मिशन होता थआ। परन्तु समय बदला। सरकार और कार्पोरेट सेक्टर ने विज्ञापन का ऐसा दबाव बनाया कि इसके झांसे में सभी आ गये। सिर्फ यही नहीं तय होने लगा कि खबरे कौन सी छपनी है बल्कि यह भी तय होने लगा कि खबरें कैसे बनाई जाए। खबरों का इस्तेमाल शार्प शूटर की तरह होने लगा।
बड़े कार्पोरेट सेक्टर के लिए मीडिया मुनाफा कमाने का व्यवसाय बन गया और इलेक्ट्रानिक मीडिया के आने के बाद जिस तरह की क्रांति आई उससे पत्रकारिता के मूल उद्देश्य ही बिखर कर रह गया। जो दिखता है वह बिकता है का खेल शुरु हुआ और यह उस स्तर तक जा पहुंचा जहां अवसाद के अलाला कुछ नहीं बचा। अपने नंगे पन पर गर्व करते मीडिया पर लोगों का कितना गुस्सा है यह कहीं भी महसूस किया जा सकता है।
कौन पत्रकार नाम कमाना नहीं चाहता और कौन मेहनत करना नहीं चाहता। सारे पत्रकार सहज भाव से अव्यवस्था के खिलाफ कलम चलाना चाहते हैं। हर अव्यवस्था पर शब्दों के प्रहार से वह सिर्फ हंगामा ही नहीं खड़ा करना चाहता बल्कि अव्यवस्था को मिटा देना चाहता है। परन्तु सबको मनचाही स्थिइत नहीं मिलती। कुछ पत्रकार जरुर क्यारी में लगे गुलाब की तरह अपनी सुंगध बिखरने में सफल हो जाते हैं परन्तु यह सब इतना आसान नहीं होता। कोई आंख तरेर खड़ा होता है। कोई नोटों की गड्डियां लिये खड़ा होता है और अब तो सरकारी पदों में बैठे लोगों में भी संयम नहीं रहा। सीधे जेल भिजवाने की धमकी तो किसी के मुंह से सीधी सुनी जा सकती है और फिर अखबार खोलने वाले भी तो दुकानदार हो गये हैं। लाखों करोड़ों की मशीन लगाकर कोई सरकार से पंगा क्यों ले? अखबार की आड़ में माफियागिरी भी करनी है। चिटफंड कंपनी चलानी है, जमीन लेनी है कोल ब्लॉक से लेकर सरकारी ठेका भी तो लेना दिलाना है।
पत्रकारिता के प्रति आम लोगों का गुस्सा यूं ही नहीं बढ़ा है। इसके पीछे दुकानदारी की वह सोच है जो सरकार के भ्रष्ट तंत्र के साथ खुद वैतरणी पार लगाकर सात पुश्तों की की व्यवस्था कर लेना चाहता है। वह दिन लद गये जब पत्रकार मरियल सा पायजामा कुर्ता या खद्दर पहने समाज सेवा के लिए जाना जाता था। मोहल्ले से लेकर शहर में उसकी इज्जत होती थी। हर पीडि़त पक्ष बेधड़क अपनी व्यथा कह देता था। अच्छे-अच्छे पुलिस के अधिकारी भी पत्रकारों के सामने आने से कतराते थे। परन्तु जमाना बदल गया है। तेजी से बदला है अब कलम की विवशता आंखों में साफ पढ़ी जा सकती है यह अलग  बात है कि अब इन पानीदार आंखों को देखने की फुर्सत किसी के पास नहीं है वह तो बस पत्रकारिता में आये इस बीमारी को ही देखकर अपनी भड़ास निकालने में सुकून महसूस करता है।
पत्रकारिता का एक और मिजाज है। वह कभी कभी उत्साही हो जाता है और जिसकी परिणिति बस्तर जैसे क्षेत्रों में काम करने वाले पत्रकारों की स्थिति से साफ समझा जा सकता है जहां सरकारी पदों पर बैठे लोगों के पास जनविरोधी कानून जैसे हथियार के अलावा कुचलने या जेल में भेजने के सारे सामान होते हैं। राजधानी तक उनकी आवाज कैसे पहुंचे। यह भी प्रश्न खड़ा है। प्रश्न तो राजधानी के पत्रकारों और पत्रकारिता पर भी उठने लगे है परन्तु वे सौभाग्यशाली होते है कि उनके पास बंधी बंधाई तनख्वाह है।
परन्तु अभिव्यक्ति की आजादी पर मंडरा रहे खतरों के बाद भी सरकारी तंत्र और माफियाओं के गठजोड़ से मचे लूट के बाद भी क्यारियों के गुलाब की तरह पत्रकारिता का सुंगध कायम है पीडि़तों के लिए न्याय का दरवाजा खोलता है और अव्यवस्था के खिलाफ हंगामा खड़ा करता है। भले ही क्या करोगे ऐसा पत्रकारिता के शब्द ताकतवर दिखाई पड़ रहे हो परन्तु वह ताकतवर कतई नहीं है। पत्रकारिता आज भी खामोश नहीं है उसके कलम में धार कायम है स्याही जरुर फीकी हो गई है परन्तु अभी इतनी फीकी नहीं हुई है कि इसे पढ़ा न जाए। स्याही गाढ़ी जरुर होगी। समय लगेगा।