सोमवार, 15 मार्च 2021

ये कौन सी राह !


क्या कांग्रेस भीतर से इतनी डर गई है कि वह मुसलमानों के हित में खड़ा होने से पीछे भाग रही है? कांग्रेस ही क्यों दूसरी राजनैतिक दल भी क्या डर नहीं गई है? तब फिर इसे हम संघ की सफलता कह सकते हैं। क्या संघ जीत गया है और लोकतंत्र हार गया है? धर्म निरपेक्षता कोई मायने नहीं रखता? मानवता, संवेदना सब कुछ समाप्त हो चला है।

यकीन मानिए जिन पांच राज्यों में हो रहे चुनाव पर दृष्टि डाला जाए तो यह बात सच ही दिखेगा? क्योंकि इन चुनावों में तमाम राजनैतिक दलों ने मुसलमानों के हितों को लेकर दूरी बना ली है। भाजपा तो बंगाल विजय जय श्रीराम के नारे के साथ करना चाहती है। जिस बंगाल में गाडिय़ों के पीछे जय काली, जय माता दी लिखा जाता था उस बंगाल में भी जय श्रीराम के नारों ने जगह बनाकर जय काली को पीछे छोडऩे लगा है?

आजादी के आंदोलन के दौरान मुसलमानों ने भी कुर्बानी दी है और कांग्रेस हमेशा ही अल्पसंख्यकों के साथ  खुद को खड़ा किया है, उसके लिए लड़ते रही है, यहां तक की विभाजन के दौरान हुए दंगों में भी कांग्रेस अल्पसंख्यकों के साथ डटकर खड़ी रही, संतुष्टिकरण के आरोपों से भी कांग्रेस कभी विचलित नहीं हुई। फिर बंगाल सहित पांच राज्यों के चुनाव में वह मुसलमानों के साथ खड़ा होने से क्यों हिचक रही है, उसके घोषणापत्र में मुस्लिमों के लिए कुछ नहीं होना यह दिखाता है कि हिन्दू वोट खिसकने के डर से वह भीतर तक कमजोर हो गई है। ऐसे में इन राज्यों के मुसलमानों के लिए चुनाव का क्या मतलब है। बंगाल की शेरनी कहलाने वाली ममता बैनर्जी भी मंदिरों में घूमने लगे और स्वयं को किसान-मजदूर का हितैषी बताने वाले, धर्मनिरपेक्षता की रहनुमा के तमगे पहनने वाले कम्यूनिस्ट पार्टी भी यदि मुसलमानों के साथ खड़ा होने से हिचकने लगे तो यह मान लेना चाहिए कि संघ ने जैसा चाहा वैसा इस देश को ढाल दिया है।

या तो मुसलमानों के साथ खड़ा होकर हार जाओं या जीतना है तो हिन्दुत्सव के झंडे के नीचे खड़े हो जाओ?ऐसे में जब मुद्दा सिर्फ जय श्रीराम नहीं बनेगा तो क्या बनेगा? हमने पहले ही कहा था कि खेला तो देश की जनता के साथ होबे है। बढ़ती बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, बिकते सार्वजनिक उपक्रम, विश्वसनियता खोते संवैधानिक संस्थान के बाद भी यदि इस देश के चुनाव में हिन्दुत्व ही सबसे बड़ा मुद्दा है तो फिर कांग्रेस को धर्मनिरपेक्षता का ढोंग छोड़कर इसी राह पर चल पडऩा चाहिए। और मुसलमानों के लिए औवेसी की पार्टी तो है ही।

आजादी की लड़ाई से लेकर इस देश की तरक्की में मुसलमानों या अल्पसंख्यकों के योगदान को यदि झटके में खारिज करने की प्रवृत्ति के खिलाफ भी कांग्रेस खड़ा नहीं हो पा रही है तो फिर देश में कमजोर होते लोकतंत्र पर फ्रीडम हाउस, स्वीडन की वी डेमोक्रेसी ही नहीं सारी दुनिया ही उंगली उठायेगी तो गलत क्या है?

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह से सिखों को खालिस्तानी या आतंकवादी होने का तोहमत लगाया गया तब क्या उनके योगदान को खारिज करने की मंशा नहीं थी। हमने पहले ही कहा है कि आज मुसलमान निशाने पर है कल दूसरे अल्पसंख्यकों की बारी भी आ सकती है?

क्योंकि जिसका बीज ही नफरत, झूठ, अफवाह के साये में बना हो उससे और कोई उम्मीद बेमानी है लेकिन डरी हुई कांग्रेस का क्या कहें?

इन चुनावों का परिणाम जो भी हो, भले ही भाजपा के पक्ष में न हो लेकिन तमाम राजनैतिक दलों की मुस्लिमों से बेरुखी ने संघ को चुनाव से पहले ही नहीं जीता दिया है? धर्म निरपेक्षता क्या हार नहीं गई है?