शुक्रवार, 14 मार्च 2014

कर्णधारों के मायने और महापर्व की आगाज...


लोकतंत्र कर सबसे बड़े महापर्व का आगाज हो गया। 16 मई तक राजनैतिक दलों की सांसे सांसत में रहेगी। 81.4 करोड़ मतदाता अपने 543 कर्णधारों को चुनेंगे।  जो जीतने के पहले अपने पक्ष में मतदान कराने घर घर घुमेंगे।
चुनाव आयोग के घोषणा के साथ ही शुरु हो रही इस खंदक की लड़ाई पर जीत का सेहरा बांधने की होड़ मची है। और हर बार की तरह इस बार भी जनता ने मोटे तौर पर तय कर लिया है कि सरकार किसकी बननी है। कांग्रेस जहां राहुल गांधी के नेतृत्व में हम जोड़ते हैं वे तोड़ते हैं के नाटों के साथ मैदान में है तो भाजपा पीएमएन वेटिंग नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में देश की आखंडता और महंगाई का मुद्दा बनाने में लगे हैं। पर सच तो यह है कि वर्तमान परिस्थिति में दोनों ही दलों के लिए स्वयं के बूते न तो सरकार बनाने के लिए आवश्यक जादुई आंकड़ा 272 को छुने की क्षमता है और न ही इन्हें छू पाने का विश्वास है।
कल तक कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लोभ में किसी भी पार्टी बाहर करने के लोभ में किसी भी पार्टी से गठबंधन करने वाली भाजपा आज भी गठबंधन के रास्ते ही सत्ता तक पहुंचने इस कदर आतुर है कि उसके लिए रामविलास पासवान हो या कोई अन्य दल अछुत नहीं है। उसे पार्टी गुर्राने वाले येदियप्पा से लेकर कल्याण सिंह और शिवसेना से लेकर आरपीआई सभी का समर्थन चाहिए।
पिछले दो दशक से जारी गठबंधन की राजनीति से देश को होने वाले नुकसान की चिंता न तो कांग्रेस को हैं और न ही भाजपा को ही रह गई है। वाजपेयी सरकार के समय में बात हो या यूपीए की हर बार अपनी अक्षमता पर गठबंधन की राजनीति की मजबूरी बताने वाले दल इस बार भी इसी राह पर है तब भला जनता क्या करें।
तीसरे मोर्च ने भी एक गठबंधन तैयार किया है लेकिन इनमें भी वहीं दल है जो देर सबरे कांग्रेस या भाजपा का हिस्सा रह चुके हैं और चुनाव परिणाम के बाद जिधर बम उधर हम के फार्मूले पर भरोसा करते हैं।
इस बार चुनाव रोमांचक और कटु होने की इसलिए भी अधिक संभावना है क्योंकि गठबंधन की राजनीति से परे आन्दोलन की राह चलते दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाले आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से राजनीति शुरु की है उससे परम्परागत ढंग से जनता को बेवकुफ बनाने वाले राजनैतिक दलों की नींद उड़ गई है। हालांकि आम आदमी पार्टी का असर शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है लेकिन जिस तरह से आप के नेताओं ने कांग्रेस और भाजपा के बीच दलाली का मुद्दा उठाकर भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता के बीच एक नई राजनीति की शुरूआत की है उससे भाजपा की राह कठिन होने लगी है।
कार्पोरेट घरानों के साथ कांग्रेसी और भाजपाई ताल्लुकात को मुद्दा बनाते हुए रातों रात देश में लोकप्रिय होने वाले अरविन्द केजरीवाल की पार्टी भी अपने बूते सरकार नहीं बना सकती लेकिन उसकी जीत तो तभी तय मानी जा रही थी जब उनकी पार्टी की वजह से कई राजनैतिक पार्टियों के मंत्रियों के काफिले की गाडिय़ा कस हो गई। सुरक्षा बल कम हो गये और निराश हो चुके लोगों की आंखो में उम्मीद दिखने लगी।
अब तक सिर्फ सत्ता के लिए जोड़-तोड़ और जीतने वाले प्रत्याशी को ही टिकिट का मापदंड बताने वाले दलों के लिए आप की चुनौती कितनी होगी यह तो पता नहीं लेकिन यह महापर्व अब राहुल बनाम मोदी था यूपीए बनाम एनडीए या कांग्रेस बनाम भाजपा नहीं रह गया है अब इसमें आम आमदी की भागीदारी भी जुड़ गई है जो कर्णधारों के मायने क्या हो यह लकीर खीचीं जा चुकी है।