मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

नजर...


लोकसभा के चुनाव की बिसात बिछ चुकी है। भाजपा कांग्रेस सहित सभी राजनैतिक दलों की नजर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर जा टिकी है। जनता का समर्थन हासिल करने सभी पार्टियां अपने अपने ढंग से लुभाने की कोशिश में लगी है। इसके साथ ही एक दूसरे के पापों को गिनने का खेल भी शुरु हो गया है और इस खेल में भाषा की सारी मर्यादाएं लांघी जा रही है। बड़़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों की भाषा मोहल्लों के गुण्डों बदमाशों की भाषा से भी बदतर हो चली है।
2014 में कांग्रेस के खिलाफ जिस तरह से देशव्यापी माहौल अन्ना और रामदेव बाबा ने बनाया था उसका फायदा भाजपा को मिला था लेकिन जिस लोकपाल आंदोलन के चलते भाजपा को सत्ता मिली थी सरकार बनते ही वह भी भूल गई। लोकपाल नहीं बना क्योंकि कोई भी नेता नहीं चाहता कि लोकपाल बने। यही हाल अयोध्या में राम मंदिर, कश्मीर में धारा &70 और देश में एक समान कानून का है। नरेन्द्र मोदी की सरकार की ऐसी कोई उलब्धि नहीं है जिसकी वजह से इस सरकार की पीठ थपथपाई जाये। मोदी सरकार ने उन्हें मुद्दों को हवा दी जिसका राजनैतिक फायदा मिले। गाय, तीन तलाक और आर्थिक आरक्षण को लेकर बखेड़ा खड़ा किया गया लेकिन गंगा की सफाई को लेकर कोई खास काम नहीं हुआ। गंगा की चिंता करने वाले बाबा ्अग्रवाल जी को तो अपनी जान तक गंवानी पड़ी।
मोदी सरकार के पूरे कार्यकाल में बेरोजगारी और किसान के मुद्दे को हाशिये पर डाला गया तो नोटबंदी और जीएसटी की मार को लोग अब तक नहीं भूले हैं। ऐसे में सबसे बड़ा सवाल तो यही है कि मोदी सरकार पुन: सत्ता में आने के लिए क्या करेंगी।
बेरोजगारों और किसानों के घोर निराशावादी के इस दौर में सरकार को वेलफेयर का काम भी बोझ लगने लगा है। हालांकि किसानी इस चुनाव का बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है लेकिन क्या मुद्दा चुनाव तक रहेगा? और यदि चुनाव तक यह मुद्दा रहा तो क्या भारतीय जनता पार्टी इस मुद्दे को बना रहने देगी?
दरअसल भाजपा भले ही राजनीति सुचिता की दुहाई देते हुए विकास की बात करती है लेकिन हकीकत तो यही है कि वह इसके सहारे सत्ता को कायम नहीं रख पायेगी इसलिए ुउसकी कोशिश होगी कि अयोध्या, हिन्दू मुस्लिम ही मुद्दा बने ताकि हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण का फायदा मिल सके।
ऐसे में बरेली के उभरते हुए युवा कवि मध्यम सक्सेना की यह पंक्ति याद आती है-
नजर वालों की कहां रब पे नजर है साहेब
मगर जो रब है उसकी सबपे नजर है साहेब
जिस सियासत का खुद का ईमान ही नहीं उसकी
आपके और मेरे मजहब पे नजर है साहेब।

शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

अडानी का विकास सरगुजा का विनाश


0 परसा कोल ब्लॉक के नाम पर जंगल व आदिवासियों की बर्बादी
0
सामाजिक कार्यकर्ता प्रताडि़त कई आदिवासी जेल में 
0 नदी प्रदूषित, अवैध रुप से जंगल काटे जा रहे हैं
0 जमीन ले ली न नौकरी दी न मुआवजा
0 मोदी के कार्पोरेट प्रेम का नजारा
0 बरबाद होते जल जंगल जमीन पर खामोशी
0 वन्य जीवों के लिए मुसीबत
0 सरकार बदली पर अडानी की सत्ता बरकरार
0 टीएस बाबा भी निशाने पर, उनका विस क्षेत्र 
0 दस गांव के लोग आंदोलित

छत्तीसगढ़ के सरगुजा इलाके में मोदी सरकार ने जिस तरह से अपने कार्पोरेट प्रेम का उदाहरण देते हुए तमाम आपत्ति के बावजूद अडानी ग्रुप को परसा कोल ब्लॉक में खनन का ठेका दे दिया उससे पूरा इलाका बरबाद होने लगा है वन्य प्राणियों के लिए तो यह क्षेत्र मुसिबत तो बना ही है आदिवासियों के सामने उजड़ जाने का संकट खड़ा हो गया है। बरबाद होते जल जंगल जमीन के लिए नियमों की ही नहीं संविधान के मूल भावना का भी उल्लघन किया जा रहा है। एक तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी, मुख्यमंत्री भूपेश बघेल सहित कई नेता सीधे अडानी पर हमला कर रहे हैं तो दूसरी तरफ अडानी के उत्याचार का विरोध करने वालों को पिट कर जेल में ठूंसा जा रहा है। नदी प्रदूषित होने लगा है। अवैध रुप से जंगल काटे जा रहे हैं, जमीन ले ली लेकिन नौकरी नहीं दी और टीएस बाबा का प्रेम के चलते इस अत्याचार के खिलाफ दस गांव के आदिवासियों में आंदोलन की तपीश साफ महसूस की जा सकती है। (एक रिपोर्ट)
सरगुजा के उदयपुर का यह इलाका इन दिनों कोल ब्लॉक के धमाके से थर्राता हुआ साफ संकेत दे रहा है कि राज्य में सत्ता तो बदली लेकिन अडानी की सत्ता अब भी बरकरार है। परसा कोल ब्लॉक के नाम पर जिस तरह से जंगल व आदिवासियों को बरबाद किया जा रहा है उसका कोई विरोध भी नहीं कर सकता क्योंकि विरोध करने वालों को न केवल मारा पिटा जाता है बल्कि जेल में बंद करवा दिया जाता है। पूरे इलाके में भय का वातावरण है और पहले ही विकास से वंचित आदिवासी समाज अपने घर से बेदखल होने को मजबूर है।
दरअसल यह दर्दनाक कहानी मोदी सरकार के उस नीति से शुरु होती है जिसके तहत बगैर राज्य की मर्जी के केन्द्र सरकार किसी को भी कोयला ब्लाक का आबंटन कर सकती है और इसके लिए मोदी सरकार ने तत्कालीन भाजपा शासित राज्य राजस्थान को माध्यम बनाया। राजस्थान बिजली निगम को केवल 24 फीसदी का भागीदार बनाकर अडानी को सरगुजा में परसा कोल ब्लाक आबंटन कर जल जंगल जमीन आदिवासियों और वन्य जीवों को बरबाद करने की जो छूट दी गई वह सभ्य समाज के लिए शर्मनाक है। तब राज्य में रमन सिंह की सरकार थी और रमन राज के शह में अडानी ने जल जंगल जमीन को बरबाद करने का ऐसा कुचक्र किया जिसमें आदिवासी भी बरबाद होने लगे। कुचक्र कर आदिवासियों की जमीने छीनी जाने लगी। उन्हें भरपूर मुआवजा और परिवार के एक व्यक्ति को नौकरी देने के नाम पर ठगा गया। पक्का मकान का लालच दिया गया और जमीन लेने फर्जी तरीके से जन सुनवाई की गई। अडानी के इस अत्याचार का जब सामाजिक कार्यकर्ताओं और आदिवासियों ने विरोध किया तो उन्हें रमन सरकार के इशारे पर पुलिस ने शांति भंग करने का आरोप लगाकर पिटने लगी और जेल में ठूंसने लगी।
बरबाद होते जल जंगल जमीन और आदिवासी प्रताडऩा को लेकर तब कांग्रेस ने सीधे मोदी और अडानी पर हमले किये यहां तक कि राहुल गांधी और भूपेश बघेल ने अपने हर भाषण में अडानी और मोदी के गठजोड़ की सीधे हमले किये और यह हमला अब भी जारी है। हालांकि अडानी के मामले में उस क्षेत्र के विधायक टीएस सिंहदेव का रुख नमर रहा लेकिन अपना सब कुछ बरबाद होते देख रहे आदिवासियों को भूपेश बघेल से उम्मीद है।
सूत्रों की माने तो इस क्षेत्र को पहले राज्य सरकार हाथी अभ्यारण प्रोजेक्ट के लिए सुरक्षित रखा था और तत्कालीन वन सचिव ने यहां कोल ब्लॉक के लिए आबंटित करने की मंशा पर आपत्ति भी की थी लेकिन कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब अडानी को यह क्षेत्र कोल ब्लॉक के लिए देने की घोषणा की तो रमन सरकार खामोश रह गई।
दूसरी तरफ राहुल गांधी आदिवासियों और किसानों के हित में बात करते रहे और इस भरोसे का नतीजा है कि भाजपा को छत्तीसगढ़, राजस्थान और मध्यप्रदेश में हार का मुंह देखना पड़ा। भाजपा की सत्ता जाते ही अडानी को गरियाने वाले भूपेश बघेल मुख्यमंत्री बन गये अब देखना है कि वे इस मामले को किस तरह से निपटते है जबकि मोदी सरकार परसा कोल ब्लॉक के बाजू की जमीन भी अडानी को देने की तैयारी कर रही है।
कौशल तिवारी

सोमवार, 18 फ़रवरी 2019

झूमा-झटकी

बदलापुर...
कहते हैं प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी खुंदक पाल कर चलने वाले नेता हैं और वे उन लोगों को कभी नहीं छोड़ते जो उनसे टेढ़ापन दिखाने की कोशिश करते हैं। यही वजह है कि डॉ. रमन सिंह इन दिनों परेशान है। दरअसल नरेन्द्र मोदी ने बहुत पहले ही डॉ. रमन सिंह को राÓय की राजनीति छोड़ केन्द्र में आने का न्यौता दिया था लेकिन मुख्यमंत्री के रुतबे की वजह से उन्होंने तब मोदी जी को न कर दिया था और फिर छत्तीसगढ़ में पराजय के बाद जब डॉक्टर साहब ने राÓय की ही राजनीति करने की घोषणा की तो मोदी जी को यह नागवार गुजरा और उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकर दिल्ली बुलवा लिया। हार के सदमें से अभी वे उबर ही नहीं पाये थे कि इस नये उलटफेर ने उन्हें सकते में ला दिया और वे चुपचाप स्वीकार कर दिल्ली अधिवेशन में शामिल हो गए।
गुरता का हिसाब चुकता
कभी अजीत जोगी के शासन काल में ताकतवर पुलिस अफसर रहे मुकेश गुप्ता ने जब रायपुर एसएसपी रहते हुए भाजपाईयों के हाथ पैर तुड़वाये तब सत्ता बदलते ही उनके लूपलाईन में जाने का कयास लगाया जा रहा था लेकिन भाजपा सरकार में भी मुकेश गुप्ता ताकतवर बने रहे। हालांकि मार खाये भाजपाईयों की चाहत रही थी कि गुप्ता जी के खिलाफ कार्रवाई हो लेकिन रमन राज में जब अफसरशाही हावी हो तो गुप्ताजी जैसे अफसरों का कोई कैसे कुछ बिगाड़ सकता था लेकिन 15 साल का राज समाप्त हुआ तो पहली गाज मुकेश गुप्ता पर ही गिरी। इस कार्रवाई से जहां कांग्रेसी खुश है वहीं भाजपा का एक बड़ा वर्ग भी जश्न मना रहा है।

अमितेष का दर्द...
कभी प्रदेश और देश की राजनीति के प्रभावशील माने जाने वाले शुक्ल परिवार के इकलौते राजनीतिक वारिस अमितेष शुक्ल को इन दिनों अपने अस्तित्व के संकट के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है तो इसकी वजह वे स्वयं है। पिछला चुनाव हार जाने के बाद तो जैसे सब कुछ समाप्त माना जा रहा था लेकिन कांग्रेस ने राजनैतिक विरासत के नाम पर टिकिट दी और कांग्रेस की लहर के चलते वे जीत भी गए। लेकिन मंत्री  बनने की ई'छा पूरी नहीं हो सकी।
अमितेष के साथ ऐसा अविभाजित मध्यप्रदेश के समय भी हो चुका है जब तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने चाचा-पापा का खेल अमितेष के साथ खूब खेला था लेकिन इस बार तो सब कुछ विपरीत ही दिखाई दे रहा है और यही स्थिति रही तो आने वाले दिनों में अमितेष की राजनीति को भी ग्रहण लगना तय है।
पैसे का प्रभाव
कोरबा से विधायक चुनकर आने वाले जयसिंह अग्रवाल का मंत्री बन जाना सबके लिए आश्चर्य का विषय था लेकिन जो लोग बिलासपुर की राजनीति को नजदीक से देख रहे थे उनके लिए यह हैरानी से Óयादा महंत की ताकत का आकलन का मौका था। दरअसल सोशल मीडिया के जमाने में कुछ भी चीज छुपाना आसान नहीं रह गया है फिर प्रदेश की राजनीति में कौन किसके साथ और किस दम पर है यह बात तो और भी आसानी से जाना जा सकता है। छत्तीसगढ़ी अभियान में जयसिंह के मंत्री बनने को लेकर तो सवाल किये जाते ही रहे, मंत्री बनने की वजह को लेकर भी दिलचस्प कारण गिनाये गये। जयसिंह के लिए दिक्कत यह है कि वे अपने पैसे के प्रभाव को नकार भी नहीं सकते।
प्रमोद का पीड़ा...
यह तो खाया पिया कुछ नहीं गिलास तोड़ा दो रुपये का वाली कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना लोकसभा चुनाव लडऩे को इ'छुक प्रमोद दुबे को लेकर इन दिनों इस तरह की चर्चा नहीं होती।
अपनी वाक पटुता और न काहू से दोस्ती न काहू से बैर की तर्ज पर छात्र राजनीति से राजधानी के महापौर पद तक पहुंचने वाले प्रमोद दुबे के सामने लोकसभा की टिकिट को लेकर जिस तरह की चर्चा है वह प्रमोद दुबे के लिए भी चिंता का सबब बनता जा रहा है।
दरअसल कहा जा रहा है कि विधानसभा चुनाव में बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ चुनाव लडऩे से मना करने की वजह से इस चर्चा को बल मिल रहा है कि उनकी टिकिट की राह में सेटिंग कहीं रोढ़ा न बन जाए। अब प्रमोद दुबे सफाई देने मजबूर है फिर चर्चा यह भी है कि एक बार मना करने वाले की मुसिबत कभी कम नहीं हुई है और राजनीति के जानकार सोमनाथ साहू का उदाहरण रखने से भी गुरेज नहीं करते।

न राम मिली न माया
क्षे
त्रीय पार्टी बनाकर छत्तीसगढ़ की राजनीति में किंग मेकर बनने की चाह रखने वाले अजीत प्रमोद जोगी की स्थिति इन दिनों न राम मिली न माया की तरह हो गई है। जकांछ सुप्रीमों को यह भरोसा था कि कांग्रेस और भाजपा को किसी भी हाल में बहुमत नहीं मिलेगी और वे 5-7 जीतकर किंग मेकर की भूमिका में होंगे लेकिन कांग्रेस की लहर ने उनका सारा गणित बिगाड़ दिया यहां तक कि उनकी बहु ऋचा जोगी भी चुनाव हार गई। ऐसे में भले ही वे राष्ट्रीय पार्टी बनाकर खुश हो रहे हो लेकिन पार्टी के भीतर जिस तरह से बवाल मचा है और पार्टी से जुड़े लोग कांग्रेस का दामन थाम रहे है वह उनके लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है। हालत यह है कि उनके साथ जुड़े पूर्व विधायक ही नहीं कुछ वर्तमान विधायक भी पार्टी दफ्तर जाना छोड़ दिये हैं।


दामाद बाबू दुलरु
इन दिनों छत्तीसगढ़ की राजनीति में दामाद बाबू फिर से विवाद में आ गये हैं। इस बार विवाद की वजह अंतागढ़ टेप कांड है और इस टेप कांड के मुताबिक कांग्रेस प्रत्याशी से लेन देन का मामला है।
ऐसा नहीं है कि दामाद बाबू पहली बार विवाद में आये हैंं। इनका विवादों से पुराना नाता है यही वजह है कि शहर के प्रसिद्ध डाक्टर जेबी गुप्ता के इस पुत्र का मेडिकल की पढ़ाई के दौरान के कारनामें चर्चा में रहे और उनका पहला विवाह भी चर्चा और विवादों से बच नहीं पाया। इसके बाद उनका तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह का दामाद बनना भी विवाद में रहा और कहा जाता है कि इस दामाद के लिए बमुश्किल से डॉक्टर साहब बड़ी मुश्किल से राजी हुए थे।
इसके बाद उन्हें जब डीकेएस का प्रभार सौंप कर लंबा-चौड़ा बजट बनाया गया तब डीकेएस में भर्ती और खर्च का भी विवाद होता रहा और फिर मामला अंतागढ़ टेपकांड का आया। लेकिन दामाद बाबू तो दामाद बाबू है और इसके लिए डाक्टर साहब क्या कुछ करेंगे यह भी चर्चा में है।
मनोज की उम्मीद...
छत्तीसगढ़ की राजनीति में कभी अजीत जोगी के नाक की बाल माने जाने वाले मनोज मंडावी को अब भी भरोसा है कि जोगी खेमा छोडऩे का फायदा उन्हें मिलेगा और मंत्रिमंडल में जो एक जगह बची है उस पर उसके नाम की मुहर लगेगी।
अजीत जोगी के लिए सीट छोडऩे की घोषणा करने की वजह से कभी मंत्री रहे मनोज मंडावी के बारे में कहा जाता था कि वे जोगी के ईशारे पर ही बागी होकर चुनाव लड़े थे। ऐसे में उनका जोगी खेमा छोडऩा अ'छे-अ'छे राजनैतिक विश्लेषकों को चौका देने वाला था। जोगी बनाम भूपेश की लड़ाई में भूपेश का साथ देने के कारण उन्हें टिकिट भी मिली और वे जीत भी गए लेकिन मंत्री नहीं बनाये गए तो इसके कई कारण गिनाये जा रहे हैं। अपने क्षेत्र में दबंग माने जाने वाले मनोज को लगता है कि देर-सबेर उन्हें मंत्री बनाया ही जायेगा।
शिकार करने को आये...
ये तो फिल्मी गाना शिकार करने को आये शिकार हो गये की कहावत को ही चरितार्थ करता है वरना पूर्व मंत्री विधान मिश्रा की यह हालत नहीं होती। कभी विद्याचरण शुक्ल के खास माने जाने वाले विधान मिश्रा को जब टिकिट नहीं मिली तो वे अजीत जोगी को गरियाते घुमते थे लेकिन जब जोगी ने पार्टी बनाई तो वे उनके साथ शामिल हो गए और भूपेश बघेल के खिलाफ मोर्चा खोल दिया। कहा जाता है कि विधान मिश्रा के कंधे पर बंदूक रखने का काम भाजपा के एक दिग्गज नेता भी कर रहे थे और कांग्रेस की सत्ता कभी नहीं आयेगी यह सोचकर भूपेश बघेल के खिलाफ विधान ने जमकर विषवमन किया और अब जब कांग्रेस की सत्ता आ गई तो वे कांग्रेस में शामिल होने छटपटा रहे है।


रविवार, 17 फ़रवरी 2019

वैचारिक पत्रकारिता और दलाली




यह सच है कि वैचारिक पत्रकारिता करना बहुत कठिन है। किसी एक विचारधारा के समर्थन में खड़ा होना वह भी सीना ठोंक के आसान नहीं है। वह भी तब जब आप सत्ता के बाहर हो। छत्तीसगढ़ में वैचारिक पत्रकारिता की शुरुआत कब से हुई यह कहना कठिन है लेकिन इसकी शुरुआत युगधर्म से होने की बात कही जाती है। अपना पक्ष रखने दक्षिणपंथियों ने अखबार निकाला और फिर एक विचारधारा को लेकर संघर्ष करते रहे लेकिन यह स्वीकार्य तब भी नहीं था और न ही दैनिक स्वदेश के खुलने के बाद ही स्वीकार्य हो पाया। परिणाम स्वरुप इस एक विचारधारा के साथ खड़ा रहना मुश्किल कार्य रहा इस तरह की पत्रकारिता से न केवल अखबार को खड़ा रखना मुश्किल है बल्कि एक विचारधारा को लेकर चलने वाले पत्रकारों की विश्वसनीयता पर भी सवाल खड़े होते रहे हैं। यही वजह है कि सत्ता के दौरान फलने-फूलने वाले ऐसे पत्रकार सत्ता जाते ही गड़बड़ा जाते है।
ताजा उदाहरण छत्तीसगढ़ में सत्ता परिवर्तन के बाद देखा जा सकता है। भाजपा की सत्ता जाते ही कल तक स्वयं को भाजपाई विचारधारा का समर्थक बताने वाले ऐसे अधिकांश पत्रकारों में स्वयं को भाजपा विरोधी साबित करने की होड़ सी मच गई है। कुछ तो पत्रकारिता छोड़ दूसरा काम धाम में रुचि ले रहे हैं तो कुछ कांग्रेसियों के सामने स्वयं को कांग्रेसी साबित करने में लग गए हैं। इनमें वे पत्रकार भी शामिल है जिन्होंने पत्रकारिता की शुरुआत गद्रे भवन (पुराने भाजपा कार्यालय) में पनाह लेते थे या रात गुजारते थे। एक पत्रकार तो मुख्यमंत्री भूपेश बघेल से अपनी नजदीकी का हवाला देते नहीं थकते और कोई भी काम करा लेने का दावा करते घूम रहा है। हालांकि यह पहले भी रमन राज में पत्रकारिता से Óयादा कमीशनखोरी का काम भी करा रहा है।
इसी तरह का एक पत्रकार जो चुनाव से पहले किसी भी सूरत में कांग्रेस की सत्ता नहीं आने का दावा करता था वह चुनाव परिणाम आते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को अपने कालेज के जमाने का साथी बताता घूम रहा है।
इसी तरह 5 हजार की तनख्वाह से रायपुर में पत्रकारिता शुरु करने वाले का ठाठ इन दिनों चर्चा में है।
भाजपा की बौखलाहट...
चुनाव में बुरी तरह बौखलाई भाजपा को अब पत्रकार कांग्रेसी नजर आने लगे। पिछले दिनों भाजपा प्रभारी अनिल जैन को एक पत्रकार का सवाल इतना नागवार गुजरा कि वे प्रेस कांफ्रेंस के दौरान ही एक पत्रकार को कांग्रेसी बता गये जबकि एक अन्य घटनाक्रम में भाजपा कार्यालय में एक पत्रकार की न केवल पिटाई की गई बल्कि एक महिला पत्रकार को अभद्रतापूर्वक कक्ष से बाहर निकाला गया। इस पत्रकार की सिर्फ इतनी गलती थी कि हार की समीक्षा के दौरान हंगामा कर रहे कार्यकर्ताओं की वीडियो बनाने वह बैठ गया था।
भाजपा नेताओं के शह पर हुई इस गुण्डागर्दी के खिलाफ प्रदेशभर के पत्रकार आंदोलन पर है लेकिन भाजपा नेतृत्व को इससे कोई लेना देना नहीं है। जबकि प्रेस क्लब रायपुर ने अनिश्चितकालीन धरना दे दिया है।
फर्जी के चक्कर में असली भी गये...
रमन राज में पत्रकारिता की आड़ में कई भाजपाई धंधा करने लग गये थे और फर्जी न्यूज एजेंसी बनाकर सरकार से लाखों रुपये महिना वसूल भी रहे थे। ऐसा नहीं है कि रमन राज के इस करतूत की जानकारी किसी को नहीं थी लेकिन सत्ता बदलते ही मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को जैसे ही इस करतूत की जानकारी मिली उन्होंने तुरन्त ऐसे 17 एजेंसियों का दाना पानी बंद कर दिया। कहा जाता है कि इन एजेंसियों की आड़ में कई भाजपाई लाल हो गये थे।
और अंत में...
जब से सत्ता बदली है जनसंपर्क विभाग में भी अमूल चूल परिवर्तन दिखने लगा है। एक अधिकारी के लम्बी छुट्टी पर चले जाने को लेकर चर्चा गर्म है।