रविवार, 28 फ़रवरी 2021

कब्र खोदने में माहिर कांग्रेसी...

 

क्या कांग्रेस का अब महात्मा गांधी से वास्ता नहीं रहा या अब गांधई के नाम से चुनाव नहीं जीता जा सकता? यह सवाल इसलिए उठ खड़ा है क्योंकि मध्यप्रदेश कांग्रेस ने जिस बाबूलाल चौरसिया को कांग्रेस का सदस्य बनाया है वह गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे का न केवल समर्थक रहे हैं बल्कि एक समय वे गोडसे का मंदिर बनाने की बात भी करते रहे हैं ऐसे गोडसे भक्त को कांग्रेस की सदस्यता देने का क्या मतलब है?

भाजपा ने तो एक सामान्य प्रतिक्रिया में कह दिया कि कांग्रेस का गांधी के सिद्धांत से कोई वास्ता नहीं रह गया है लेकिन इस प्रतिक्रिया के पीछे का सच क्या यह नहीं है कि चूंकि अब गांधी के नाम से वोट नहीं मिलने और सत्ता तक पहुंचने के लिए वोट चाहिए इसलिए बेमेल समझौते कांग्रेस की मजबूती है?

हालांकि बाबूलाल चौरसिया के कांग्रेस प्रवेश को लेकर कांग्रेस के भीतर भी विरोध के स्वर तेज होने लगे है लेकिन अब इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि बाबूलाल कांग्रेस में रहेंगे या नहीं रहेंगे। क्योंकि इस सच ने कांग्रेस के नेताओं का दिवालियापन उजागर कर ही दिया है। और ऐसे कब्र एक बार फिर खोद दिया है जिसकी गूंज से कांग्रेसी बिफरते रहेंगे?

दरअसल संघ और भाजपा के बढ़ते प्रभाव से कई कांग्रेसी इस हद तक विचलित हो गये है कि वे बिना गैती-फावड़ा के ही अपना कब्र खोदने आतुर नजरर आते हैं। खासकर चुनाव के समय वे अपनी हरकतों और जुबान से भाजपा को ऐसा मौका दे देते है जिससे कांग्रेस की मुसिबत ही नहीं बढ़ती बल्कि हंसी के पात्र बन जाते हैं।

अभिषेक मनु सिंघवी, सलमान खुर्शीद से लेकर दिग्विजय सिंह के बोल क्या अब भी नहीं गूंजते? मध्यप्रदेश उपचुनाव में तो कमलनाथ की महिला विधायक को लेकर की गई टिप्पणी ने भाजपा को सत्तासीन करने में पूरी मदद की। और अब जब पांच राज्यों में चुनाव होने जा रहा है तब बाबूलाल चौरसिया जैसे गोडसे भक्त का कांग्रेस प्रवेश क्या कांग्रेस के लिए मुसिबत खड़ी नहीं करेगा। अब कांग्रेस किस मुंह से गोडसे भक्तों की आलोचना करेगा। जबकि यह सर्वविदित है कि गोडसे भक्त आज भी महात्मा की तस्वीर से रक्त बहते देखने की चेष्टा करते रहते हैं।

सोमवार, 15 फ़रवरी 2021

पेट्रोल महंगा हुआ तो क्या हुआ...

 

पेट्रोल की कीमत कुछ शहरों में सौ रुपये पार हो गया। लेकिन सब तरफ सन्नाटा है। विरोध के स्वर नेतृत्व के अभाव में नक्कारखाने की तूती हो गई है। महसूस सभी कर रहे हैं कि कुछ तो गड़बड़ है लेकिन कोई नहीं बोल रहा है। क्योंकि जो भी पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमत पर सवाल उठायेगा वह राष्ट्रद्रोही कहलायेगा?

यह सच को स्वीकार करना ही होगा, क्योंकि मोदी सत्ता के आने के कारण ही देश बचा है, हिन्दूत्व बचा है वरना 2014 में यदि मोदी सरकार नहीं आती तो यह देश बचने वाला नहीं था और न ही हिन्दूत्व?

पिछले 6 सालों के इस कथित सच ने देश में महंगाई बेरोजगारी तो बढ़ाई ही है देश को आर्थिक रुप से कमजोर कर दिया है लेकिन जब संघ ने यह कह दिया कि उनके कारण ही हिन्दू बचे हैं तो फिर वर्तमान दौर में इसे नहीं मानने का मतलब क्या है?

वैसे भी जब कांग्रेस ने गांधी के सिद्धांतों से परे जाकर सत्ता के अहंकार को जिया है तब वर्तमान सत्ता को इसके लिए किस हद तक दोष दिया जा सकता है?

अंग्रेजों की रीति नीति क्या वर्तमान में दिखाई नहीं दे रही है? फूट डालो राज करो! इसे सभी ने पढ़ा है लेकिन जब सपने अच्छे दिन के हो तो यह नीति कैसे कोई देख सकता है। हमने पहले भी कहा है कि यदि सत्ता का ध्येय अपने एजेंडों को लागू करना है तो फिर जन सरोकार का कोई अर्थ नहीं रह जाता इसलिए पेट्रोल की बढती कीमत से परेशान होने की जरूरत नहीं है क्योंकि हमने उन्हें चूना है जिनका एजेंडा पहले से साफ था और जब एजेंडा चाहिए तो महंगाई-बेरोजगारी के दंश को सहना ही होगा?

जो लोग मोदी सत्ता से सवाल करते हैं उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि 70 साल के सफर में संघ ने क्या क्या नहीं किया। उसने लोगों के दिलों में यह जगा ही दिया कि हिन्दूत्व यदि इस देश में बचा है तो वह सिर्फ संघ के कारण बचा है? और जो लोग संघ के इस  सोच को स्वीकार नहीं कर सकते वे पाकिस्तान चले जाए? देश छोड़ दे।

हम यह नहीं कहते कि मोदी सत्ता के आने के बाद इस देश में जिन साढ़े 6 लाख लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ी है वे देशद्रोही थे लेकिन ये सच है कि भारत की नागरिकता छोडऩे वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है? वजह आप तलाश करते रहें क्योंकि सत्ता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि लोग रहे या न रहे?

रविवार, 14 फ़रवरी 2021

जब ध्येय एजेंडा हो...

 

सिर्फ पढऩे आने से मतलब ज्ञानी हो जाना नहीं होता। इसी तरह सत्ता हासिल करने का मतलब भी जन सरोकार से वास्ता कैसेे हो सकता है और फिर सत्ता हासिल करने का ध्येय ही सिर्फ एजेंडा लागू करना हो तो जन भावना और जन सरोकार का क्या मतलब है।

पिछले 6 सालों में मोदी सत्ता के आंकलन को लेकर अर्थशाी, शिक्षा शाी से लेकर तमाम तरह के शाी निराश है, किसान, मजदूर, मध्यम श्रेणी हलाकान, परेशान है। लेकिन सत्ता का अपना कार्य है, उन्हें न किसानों से मतलब है न बढ़ती महंगाई से त्रस्त लोगों से ही कोई सरोकार है।

ऐसे मे आप कोई भी सवाल करें, उसका कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय सेवक संघ अपने एजेंडा को पूरा को पूरा करने में लगा है, भले ही देश की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियां एक-एक कर बिक जाए, रेल बस हवाई जहाज का निजीकरण होता रहे, बेरोजगारी महंगाई बढ़ती रहे। एजेंडा ही ध्येय का है और रहेगा।

आप हैरान हो सकते है कि मोदी सत्ता के आने के बाद अब तक इस देश के 6 लाख 50 हजार से अधिक लोगों ने भारत की नागरिकता छोड़ दी है जिनमें हम मेहुल चौकसी या विजय माल्या जैसे भगोड़ों की बात नहीं कर रहे हैं।

आखिर भारत की नागरिकता छोडऩे वाले कौन है? क्या वे हिन्दू नहीं है, वे हिन्दू ही है लेकिन कुंठित हिन्दूओं की नजर में वे न तो हिन्दू है और न ही देश भक्त हैं। वे चूंकि मानवतावादी हैं और अच्छा जीवन मिलजुलकर जीना चाहते है लेकिन ये उन्हें पसंद नहीं। 

भले ही प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने राज्य सभा में गुलाम नबी आजाद को लेकर रो पड़े हो लेकिन सच तो यह है कि संघ का अपना ध्येय है और सत्ता हासिल करने के लिए नफरत ही औजार बन चुका है, ऐसे में आप कलाम या आजाद को लेकर भले ही क्षणिक भावुक हो जाये लेकिन चुनावी मंच में नफरत ही औजार होगा? और जब औजार नफरत हो तो फिर जनसरोकार कहीं दूर अंधेरे में ढकेल दिया जाता है। और जनसरोकार के मुद्दे उठाने वाले परजीवी हो जाते हैं। परजीवी भले ही शब्दों में आम लोगों को न समझ आये लेकिन है तो यह गाली ही है। संसदीय गाली। जो प्रधानमंत्री दो संसद जैसी जगह में देने से गुरेज नहीं है।

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2021

जब पवित्र मान लिया...

 

हमने पहले ही कहा है कि सिर्फ जबानी जमा-खर्च से काम नहीं चलने वाला है। सत्ता को जन सरोकार से मतलब होना चाहिए लेकिन जब से मोदी सत्ता आई है भाजपाईयों के तेवर जनआंदोलन के खिलाफ हैरान कर देने वाला है। आंदोलनकारियों को देशद्रोह, दुश्मन और पता नहीं किस किस तरह की गालियों से नवाजा जाता है। जिसे हम यहां लिखने में भी शर्म महसूस करते हैं।

राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जिस किसान आंदोलन को पवित्र कहा है उसके बाद  यह सवाल उठना चाहिए कि आखिर आंदोलन जब पवित्र है तो उनकी मांगे मानने में सरकार को दिक्कत क्या है? आंदोलन पवित्र है तो फिर बार्डर पर दुश्मनों जैसा व्यवहार करते हुए किले, खाई, क्यों खोदी गई, पानी-बिजली की सप्लाई क्यों रोकी गई। और इन सबसे भी बड़ा सवाल है कि भाजपा के पदाधिकारी से लेकर कई कार्यकर्ता उन्हें देशद्रोह आतंकवादी नक्सली किस बिना पर बोल गये? खुद प्रधानमंत्री ने आंदोलनजीवी-परजीवी जैसी भाषा कैसे बोल गये?

क्या यह सच नहीं है कि प्रधानमंत्री के परजीवी वाली भाषण की जब चौतरफा प्रतिक्रिया हुई तो वे आंदोलन को पवित्र कह गये! दरअसल यह तीनों कानून ही किसानों की बजाय पूंजीपतियों का संरक्षण अधिक करता है। असीमित भंडारण से तो आम आदमी का बुरा  हाल होगा ही खुद मोदी सत्ता ने कालाबाजारी और जमाखोरी को संरक्षण दे दिया है। 

ऐसे में सवाल कई है लेकिन सरकार सवालों की जवाबदेह से बचकर दूसरी ही बात कह रही है तब किसानों के पास आंदोलन को विस्तार देने के अलावा क्या रास्ता रह जाता है। और आंदोलन से कोई सत्ता कब तक बची रह सकती है।

आंदोलन पवित्र था है और रहेगा।

अंत में-

पवित्रता...

हल चलाने से

लेकर बीज डालने

रोपा से लेकर

निदोई करने

में लगा किसान

प्रेम और करुणआ

का सागर होता है

रोज वह फसल

के लिए दुआ

मांगता है

अपने ईश्वर से

बिल्कुल निर्भाव

पवित्र

फिर उस फसल

की कीमत

उस खेत को बचाने

की लडाई

कैसे गलत हो गया

वह भी पवित्र है पवित्र!

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2021

धन्यवाद! अब गिरवी रखना ही होगा...


राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने कृषि सुधार की वकालत करते हुए जब कहा कि आर्थिक सुधार के लिए यही एक रास्ता है तो इसका मतलब साफ था कि अब सब कुछ निजी हाथों में गिरवी रखा जाना जरूरी हो गया है क्योंकि सरकार चलाने के लिए टेक्स यही निजी कंपी देती है और पार्टी चलाने के लिए भी चंदा जब यही कंपनी देती है तो फिर सरकार एमएसपी में फसल खरीदकर गोदाम में रख रखाव का झंझट क्यों पाले। और किसानों को जनधन या सम्मान निधि से लॉलीपाप या खैरात दी जाती रहेगी।

हैरानी की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री ने किसानों को ईमानदार कहा जबकि दो दिन पहले ही वे इन्हें आंदोलनजीवी परजीवी बता चुके थे और इससे भी बड़ी हैरानी की बात तो यह है कि प्रधानमंत्री ने आर्थिक और सामाजिक सुधार को एक तराजू पर तौल दिया।

क्या सचमुच देश को निजी हाथों में गिरवी रखने की शुरुआत की जा चुकी है? ये सवाल हम यहां इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि इस सरकार ने जिस तरह से सार्वजनिक क्षेत्र  की 23 कंपनियों को बेचा है और लालकिले को भी रखरखाव के लिए निजी कंपनी को सौंपा है उसके बाद तीनों कृषि कानून के जो नियम है वह साफ कहता है कि इन तीनों कृषि कानून में सरकार ने निजी क्षेत्रों के हितों की रक्षा और उनके संरक्षण के उपाय किये है। लगातार किसानों की खुदकुशी के बढ़ते मामले से इतर सरकार जिस तरह से इन तीनों कानून को लेकर अपना रुख साफ किया है उससे एक बात तो तय है कि निजी क्षेत्रों के पूंजी से आगे सरकार नममस्तक हो चुकी है।

असीमित भंडारण का अधिकार देना क्या इस बात की ओर इशारा नहीं करता कि सरकार एफसीआई को खत्म कर देना चाहती है और जब एफसीआई खत्म हो जायेगी तो फिर सरकार एमएसपी पर खरीदी किस तरह खरीदेगी। वैसे भी सरकार जब 6 फीसदी उपज ही एमएसपी पर खरीदती है तब इसका क्या मतलब है।

मतलब साफ है कि नेताओं को चंदा पूंजीपति देते हैं इसलिए पूंजीपतियों के हित में फैसला हो। किसानों को खैरात दे दो बस!

बुधवार, 10 फ़रवरी 2021

हजारों तरह के आंसू...

 

आंसूओं को लेकर शायरों और कवियों ने जो बातें और जितनी भी बातें कहीं है उससे इतर भी कोई बात होगी या नहीं कहना कठिन हैं। लेकिन गुलाम नबी आजाद निश्चित रुप से उस तरह के राजनेता है जिन्हें आसानी से भूला देना मुश्किल है।

छत्तीसगढ़ में राज्य गठन के दौरान जब वे पर्यवेक्षक बनकर आये तो उनके ही सामने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की कथित रुप से पिटाई हुई। लेकिन उन्होंने न तब अपने ताकत का इस्तेमाल किया न कभी भी उनके बारे में यह बात सुनने को नहीं मिली कि कांग्रेस हाईकमान तक अपनी पहुंच का कभी उन्होंने बेजा इस्तेमाल किया । कश्मीर के इस नेता ने हमेशा ही देश हित को लेकर काम किया और आज राज्य सभा से उनकी विदाई पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बोलते-बोलते जब भावुक हो गये तो सहसा कई सवाल मन में उठने लगे।

वर्तमान नफरत के दौर में यह सवाल उठना स्वाभाविक भी था। जिन लोगाों के लिए हिन्दू राष्ट्र के अलावा कोई स्वीकार्य ही नहीं है और जो लोग मुसलमानों को इस देश का दुश्मन समझते हुए विषवमन करते रहते हैं उनके लिए प्रधानमंत्री मोदी का गुलाम नबी आजाद के प्रति स्नेह की क्या प्रतिक्रिया हुई होगी यह बताने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि जब किसी के दिल में सांप रेंगता है तो उसके मुंह से जबान चली जाती है।

ये देश गंगा-जमुना तहजीब का है, इस देश की आजादी में हर धर्म और हर जाति ने अपनी कुर्बानी दी है और आजादी के बाद उत्पन्न हर विषम परिस्थितियों का कंधे से कंधा लगाकर मुकाबला किया है लेकिन 2014 में जिस ढंग का अवतार हुआ हालांकि उसका बीज 2002 में ही लगाया जा चुका था, उस अवतार ने इस देश में नफरत की ऐसी आंधी चलाई है कि पूरा एक वर्ग हाशिये पे डाल दिया गया। नफरत के इस दौर में सत्ता भी वही फैसला करते रही ताकि सत्ता के लिए हथियार जुटाये जा सके लेकिन इसका दुष्परिणाम क्या हुआ। हम आर्थिक रुप से टूट गये, युवाओं के पास रोजगार खत्म हो गया, बढ़ती मंहगाई ने जीना दूभर कर दिया लेकिन राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद के झांडे का छाया इतना गहरा रहा कि इस देश की भलाई किसमें है यह दिखना ही बंद हो गया।

क्या यह भावुक क्षण यह इशारा नहीं करता कि देश को जितनी जरूरत हिन्दुओं की है उतनी ही जरूरत मुसलमानों या दूसरे धर्म के लोगों की भी है। क्या ये आंसू उन भक्तों को भी दिखावा लगेगा जो अपने दिल में नफरत की आग लेकर चल रहे हैं या इस आंसू के बाद कथित अवतारी में इतना साहस होगा कि वह अनेकता में एकता के लिए मार्ग प्रशस्त करे।

सवाल कई हैं, लेकिन सत्ता की घिनौनी राजनीति ने जिस, बीज को बोया है उसे पेड़ बनने से रोकना ही होगा। वरना प्रधानमंत्री के आंसू पर सवाल उठने से कोई कैसे रोक सकता है!

आंसूओं को लेकर शायरों और कवियों ने जो बातें और जितनी भी बातें कहीं है उससे इतर भी कोई बात होगी या नहीं कहना कठिन हैं। लेकिन गुलाम नबी आजाद निश्चित रुप से उस तरह के राजनेता है जिन्हें आसानी से भूला देना मुश्किल है।

छत्तीसगढ़ में राज्य गठन के दौरान जब वे पर्यवेक्षक बनकर आये तो उनके ही सामने मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह की कथित रुप से पिटाई हुई। लेकिन उन्होंने न तब अपने ताकत का इस्तेमाल किया न कभी भी उनके बारे में यह बात सुनने को नहीं मिली कि कांग्रेस हाईकमान तक अपनी पहुंच का कभी उन्होंने बेजा इस्तेमाल किया । कश्मीर के इस नेता ने हमेशा ही देश हित को लेकर काम किया और आज राज्य सभा से उनकी विदाई पर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भी बोलते-बोलते जब भावुक हो गये तो सहसा कई सवाल मन में उठने लगे।

वर्तमान नफरत के दौर में यह सवाल उठना स्वाभाविक भी था। जिन लोगाों के लिए हिन्दू राष्ट्र के अलावा कोई स्वीकार्य ही नहीं है और जो लोग मुसलमानों को इस देश का दुश्मन समझते हुए विषवमन करते रहते हैं उनके लिए प्रधानमंत्री मोदी का गुलाम नबी आजाद के प्रति स्नेह की क्या प्रतिक्रिया हुई होगी यह बताने की जरूरत नहीं हैं। क्योंकि जब किसी के दिल में सांप रेंगता है तो उसके मुंह से जबान चली जाती है।

ये देश गंगा-जमुना तहजीब का है, इस देश की आजादी में हर धर्म और हर जाति ने अपनी कुर्बानी दी है और आजादी के बाद उत्पन्न हर विषम परिस्थितियों का कंधे से कंधा लगाकर मुकाबला किया है लेकिन 2014 में जिस ढंग का अवतार हुआ हालांकि उसका बीज 2002 में ही लगाया जा चुका था, उस अवतार ने इस देश में नफरत की ऐसी आंधी चलाई है कि पूरा एक वर्ग हाशिये पे डाल दिया गया। नफरत के इस दौर में सत्ता भी वही फैसला करते रही ताकि सत्ता के लिए हथियार जुटाये जा सके लेकिन इसका दुष्परिणाम क्या हुआ। हम आर्थिक रुप से टूट गये, युवाओं के पास रोजगार खत्म हो गया, बढ़ती मंहगाई ने जीना दूभर कर दिया लेकिन राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद के झांडे का छाया इतना गहरा रहा कि इस देश की भलाई किसमें है यह दिखना ही बंद हो गया।

क्या यह भावुक क्षण यह इशारा नहीं करता कि देश को जितनी जरूरत हिन्दुओं की है उतनी ही जरूरत मुसलमानों या दूसरे धर्म के लोगों की भी है। क्या ये आंसू उन भक्तों को भी दिखावा लगेगा जो अपने दिल में नफरत की आग लेकर चल रहे हैं या इस आंसू के बाद कथित अवतारी में इतना साहस होगा कि वह अनेकता में एकता के लिए मार्ग प्रशस्त करे।

सवाल कई हैं, लेकिन सत्ता की घिनौनी राजनीति ने जिस, बीज को बोया है उसे पेड़ बनने से रोकना ही होगा। वरना प्रधानमंत्री के आंसू पर सवाल उठने से कोई कैसे रोक सकता है!

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

मन की बात...


क्या हम सचमुच उस दौर में जी रहे हैं जहां नेता को कोई काम करना आता हो या न आता हो बोलना आना चाहिए और जो अपनी बातों से मोह ले वही राज करेगा? यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि संसद में किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह की बातें हुई उसके बाद तो इस बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाता कि किसान आखिर आंदोलन क्यों कर रहे हैं और न ही इस बात का मतलब ही रह गया है कि राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद से इतर भी इस देश के लोगों की अपनी जरूरतें हैं।

पूरी दुनिया का आप आकलन कर ले ऐसा आंदोलन कहीं नहीं मिलेगा जहां दो दर्जन से अधिक आंदोलनकारी किसानों ने खुदकुशी की हो और आंदोलन के दौरान करीब दो सौ किसानों की जान चली गई हो लेकिन जब सत्ता यह कहे कि इस आंदोलन का कोई मतलब नहीं है और प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि किसान सिर्फ आंदोलन करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं तो इसका क्या मतलब है?

क्या इस बात को नजरअंदाज कर देनी चाहिए कि सभी राज्यों में किसानों की उपज की खरीदी किस तरह से न्यूनतम दर पर हो रही है। या हम प्रधानमंत्री की बात को मान ले कि एमएसपी बंद नहींं होगी?

ऐसे में क्या इस बात का आकलन नहीं होना चाहिए कि क्या किसानों की उपज की कितनी फसल एमएसपी पर खरीदी जा रही है और कितने व्यापारी एमएसपी पर खरीदी कर रहे हैं लेकिन जब पूरे देश को राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद की लाठी से हांका जा सकता है तब इस बात से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता कि गैस बिजली पेट्रोल की कीमत कितनी बढ़ रही है और न ही इस बात का ही फर्क पड़ता है कि राशन की कीमत कितनी बढ़ रही है!

ऐसे में फिर सवाल यह उठता है कि क्या जो महंगाई या अपनी दूसरी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं उनके लिए नया रास्ता क्या है क्योंकि किसानों की बढ़ती मौत के आंकड़े भी जब सत्ता को न डिगा सके तो दूसरा उपाय क्या होना चाहिए?

सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि किसानों के आंदोलन को लेकर विपक्षी दलों की भूमिका भी स्पष्ट नहीं है और कार्पोरेट जगत से मिलने वाले चंदा की लालच में वे उन बातों का न ठीक से विरोध कर पा रहे हैं और न ही किसानों का ठीक से समर्थन करते हुए साथ खड़े हैं।

ऐसे में 26 जनवरी के बाद अब तक हुए पंचायतों की भीड़ को देखना होगा कि वे आंदोलन के माध्यम से राजनीति की दिशा को कैसे बदलेंगे!

सोमवार, 8 फ़रवरी 2021

जिम्मेदारी कहां है...

 

यह दौर अजीब है, खुद की जिम्मेदारी से भागती मोदी सत्ता ने अपनी जिम्मेदारी से बचने दोषारोपण का सहारा लेने लगी है और इस खेल में ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप यूनिवर्सिटी की भूमिका किसी भी सभ्य समाज को शर्मसार कर सकती है!

और जब सत्ता जिम्मेदारी से बचने लगे तो फिर इसका साफ मतलब है कि नियत ठीक नहीं है और जब नियत ही ठीक न हो तो लोकतंत्र का क्या मतलब रह जाता है।

इन दिनों संसद से लेकर सड़क तक बल्कि अंतरराष्ट्रीय मंच पर भी किसानों का मुद्दा छाया हुआ है। ऐसे में सत्ता की जिम्मेदारी है कि वह किसानों से बातचीत करके कोई रास्ता निकाले या फिर तीनों कृषि कानून ही रद्द कर दे लेकिन सत्ता अपनी जिम्मेदारी निभाने की बजाय आंदोलन तोडऩे में पूरी ताकत लगा रही है। पहले तो उन्हें आतंकवादी, नक्सली देशद्रोह कहा जाने लगा फिर दीवारें खड़ी की गई। सड़कों पर छड़ो की कीलें लगाई गी, रसद-पानी-बिजली इंटरनेट तक बंद किया गया। किसानों के खिलाफ इस तरह से विषवमन किया गया मानों वे आंदोलन करके दुश्मन हो गये है। और जब पूरी दुनिया का ध्यान इस मानवाधिकार हनन पर होने लगा तो इसे एक बार फिर भारत को बदनाम करने की साजिश बताई जा रही है जबकि हकीकत यह है कि पूरी दुनिया में अभी भी ऐसे लोग हैं जो मानवाधिकार के उल्लंघन पर तीखी प्रतिक्रिया देकर किसी भी देश की सत्ता को बेचैन कर देते है।

इस मोदी सत्ता की दुविधा यही है कि वह मीठा गप्प गप्प तो करती है लेकिन कड़वा के लिए दूसरे को जिम्मेदार ठहराती है, संसद  न चले तो विपक्ष जिम्मेदार, जीएसटी में तकलीफ हो तो कांग्रेस ला रही थी, किसान आंदोलन हुआ तो यह बिल कांग्रेस ली रही थी। इसका क्या मतलब है। क्या तब भाजपा विरोध में नहीं खड़ी थी और जब वह विरोध में खड़ी थी तो आज यह सब क्यों कर रही है।

लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि वह हर असहमति के स्वर को देशद्रोही का नाम देती है जबकि ऐतिहासिक पृष्ठभूमि कुछ और ही कहता है।

संसद में संजय सिंह ने पूछा भी कि यदि जीएसटी कांग्रेस, किसान कानून कांग्रेस लाने वाली थी इसलिए भाजपा ले आई तो फिर पार्टी का नाम ही कांग्रेस, बी कांग्रेस ही कर देना चाहिए। सवाल कई है जिसे पूछा जाना चाहिए कि आखिर स्टॉक सीमा में छूट देने का अर्थ क्या है, क्या यह महंगाई, कालाबाजारी को बढ़ावा देना नहीं है लेकिन यह सवाल कोई नहीं पूछेगा? क्योंकि अति राष्ट्रवाद और धर्मान्धता किसी कोढ़ से कम नहीं है। यह बात हरिशंकर परसाई जी ने जब कही थी तब कितनों को इस पर यकीन रहा होगा ! लेकिन आज की परिस्थितियां यह चिख चिख कर कह रही है कि अति सर्वेत्र वर्जते ! अति का अंत होता ही है और किसान आंदोलन ने जिस शांतिपूर्ण ढंग से अपने को विस्तार दिया है वह किसी भी सत्ता के लिए बेचैन कर देने वाला है।

रविवार, 7 फ़रवरी 2021

कानून नहीं नियत...

 

तुमने आंदोलन को कुचलने सड़कों पर किलें ठोंक दी लेकिन किसानों ने उन किलों के समनान्तर मिट्टी में फूल रोप दिये। तुमने चक्काजाम के खिलाफ पुलिस के जवान खड़ा कर दिये लेकिन किसानों ने रफ्तार रोक दी। तुमने संसद में जब कहा कि कानून में काला क्या है तब किसी ने चुपके से कह दिया कि नियत ही काला है!

बस यही चुपके से कही बात हवा में तैरने लगा। खुशबू की तरह फैलने लगा। और इसके साथ ही तुम्हारे हर फैसले के पीछे की नियत परत-दर-परत खुलने लगी। क्योंकि फैसला कितना भी अच्छा हो यदि उसे लागू करने की नियत खराब हो तो लोकतंत्र उसे स्वीकार कदापि नहीं करेगा।

तुम्हारे हर फैसले में तुम्हारी खराब नियत खुलने लगी। और अब तो किसानों ने जिस तरह से इस नियत का खुलासा शुरु कर दिया है उससे राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व कुंठा भी सामने आने लगा है। तभी तो संघ के भीतर से भी आवाज आने लगी है कि सत्ता का अहंकार सर चढ़कर बोलने लगा है हालांकि संघ के कार्यकर्ता रघुनंदन शर्मा से हम इत्तेफाक नहीं रखते क्योंकि जिसकी राजनैतिक पृष्ठभूमि में ही नफरत विभाजन झूठ और अफवाह ही सब कुछ है वहां इन बातों का कोई औचित्य नहीं रह जाता कि लोकतंत्र का क्या महत्व है। 

हमने पहले ही कहा है कि जो लोग आंदोलनरत किसानों के खिलाफ विषवक्य कर रहे हैं उन्हें शायद यह नहीं पता है कि किसानों को केवल 80 हजार करोड़ सब्सिडी दी जाती है जबकि उद्योगों व व्यापार को जो हर साल छूट दी जाती है वह 6 लाख करोड़ से भी अधिक है।

हर दिन मरते किसानों का दर्द देखने की बजाय यह दावा करना कि हमारे हाथ खून से नहीं रंगे है हैरान कर देता है। सत्ता की नियत क्या है यह किसी से छिपा नहीं है। उसे अपनी रईसी बरकरार रखनी है और इसके लिए चंदा किसान नहीं कार्पोरेट ही देता है। ऐसे में यदि किसान तीनों कानून के खिलाफ कमर कस चुका है तो यकीन मानिये सत्ता को इसे वापस लेना ही होगा।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2021

पूंजी और अपराध की सत्ता...!

 

क्या वर्तमान में केन्द्र की मोदी सरकार पूरी तरह पूंजी और अपराध पर निर्भर हो चली है? आज हम यह सवाल इसलिए उठा रहे हैं क्योंकि किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह से दिल्ली के बार्डर पर सरकारी इंतजाम किये गये हैं वैसा इंतजाम तो कोई भी देश अपने नागरिकों के लिए नहीं करता !

इससे पहले यह सच जान लेना जरूरी है कि संसद के दोनों सदनों में खासकर सत्ताधारी दल के कितने सांसद करोड़पति है और कितने सांसदों पर अपराध दर्ज हैं? इस सच को जानने के लिए एडीआर की रिपोर्ट ही काफी है। सत्ताधारी दल के 80 फीसदी से अधिक संसद करोड़पति हैं और इसी तरह से सत्ताधारी दल के जिन 303 सांसद है उनमें से पचास फीसदी से अधिक सांसदों पर अपराधिक प्रकरण दर्ज है। ऐसे में सवाल यह भी उठता है कि क्या सांसद बनने के लिए पूंजी और अपराध का गठजोड़ जरूरी हो चला है। सवाल यह भी उठना चाहिए कि जब पूंजी और अपराध का गठजोड़ स्पष्ट दिखाई देने लगा है तो क्या आंदोलन को कुचलने के लिए यही सोच काम कर रहा है।

किसान आंदोलन को लेकर ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप यूनिर्वसिटी से इतर भी नफरत का जो बीड़ा बोया जा रहा है। बात-बात पर असहमति के स्वर को देशद्रोही करार देने वालों की सोच ने ही किसान आंदोलन को उग्र रुप दिया है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।

ऐसे में किसानों ने दिल्ली की बजाय पंचायतों तक का सफर करना शुरु कर दिया है तो इसका मतलब क्या है? किसानों ने साफ कर दिया है कि अब वे दिल्ली के अलावा पंचायतों तक अपना आंदोलन को विस्तार देंगे और पूंजी-अपराध का पर्दाफाश करेंगे।

भारतीय राजनीति का यह नया रुप देखने को मिलेगा क्योंकि जो सत्ता अब तक पंूजी और अपराध के गठजोड़ के आसरे अपनी रईसी बरकरार रखना चाहते है उनके लिए गरीब किसान नई तरह की चुनौती पैदा करने में लगे है।

अब तो किसान आंदोलन पर दुनिया के दूसरे देशों की निगाह भी पडऩे लगी, भले ही इसे अपना मामला कहकर टालने की कोशिश हो रही है लेकिन अमेरिका की घटना हो या पाकिस्तान में टमाटर के बढ़ती कीमत पर प्रतिक्रिया देने वाला या मजा लेने वालों की नींद तो उड़ ही चुकी है। ऐसे में यदि मीडिया की नजर में भी किसानों के साथ हो रहे अत्याचार दिखने लगेगा तब क्या होगा?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2021

किसानों का सच !

 

किसान आंदोलन से बेचैन मोदी सत्ता ने जिस तरह से किसानों को रोकने की कोशिश में अपनी पूरी ताकत लगा दी है, वह हैरान करने वाली तो है ही लोकतंत्र में विश्वास के नए संकट को जन्म दिया है। ऐसे में ट्रोल आर्मी और वॉट्सअप यूर्निवसिटी की भूमिका से देश में नफरत, झूठ और अफवाह को बल मिला है और इसे नहीं रोका गया तो हालत बदतर हो जायेंगे।

दरअसल किसानों ने जिस तरह से तीनों कानून के खिलाफ आक्रामक रूख अख्तियार किया है वह किसी भी सत्ता के लिए सहज नहीं है और ऐसे में किसानों के खिलाफ हो रहे झूठे विषवमन से एक नए तरह का तनाव पैदा हो गया है।

किसानों को लेकर जिस तरह की सब्सिडी देने की बात कही जाती है उसे समझना होगा। इस देश को आत्मनिर्भर बनाने में किसानों ने जो योगदान दिया है वह अनुकरणीय है ऐसे में यह जान लेना जरूरी है कि किसानों को पूरी दुनिया की सरकारें सब्सिडी देती है और भारत की तुलना में अमेरिका-चीन सहित चार दर्जन से अधिक देश आठ गुणा से लेकर 15 गुणा अधिक सब्सिडी देती है।

इसी तरह इंकम टैक्स में छूट को लेकर जो भ्रांतियां फैलाई जा रही है उसका भी सच यह है कि इस छूट का केवल वह किसान फायदा लेता है जो बड़े किसान है और ज्यादातर बड़े किसान या तो राजनीति से जुड़ा है या व्यापार से। आम किसान यानी 95 फीसदी किसान तो आज भी इंकम टैक्स की फाईल ही नहीं भरता।

इसी तरह जीएसटी भी किसान देता है। हर खरीदी में जीएसटी इस देश के हर नागरिक को देना पड़ता है इससे फिर किसान कहां छूट सकता है। और यह सभी के लिए बराबर है।

किसान आंदोलन कमजोर करने और किसानों के खिलाफ नफरत की बीज बोने की कोशिशों का दुष्परिणाम भयावह होगा। किसानों की मांगों को लेकर सरकार जिस तरह का रवैया अख्तियार किया है वह देश के लिए उचित नहीं कहा जा सकता।

एक तरफ मोदी सरकार स्वयं को किसानों का हितैषी बताती है तो दूसरी तरफ बजट केवल बाजार के लिए या पूंजीपतियों के लिए बनाती है। इस बजट में जिस तरह से 50 लाख के 6 साल पुराने मामलों को बंद करने का ऐलान किया गया है वह भी हैरान करने वाला है।

बजट में कहा गया है कि 6 साल पुराने इस मामले को इंकम टैक्स के द्वारा बंद कर दिया जायेगा। जबकि इसके दायरे में आने वालों की संख्या गिनती के है। 

बजट को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया आ रही है और उसका सच बाहर निकल रहा है वह संकेत है कि निजीकरण के इस दौर में मोदी सत्ता अपनी जिम्मेदारी से दूर भागना चाहती है।

बुधवार, 3 फ़रवरी 2021

अत्याचार...

 

रसद रोक दो, बिजली काट दो, नुकीले कीलें गाड़ दो और भी चाहे कितने ही उपाय कर लो पूरी दुनिया में इन सरकारी कोशिश से न तो  कभी आंदोलन रुकी है और न ही रुक सकेगी।

दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन को तोडऩे की तमाम सरकारी षडय़ंत्र नेस्तनाबूत हो चुकी है और अब सरकार जिस तरह से किसानों को रोकने का उपाय कर रही है उसका क्या मतलब है। क्या मोदी सत्ता किसानों के आंदोलन से भयभीत हो चली है, नहीं तो 26 जनवरी की आड़ में किसानों को रोकने के लिए जो रास्ता अख्तियार कर रही है, वैसा कभी नहीं करती।

दिल्ली बार्डर में किसानों को रोकने के लिए जिस तरह की व्यवस्था की जा रही है, वैसी व्यवस्था तो सत्ता केवल दुश्मनों के लिए करती है। इंटरनेट ठप्प कर दी गई है, बिजली पानी काट दी गई है और जिस तरह से नुकीलें कीलें, बारह लेयर की बाड़ और कंटीली तार लगाकर किसानों को रोकने की कोशिश की जा रही है वह हैरान कर देने वाली है।

लेकिन सरकारें शायद नहीं जानती कि आंदोलन रसद-पानी से नहीं हिम्मत से चलता है और आंदोलन की ताकत को दुनिया में कोई सत्ता नहीं रोक पायी है। इसलिए अब मोदी सत्ता के सामने तीनों कानून वापस लेने के अलावा भी कोई चारा होगा, कहना कठिन है।

दिल्ली के हालत 26 जनवरी के बाद जिस तरह से बदले और आंदोलन की गूंज देश के गांवों तक पहुंचने लगी है वैसा इससे पहले कब हुआ है याद नहीं पड़ता और यह भी याद नहीं पड़ता कि आंदोलन को रोकने कभी किसी सरकार ने रसद-पानी बिजली काटी हो।

ऐसे में किसानों के आंदोलन को लेकर आम लोग भी अब अपनी प्रतिक्रिया देने लगे हैं। जात-धर्म से दूर किसान जिस तरह से एकजुट होकर आंदोलन में हिस्सा लेने लगे हैं वह क्या इस देश में नए राजनैतिक समीकरण की ओर संकेत नहीं कर रहे है? क्या अगला चुनाव अब विकास के मुद्दे की बजाय किसानों के चुनाव लडऩे को लेकर होगा।

यकीन जानिये ऐसा हो सकता है? क्योंकि किसान अब समझने लगे हैं कि उनका हित किसमें है और यदि गांव-गांव से किसान आंदोलन की गूंज सुनाई दे रही है तो यह मोदी सत्ता ही नहीं दूसरे राजनैतिक दलों के लिए भी एक बड़ी चुनौती होगी। क्योंकि धर्म और जाति से परे किसानों का ेक जुट होना आंदोलन की सफलता की कहानी लिखने जा रहा है।

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2021

अंधेरे नगरी, चौपट राजा

 

यह तो बचपने में सुनी कहानी अंधेर नगरी, चौपट राजा, टकासेर भाजी- टकासेर खाजा की कहानी को ही चरितार्थ करता है वरना सरकार का जोर सिर्फ बाजार पर नहीं होता। इस बार का बजट पर पूरा जोर बाजार पर है और बाजार पर जोर का केवल एक ही अर्थ है कि हर कीमत पर सरकार को टेक्स चाहिए और हर कीमत पर टेक्स का मतलब इस देश की बहुत सी चीजे निजी हाथों को बेच दी जायेगी और निजी हाथों में बेचने का अर्थ उन हाथों को नहीं देखना है कि वह देशी है या विदेशी?

हम शुरुआत एलआईसी से करें या पुराने वाहनों को रातो-रात कबाड़ में तब्दिल करने की योजना से से करें। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

पूरी दुनिया में वाहनों की सड़क से हटाने के लिए फिटनेस सर्टिफिकेट देखा जाता है लेकिन यह सरकार उसकी उम्र देख रही है, इसका सीधा सा मतलब है कि वह जानती है कि लोगों की हालत नये वाहन खरीदने की नई रह गई है, इसलिए वाहन उद्योग की तिजौरी भरने के लिए यही एक मात्र उपाय है?

इसी तरह से देश में भारतीय जीवन बीमा निगम ही एक ऐसी संस्था है जिसके फल-फूल और जड़ सभी मजबूत है वह कई बार सरकार को भी फंड देती है, लेकिन अब सरकार को लगने लगा है कि इससे काम नहीं चलेगा इसलिए उसके फल और फूल तोड़े जायेंगे, फिर तना और आखरी में जड़ को खोखला कर दो।

बजट को लेकर जिस तरह की प्रतिक्रिया आ रही है, उसमें छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की प्रतिक्रिया का अर्थ लोगों को समझना चाहिए ''बकौल भूपेश बघेल मैं पहले ही कता था कि कांग्रेस ने 70 साल में जो कुछ बनाया है ये वह सब एक-एक करके बेच देंगे!ÓÓ

जब बजट की ऐसी प्रतिक्रिया है तो समझा जा सकता है कि मोदी सत्ता आने वाले दिनों में क्या करने वाली है  और देश किस दिशा में जा रहा है।

गांव की तपिश...


अचानक प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब कहा कि वे आंदोलनरत किसान नेताओं से सिर्फ एक फोन दूर हैं, तो इसका मतलब साफ है कि गांव-गांव से उठ रहे आवाज अब उनके कानों में सुनाई पडऩे लगी है और वे इस आंदोलन के विस्तार से विचलित हैं, बेचैन हैं।

किसान आंदोलन का यह एक ऐसा सच है, जिसे नजरअंदाज करना आसान नहीं है क्योंकि तमाम सरकारी प्रपंच और अवरोध के बाद भी किसान अपनी मांगों पर टिके हुए हैं वे एक इंच जमीन छोडऩे को तैयार नहीं है ऐसे में सरकार के सामने दुविधा है कि वह कैसे तीनों कानून को रद्द करें।

दरअसल किसानों ने यह जान लिया है कि तीनों कृषि कानून उनकी हालत बदतर कर देगा और वे कहीं के नहीं रहेंगे। क्योंकि जहां के भी किसानों के विकास के नाम यह अपनी जमीनें दी है उनकी हालत मजदूर की हो गई है। मुआवजे के रुप में दी जाने वाली रकम कब खर्च होता है यह पता नहीं चलता और सरकार रोजगार देने की बजाय भीख देने में ध्यान देती है।

यही वजह है कि तीनों कानून के विरोध गांव-गांव से लोग दिल्ली पहुंचने लगे हैं। इतनी बड़ी तादात में किसान दिल्ली की सीमा पर डटे हुए हैं कि सरकार का सारा प्रपंच धरा का धरा रह गया है।

ऐसे में सवाल यह है कि आखिर सरकार यह तीन कानून लाने में क्यों अड़ी हुई है? इसका सीधा और साफ मतलब है कि सरकार बनाने के लिए पार्टियों को पैसों की जरूरत है और पैसा किसान नहीं कार्पोरेट देता है। इसलिए कार्पोरेट के इशारे पर यह कानून लाया गया कि कोई किसान अदालत का दरवाजा खटखटाकर बेवजह उनके मंसूबे को ध्वस्त न कर दे। बेहिसाब स्टॉक से लेकर कांट्रेक्ट खेती वाले इस कानून का मतलब ही किसानों को नोच खाना है।

ऐसे में सरकार के सामने दिक्कत यह है कि पांच ट्रिलियन का जो सपना वह देख रही है वह बगैर कार्पोरेट के कैसे पूरा होगी, इसलिए ये तीनों कानून भी इसी मंशा से बनाई गई है लेकिन सरकार की यह मंशा इस बार किसानों ने भांप ली है और अब तो गांव-गांव में आंदोलन की सुगबुगाहट शुरु हो गई है जिसकी तपिश ने प्रधानमंत्री को एक फोन दूर तक ला दिया है।