शुक्रवार, 5 मार्च 2021

हिटलर की राह...

 

क्या भारत में लोकतंत्र खतरे में है? क्या देश के प्रधानमंत्री की राह हिटलरी हो चली है? क्या असहमति के स्वर को दबाने सरकारी तंत्र का दुरुपयोग किया जा रहा है? ये ऐसे सवाल है जिसे फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट से बल मिलता है।

दुनिया में लोकतंत्र को लेकर अपनी रिपोर्ट में फ्रीडम हाउस ने जिस तरह से अमेरिका और भारत सहित दुनिया के कई देशों में लोकतंत्र में गिरावट बताया है उसके बाद यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि भारत आखिर किस दिशा में जा रहा है। हालांकि इस रिपोर्ट पर अमेरिका के विदेश सचिव ने सहमति जताई है लेकिन भारत भर में इस रिपोर्ट से सन्नाटा छाया हुआ है। यही कोई वाहवाही की रिपोर्ट होती तो अब तक भक्त, वाट्सअप यूनिर्वसिटी और आईटी सेल तारीफों के कसीदे गढ़ते रहते लेकिन रिपोर्ट मोदी सत्ता की करतूतों पर सवाल उठा रहा है तो सन्नाटा है।

सन्नाटे और चुप्पी में वे लोग भी हैं जो कल तक किसान आंदोलन के समर्थन में खड़े थे, फिल्मी हस्तियां, कलाकार, साहित्यकारों की इस रिपोर्ट पर चुप्पी ने ही साबित कर दिया है कि सत्ता का भय किस कदर हावी है। रिपोर्ट की एक-एक बातें न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि यह बताती है कि वर्तमान सत्ता ने लोकतांत्रिक मूल्यों को किस तरह तोड़ा है।

ऐसे में नागरिकता कानून से लेकर जेएनयू और वर्तमान में चल रहे किसान आंदोलन को लेकर सरकार भूमिका को स्पष्ट करती है। सीबीआई, ईडी और आयकर की कार्रवाई को लेकर विपक्ष पहले ही आरोप लगाते रही है कि ये सब विरोध के स्वर को दबाने मोदी सत्ता का औजार है। अनुराग और तापसी के यहां मारे गये आयकर छापे भी इसी ओर चुगली करते हैं।

भारत की आंशिक आजादी को लेकर फ्रीडम हाउस की रिपोर्ट को लेकर इतिहास को पलटने की जरूरत है कि आजादी की लड़ाई में कौन खड़ा था, कैसे मुस्लिम समुदाय को निशाना बनाने झूठ और अफवाह का सहारा लिया गया ?

ऐसी कितनी ही रिपोर्ट फाइलों में बंद है जो साफ कहता है कि दंगा होता नहीं करवाया जाता है, गढ़ा जाता  है? ऐसे कितने ही सवाल उठाये गये जो गैर जरूरी थे, जिसमें सिवाय नफरत के अलावा कुछ नहीं था।

ऐसे में आज तक फ्रीडम हाउस ने भारत के लोकतंत्र में आई गिरावट को लेकर जब रिपोर्ट प्रकाशित की है तब आम आदमी को सोचना होगा कि आखिर इस देश में किसकी जरूरत है।

क्या नेताजी सुभाष बाबू की वकालत सिर्फ इसलिए की जाती रही ताकि बीस साल तक तानाशाही शासन की मंशा के समर्थक है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चालीस और पचास के दशक में बहुत से देश आजाद हुए जिनमें से अधिकांश देशों में राजशाही या तानाशाही सत्ता का उदय हुआ। भारत में भी कई राजा  इसके समर्थक थे लेकिन गांधी-नेहरु की सोच ने इस देश में लोकतंत्र की नींव रखी। 

ऐसे में सवाल यही है कि गांधी-नेहरु का विरोध करते-करते हम इतने अलोकतांत्रिक हो चले है कि इस देश में ही लोकतंत्र खतरे में आ रहा है।