बुधवार, 26 मार्च 2014

कर्णधारों की कवायद


न नीति न नैतिकता, भाड़ में जाए जनता
देश की सत्ता संभालने की बिसात बिछ चुकी है और मोहरे भी बिठाये जाने लगे हैं। सत्ता के लिए दोनों राष्ट्रीय दल कांग्रेस और भाजपा अपने अपने सहयोगियों के साथ आमने सामने है। पिछले दो दशक से जनता ने किसी एक दल को बहुमत के आकड़े से दूर रखा है तो इसकी वजह इन दिनों प्रमुख राजनैतिक दलों की सत्ता की भूख है जिसे जनता अच्छी तरह जान चुकी है। और इस बार भी जिस तरह से सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधन किये जा रहे हैं उसके बाद किसी एक दल को स्पष्ट बहुमत मिल जाए इसकी सभावना कम ही है। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में भारत की सत्ता के लिए 9 चरणों में हो रहे चुनाव में सत्ता हासिल करने की कवायद में लगे दलों ने जिस तरह से राजनैतिक सुचिता और अपने दलों के सिद्धांतो को तिलाजंति दी है वह आश्चर्यजनक है।
अपने दम पर सरकार बनाने से दूर होते कांग्रेस में तो अफरा तफरी का माहौल है। उसके कई बड़े नेता चुनाव लडऩे से मना कर रहे हैं या फिर जिधर बम उधर हम की तर्ज पर दूसरे दलों का सहारा लेने लगे हैं। इसके बावजदू राहुल गांधी को पिछले चुनाव से अधिक सीटें जीतने की उम्मीद हैं तो इसकी वजह कांग्रेस विरोधियों की वह करतूत है जो हर हाल में सत्ता हासिल करने अनैतिक गठबंधन या कांग्रेस से आने वालों को टिकिट देना या यादिरप्पा जैसों को गले लगाना है।
चुनाव के घोषणा के पहले जिस तरह से कांग्रेस के खिलाफ माहौल था वह माहौल चुनाव आते-आते खतम होने लगा तो इसकी प्रमुख वजह भी भारतीय जनता पार्टी का मुद्दे की बजाय नरेन्द्र मोदी को प्रमोट करना है।
दरअसल भाजपा के सामने सबसे बड़ी दुविधा यह है कि वह आज भी अपने दम कर कांग्रेस को परास्त करने की सोच ही नहीं पैदा कर पाई हैं इससे पहले भी वह कांग्रेस को सत्ता से दूर करने की लड़ाई में गठबंधन का सहारा लेते रही है और इस खेल में न केवल उसने अपनी पार्टी के सिद्धांतो को तिलांजलि दी बल्कि राजनैतिक सुचिता को भी दरकिनार किया।
पीएम इन वेटिंग नरेन्द्र मोदी की हवा तो उस दिन ही हवा हो गई जबब उसने विहार में राम विलास पासवान से समझौते किये और यदिरप्पा को पार्टी से टिकिट दी। यही नहीं बीजेपी के बड़े नेताओं ने जिस तरह से सुरक्षित सीट की तलाश शुरू की तभी से भाजपा की जीत को लेकर संशय के बादल न केवल मंडराने लगे बल्कि मोदी की हवा पर भी सवाल उठने लगे।
राजनैतिक विश्लेषकों की माने तो इस बार भी किसी एक दल के जादुई आकड़े छुने की संभावना दूर दूर तक नहीं दिख रहा है। और यही वजह है कि भाजपा की बौखलाहा खुलकर सामने आने लगी है। और वह भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाने की बजाय नरेन्द्र मोदी के नाम का सहारा ले रही है। हर हर मोदी का नारा और दिल्ली भाजपाध्यक्ष हर्षवर्धन का भगवान भी नहीं रोक सकने वाले बयान को इसी बौखलाहट का परिणाम भी माना जा रहा है।
दूसरी तरह जनता भी यह समझ नहीं पा रही है कि आखिर कांग्रेस और भाजपा किस मामले में अलग है। भ्रष्टाचार की फेहरिश्त दोनों ही दलों में कम नहीं है तो अपराधियों को टिकिट देने के मामले में भी दोनों दलो की एक ही तरह की राम है। दोनों ही दलो के सहयोगियों के कारनामें भी एक ही तरह के है तो फिर सत्ता की दौड़ में अफरातफरी दोनों ही दलों में एक समान है। इधर गांधी परिवार पर वंशवाद का आरोप लगाने वाली भाजपा में भी वंशवाद का जो खेल इस चुनाव में हुआ है वह भी दोनो को एक कर रही है। यही वजह है कि अनैतिक गठबंधन से सत्ता हासिल करन के खेल ने दोनों ही पार्टियों से जनात का मोह भंग किया है और नई नवेली आम आदमी पार्टी में उम्मीद दिखने लगी है।
छ: महीने की पार्टी आम आदमी पार्टी को जिस तरह से बड़े शहरों में समर्थन मिल रहा है और जिस तरह से कस्बों तक लोग उनसे जुडऩे लगे है वह दोनों ही दलों के लिए हैरान कर देने वाली है और इसे नजर अंदाज करना भी भारी पड़ सकता है। क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव में वोट काहु पार्टी की सोच हवा हो चुकी है।
क्या कांग्रेस और भाजपा के बड़े नेता आपस में मिले हुए है या कार्पोरेट घरानों के कारनामों पर दोनों ही दल चुप हैं। यह सवाल उबकर आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से कांगे्रस और भाजपा के दिग्गजों को चुनौती देने का फार्मूला बनाया है क्या यह नई राजनीति जनता के दुखते रग को छु पायेगी।
ऐसे कितने ही सवाल है जो जनता के मन में है और कहा जाता है कि यही सवाल पिछले हो दशकों से किसी एक दल को सत्ता के जादुई आंकड़े से दूर रखा है।

सोमवार, 24 मार्च 2014

भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाने से परहेज?


लोकसभा चुनाव को लेकर राजनैतिक दलों की सत्ता की भूख थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। जिसे देखो वहीं सत्ता के लिए अनैतिक गठबंधन कर रहा है या फिर अनैतिक कार्य कर रहा है। सारे सिद्धांतो को तिलाजंलि देकर जिस तरह से चुनाव जीतने की कोशिश हो रही है वह न केवल आश्चर्यजनक है बल्कि दुखद भी हैं।
पिछले दस सालों से सत्ता में बैठी कांग्रेस को निशाना बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी भ्रष्टाचार और महंगाई को मुद्दा बनाने की बजाय जिस तरह से नरेन्द्र मोदी को सामने रखकर चुनावी वैतरणी वार करना चाहती हैं वह भाजपा के राजनैतिक सुचिता पर तो सवाल खड़ा करते ही है कथनी और करनी के अंतर को भी स्पष्ट कर देने वाला है।
सत्ता के लिए कुछ भी करेगा मेरी मर्जी के आगे आम जनमानस हैरान है। अपराध से लेकर भ्रष्टाचार करने वालों को टिकिट देने वाले दलों से सत्ता प्राप्ति के बाद यह उम्मीद बेमानी है कि वे ऐसे लोगों के दबाव में आये बगैर जनहित में कार्य कर पायेंगे।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंंत्र के राजनेताओं की सत्ता भूख के आगे जनता की बेबसी स्पष्ट है कि वह आखिर किस दल पर भरोसा करे। जो लोग कांग्रेस से उम्मीद छोड़ चुके है उनके सामने भाजपा को लेकर भी वहीं सवाल है। आखिर दोनों दल किस मामले में अलग है। कुर्सी की दौड़ में जिस बम उधर हम की अफरा तरफी स्पष्ट है और भ्रष्टाचार जैसा भयावह मुद््दा जाति धर्म के आगे दम तोड़ता दिख रहा है।
यूपीए के खिलाफ चुनाव पूर्व माहौल को भुनाने की बजाय भाजपा ने जिस तरह से दूसरे दलों से आने वालों को टिकिट दी है और मोदी के भरोसे चुनावी वैतरणी पार करने की कवायद की है उससे लोगों का भरोसा भाजपा से भी डिगा है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
सिर्फ मोदी के भरोसे दलबदल करने वाले या आपराधिक छवि वालों को टिकिट देकर जीत का सपना कहीं एक बार फिर भाजपा को सत्ता से दूर ही रखे तो भाजपाईयों को हैरानी नहीं होनी चाहिए।
इस मामले में अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी या ममता बेनर्जी और बिजू जनता दल ही कुछ अलग राजनैतिक संदेश तो दे रहे हैं लेकिन यह कहना कठिन है कि इनकी स्वीकार्यता कितनी है।
यही वजह हैं कि पिछले दो दशक यानी 1984 के बाद से किसी भी दल ने 272 का जादुई आकंड़ा नहीं छु सका है। दलबदल करने वालों की हार और अपराधिक छवि वालों को टिकिट देने का दुस्परिणाम को नजर अंदाज करने की भूल ने ही जनता को मजबूर किया है कि वह किसी एक दल पर भरोसा न करे।
भले ही ऐसे नेता चुनाव जीत रहे हो पर सच तो यह है कि इस तरह के लोगों को टिकिट देने का दुष्परिणाम आखिल भारतीय स्तर पर पड़ता है जिसे नजरअंदाज किया जाता रहा है।
बकौल अरविन्द केजरीवाल भाजपा और कांग्रेस ने मिल बैठकर सत्ता हासिल कर रहे  हैं। ये राजनैतिक दलाली है जिसके खिलाफ हर व्यक्ति को आगे आना चाहिए तभी लोकतंत्र स्थापित होगा। क्या यह स्पष्ट नहीं दिखता इससे परे कांग्रेस और भाजपा की राजनीति है? यह सवाल केजरीवाल ने भले उठाये हो पर मोदी बनाम राहुल की लड़ाई से असल मुद्दो गौण करने की कोशिश इस सवाल पर उत्तर है।

शुक्रवार, 21 मार्च 2014

ब्लेकमेलर युवती के कई नामचीन लोगों से अतंरंग संबंध...


वन विभाग के रेंजर को ब्लेकमेल से हुआ खुलासा
कई नामचीन लोगों ने करोड़ो का बीमा करवाया
दर्जनों अश्लील क्लीप व वीडियों पाये गये
कई हो चुके ब्लेकमेल का शिकार
बदनामी के डर से नहीं आ रहे सामने
पीएचक्यू से मंत्रालय तक के अफसर शामिल
वन विभाग के रेंजर उदय सिंह ठाकुर को ब्लेकमेल करने वाली युवती भले ही गिरफ्तार होकर जेल का हवा खा रही है लेकिन उसके द्वारा प्रदेश के कई लोगों को भी ब्लेकमेल करने की जानकारी पुलिस को मिलने लगी है लेकिन ये अधिकारी अपनी प्रतिष्ठा बचाने ब्लेकमेलर युवती के खिलाफ रिपोर्ट लिखाने से बच रहे हैं। दूसरी तरफ ुयुवती द्वारा अपने रूपजाल में फांस कर करोड़ों रूपये का बीमा करवाये जाने का सनसनीखेज मामला भी खुलकर सामने आया है। पुलिस इसे भी आधार मानकर जांच कर रही है। छत्तीसगढ़ की राजधानी में चल रहे हाईप्रोफाईल खेल का यह एक ऐसा किस्सा है जो साबित करता है कि किस तरह से यहां हाईप्रोफाईल सेक्स रैकेट चल रहे हैं। सूत्रों की माने तो ट्रांसफर पोस्टिंग से लेकर ठेका लेने तक के खेल में यहां युवतियां इस्तेमाल हो रही है और यह सब इतने गुपचुप तरीके से चल रहा है कि कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं है। सूत्रों का कहना है कि वन विभाग के रेंजर को ब्लेकमेल करने का मामला भी अति सर्वत्र वर्जत की तर्ज पर ही उजागर हुआ वरना युवती द्वारा ब्लेकमेल करने का खेल तो लंबे समय से चल रहा था। पुलिस सूत्रों के मुताबिक युवती के घर और बैंक लाकर से बड़ी मात्रा में न केवल अश्लील क्लीपिंग बरामद हुई है बल्कि इन क्लीपिंग में अलग अलग चेहरे भी दिखाई दे रहे हैं। पुलिस ने इस आधार पर दावा किया है कि कई नामचीन लोग भी ब्लेकमेल का शिकार हो सकते हैं।
दूसरी ओर पुलिस का यह भी दावा है कि युवती ने कई नामचीन लोगों को करोड़ों रूपये का बीमा पालिसी बेची है और इनमें से कई पॉलिसी ब्लेकमेल करके बेची गई हो सकती है। पुलिस इस संभावना के आधार पर बीमा कंपनी से डिटेल मांग रही है। इधर सूत्रों का दावा है कि युवती द्वारा ब्लेकमेल के शिकार लोगों की संख्या दर्जनभर से अधिक है लेकिन वे लोग सामने आने से कतरा रहे हैं। ऐसे लोगों को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा की चिंता है। जबकि चर्चा इस बात की भी है कि युवती के पीएचक्यू से लेकर मंत्रालय में पदस्थ कई अफसरों से संबंध रहे हैं और कई बड़े ठेके और तबादले में इस युवती का अहम रोल रहा है।
सूत्रों का तो यहं तक दावा है कि शहर के कई नामचीन व्यापारिक संस्थान के लोगों को भी युवती ने बीमा पॉलिसी बेची है और इनमें से कुछ पॉलिसी जबरिया दिलाई गई है।
बहरहाल छत्तीसगढ़ की राजधानी में चल रहे इस खेल को लेकर कई तरह की चर्च है और कहा जा रहा है कि ठेके हासिल करने या बड़ा काम कराने के एवज में राजधानी में यह खेल लंबे समय से चल रहा है।

शुक्रवार, 14 मार्च 2014

कर्णधारों के मायने और महापर्व की आगाज...


लोकतंत्र कर सबसे बड़े महापर्व का आगाज हो गया। 16 मई तक राजनैतिक दलों की सांसे सांसत में रहेगी। 81.4 करोड़ मतदाता अपने 543 कर्णधारों को चुनेंगे।  जो जीतने के पहले अपने पक्ष में मतदान कराने घर घर घुमेंगे।
चुनाव आयोग के घोषणा के साथ ही शुरु हो रही इस खंदक की लड़ाई पर जीत का सेहरा बांधने की होड़ मची है। और हर बार की तरह इस बार भी जनता ने मोटे तौर पर तय कर लिया है कि सरकार किसकी बननी है। कांग्रेस जहां राहुल गांधी के नेतृत्व में हम जोड़ते हैं वे तोड़ते हैं के नाटों के साथ मैदान में है तो भाजपा पीएमएन वेटिंग नरेन्द्र मोदी की अगुवाई में देश की आखंडता और महंगाई का मुद्दा बनाने में लगे हैं। पर सच तो यह है कि वर्तमान परिस्थिति में दोनों ही दलों के लिए स्वयं के बूते न तो सरकार बनाने के लिए आवश्यक जादुई आंकड़ा 272 को छुने की क्षमता है और न ही इन्हें छू पाने का विश्वास है।
कल तक कांग्रेस को सत्ता से बाहर करने के लोभ में किसी भी पार्टी बाहर करने के लोभ में किसी भी पार्टी से गठबंधन करने वाली भाजपा आज भी गठबंधन के रास्ते ही सत्ता तक पहुंचने इस कदर आतुर है कि उसके लिए रामविलास पासवान हो या कोई अन्य दल अछुत नहीं है। उसे पार्टी गुर्राने वाले येदियप्पा से लेकर कल्याण सिंह और शिवसेना से लेकर आरपीआई सभी का समर्थन चाहिए।
पिछले दो दशक से जारी गठबंधन की राजनीति से देश को होने वाले नुकसान की चिंता न तो कांग्रेस को हैं और न ही भाजपा को ही रह गई है। वाजपेयी सरकार के समय में बात हो या यूपीए की हर बार अपनी अक्षमता पर गठबंधन की राजनीति की मजबूरी बताने वाले दल इस बार भी इसी राह पर है तब भला जनता क्या करें।
तीसरे मोर्च ने भी एक गठबंधन तैयार किया है लेकिन इनमें भी वहीं दल है जो देर सबरे कांग्रेस या भाजपा का हिस्सा रह चुके हैं और चुनाव परिणाम के बाद जिधर बम उधर हम के फार्मूले पर भरोसा करते हैं।
इस बार चुनाव रोमांचक और कटु होने की इसलिए भी अधिक संभावना है क्योंकि गठबंधन की राजनीति से परे आन्दोलन की राह चलते दिल्ली की सत्ता हासिल करने वाले आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से राजनीति शुरु की है उससे परम्परागत ढंग से जनता को बेवकुफ बनाने वाले राजनैतिक दलों की नींद उड़ गई है। हालांकि आम आदमी पार्टी का असर शहरी क्षेत्रों तक ही सीमित है लेकिन जिस तरह से आप के नेताओं ने कांग्रेस और भाजपा के बीच दलाली का मुद्दा उठाकर भ्रष्टाचार और महंगाई से त्रस्त जनता के बीच एक नई राजनीति की शुरूआत की है उससे भाजपा की राह कठिन होने लगी है।
कार्पोरेट घरानों के साथ कांग्रेसी और भाजपाई ताल्लुकात को मुद्दा बनाते हुए रातों रात देश में लोकप्रिय होने वाले अरविन्द केजरीवाल की पार्टी भी अपने बूते सरकार नहीं बना सकती लेकिन उसकी जीत तो तभी तय मानी जा रही थी जब उनकी पार्टी की वजह से कई राजनैतिक पार्टियों के मंत्रियों के काफिले की गाडिय़ा कस हो गई। सुरक्षा बल कम हो गये और निराश हो चुके लोगों की आंखो में उम्मीद दिखने लगी।
अब तक सिर्फ सत्ता के लिए जोड़-तोड़ और जीतने वाले प्रत्याशी को ही टिकिट का मापदंड बताने वाले दलों के लिए आप की चुनौती कितनी होगी यह तो पता नहीं लेकिन यह महापर्व अब राहुल बनाम मोदी था यूपीए बनाम एनडीए या कांग्रेस बनाम भाजपा नहीं रह गया है अब इसमें आम आमदी की भागीदारी भी जुड़ गई है जो कर्णधारों के मायने क्या हो यह लकीर खीचीं जा चुकी है।

गुरुवार, 13 मार्च 2014

कौन जिम्मेदार?


सत्ता = अनैतिक गठबंधन+ धन बल + बाहुबल + झूठे वादे+ जाति-धर्म का दुरूपयोग + बेहिसाब चुनावी खर्च + गलत आरोप-प्रत्यारोप + शराब खोरी + मुफ्त खोरी+ वोट खरीद
दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव का बिगुल बज गया है। सत्ता हासिल करने की लड़ाई का आगाज जिस तरह से पिछले दो-तीन दशकों से चल रहा है वह न केवल शर्मनाक स्थिति में पहुंच गया है बल्कि कौन किसके साथ है कहना मुश्किल है। हर हाल में सत्ता के लिए सिद्यांतो से समझौते के खेल से न गांधीवादी बचे है न हितुत्व वादी ऐसे में चुनाव आयोग के साथ-साथ आम जनता की जिम्मेदारी भी बढ़ी है। कार्पोरेट जगत की बढ़ती ताकत के बीच कमर तोड़ती महंगाई और बढ़ते भ्रष्टाचार से आज देश त्रस्त है तब इसके लिए जिम्मेदार किसे ठहराया जाए।
लोकतंत्र का चुनाव 9 चरणों हो रहा है। देश की जनता इन 9 चरणों में अपना प्रतिनिधि चुनेगी। सिद्दांतत: ये प्रतिनिधि ही हमारे हीतों को देखेंगे पर क्याा यह सचमुच हो रहा है। राजनैतिक दलों का सिद्यांत हर हाल में सत्ता तकर पहुंचना रह गया है। प्रत्याशी स्वयं चुनाव आचार संहिता की धज्जियां उड़ाते कहीं जाति-धर्म का सहारा ले रहे हैं तो झूठा शपथ पत्र दे रहे हैं धन की बारिश, शराब की नदिया और मुर्गाभात की दावतें उड़ाई जा रही है। राजनैतिक दल जीतने वाले प्रत्याशी के नाम पर बाहुबली और भ्रष्ट लोगों को टिकिट दे रही है जिसका परिणाम सबके सामने हैं। संसद का नजारा शर्मनाक हो चुका है हमारे प्रतिनिधि दुर्योधन और दुशासन की तरह लोकतंत्र का चीरहरण कर रहे हैं और अच्छे लोग भीष्म की भूमिका में तमाशा देख रहे हैं। सत्ता की चाह में डुबे ये कथित लोग पार्टी फोरम में भी इसका विरोध नहीं कर रहे हैं और आम आदमी का गुस्सा बढ़ता ही जा रहा है।
क्या यह सही वक्त नहीं है कि सारे अच्छे लोग जाति धर्म से परे उठ कर अच्छे लोगों को ही चुनाव जीताये चाहे वह किसी भी दल का हो? तभी हम लोकतंत्र को बचा पायेंगे। चुनाव सुधार की प्रक्रिया में तेजी के अलावा आम नागरिक अपनी भूमिका जिम्मेदारी से निभाये?
आज जब सभी दलों का ध्येय सिर्फ सत्ता पाना हो। सत्ता के लिए सिद्यांतो को भूल क्षेत्रिय दलो से हाथ मिला रहे हो न कांग्रेस ही  कांग्रेस रह गई है और न भाजपा ही भाजपा है तब भला इनके सिद्धांतो पर वोट डालने का औचित्य क्या रह गया है।
आज कांग्रेस के साथ कल भाजपा के साथ रह कर जिधर बम उधर हम के सिद्धांत पर चलने वालों की कमी नहीं है और न ही सत्ता के लिए राष्ट्रीय दलों को भी किसी से भी हाथ मिलाने से गुरेज ही रह गया है। ऐसे में आम जनता के सामने स्वत: ही विकल्प खुल गया है कि वह सिंद्धातों की राजनीति की दुहाई देने वाले दलों की बजाय अच्छे प्रतिनिधि का चयन करें।
जनता की जिम्मेदारी तब और भी बढ़ जाती है जब उनके राजनैतिक दल ऐसे लोगों को टिकिट देने से गुरेज नहीं करते जो लोकतंत्र के दुश्मन है और जिनका अपराध से नाता है।
संसद के हर सत्र में तमाशा बन रहे जनप्रतिनिधियों की अपने स्वार्थ के लिए एका भी आश्चर्यजनक है पार्टी नेतृत्व की अक्षमता की वजह से गलत लोग प्रभावशील होने लगे है। नेतृत्वकर्ता कितना भी काबिल हो यदि उसमें कड़ी कार्रवाई करने की क्षमता न हो तो अनैतिक काम करने वालों का ही हौसला बढ़ता है। पिछले दो तीन दशकों में यह बात खुलकर सामने आ चुका है कि ईमानदारी का मतलब चुप्पी नहीं है। लोग तो आज भी कहते हैं कि मनमोहन सिंह अच्छे व्यक्ति है पर मंत्रीमंडल की करतूत पर खामोशी का इस अच्छाई से क्या मतलब है।
लोकतंत्र में सभी की जिम्मेदारी तय है लेकिन हमने देख लिया है कि किसी भी तबके ने अपनी जिम्मेदारी ठीक ढंग से नहीं निभाई है अब जनता की बारी है कि वह सिद्धांत विहिन राजनैतिक दलों के वोट कमाऊ राजनीति का हिस्सा बनने की बजाय झूठे घोषणापत्र जारी कर सिद्धांत बघारने वाले दलों की बजाय अच्छे जनप्रतिनिधि को चुने भले ही उसकी सरकार न बने पर लोकतंत्र को बचाने का हथियार जरूर बनेगा।

शुक्रवार, 7 मार्च 2014

सत्ता ही ध्येय...


देश भर की तमाम राजनैतिक पार्टियां इन दिनों व्यस्त है। एक तरफ वे जनता पर विश्वास की कवायद में लगी है तो दूसरी ओर घोड़ा मंडी की तर्ज पर मोर्चा बंदी कर रही हैं। केन्द्र में बैठी यूपीए के खिलाफ भाजपा ने जिस अंदाज में हमला किया है और गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को पीएम इन वेटिंग के रूप में प्रोजेक्ट किया है इसका फायदा निश्चित रूप से भाजपा को मिला है लेकिन कांग्रेस के मुकाबले भाजपा में आज भी वह दम नहीं हैं कि वह अकेले अपने बूते सरकार बना लें। यही वजह है कि वह गठबंधन की राजनीति करते हुए सत्ता हासिल करना चाहती है। इस खेल में वह इस कदर लग गई है कि उसे दूसरी पार्टियों के करतूतों पर भी ध्यान नहीं है सिर्फ सत्ता हासिल करने किसी भी दल से तालमेल और किसी को भी टिकिट देने की परम्परा से राजनैतिक दल भले ही अपने मकसद में कामयाब हो जाए पर जनता का इसमें हित नहीं होने वाला है।
पिछले दो दशकों की राजनीति ने साफ कर दिया है कि जीत सकने वालों को टिकिट और सत्ता के जादुई आंकड़े तक पहुंचाने वाले दलों से तालमेल के मायने क्या है। कैसे छोटे-छोटे दलों ने अपने को तुर्रम खां माने जाने वाली पार्टियों को घुटने तक झुका दिया है।
इस बार भाजपा और कांग्रेस ने इसी गठबंधन की राजनीति के सहारे सत्ता हासिल करने भ्रष्ट-बेईमानों को गले लगाना शुरु कर दिया है। येदिरप्पा की वापसी या लालू से घालमेल पासवान से दोस्ती से लेकर मुसलमानों से माफी की राजनीति का मकसद हर हाल में सत्ता हासिल करना नहीं तो और क्या हैं।
कांग्रेस और भाजपा में अब ज्यादा फर्क नहीं रह गया है ऐसे में तीसरे मोर्चे की कवायद केवल चुनाव तक सिमट कर रह गई है। अब तक नए ढंग से राजनीति में आए अरविन्द केजरीवाल ने किसी तरह के गठबंधन से अपने को दूर रखा है। इस नये नवेले पार्टी ने दिल्ली विधानसभा में अप्रत्याशित परिणाम लाकर एक नई राजनीति की शुरुआत जरूर की है लेकिन मुद्दों को पूरा करने की जल्दबाजी से अपरिपक्वता के चलते अराजकता की हालात लाने का पैतरा कहां और कैसे सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचेगा कहना कठिन है। दिल्ली की तर्ज पर देश भर में चुनाव लडऩे की घोषणा में कई दलों की नींद जरूर उड़ गई है।
यही वजह है कि राजनीति की नई शुरुआत होने लगी थी परन्तु लोकसभा चुनाव आते आते सभी पार्टियां घुड़ दौड़ में शामिल दिखाई पड़ती है ऐसे में केजरीवाल का अकेले चुनाव लडऩे का फैसला और गठबंधन की राजनीति को दलाली साबित करने की कोशिश कैसे सफल होगी अभी से कहना कठिन है।
तमाम सिंद्धातों और मुद्दों से भटक चुकी राजनैतिक पार्टियों के लिए आम आदमी पार्टी की जीत एक सबक होने लगा था लेकिन सत्ता की दौड़ से निकलते धुल ने आंखों के सामने जो धुंध उत्पन्न किया है वह अनैतिक और नैतिक गठबंधन के बीच की लकीर को मिटा दिया है कहा जाए तो गलत नहीं होगा।
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गुरुवार, 6 मार्च 2014

विश्वविद्यालय फकत नाम के खुल रहे...


कई भवन विहिन तो उधार की फैकल्टी, स्टॉफ की भी कमी

रायपुर। छत्तीसगढ़ में हर साल खुल रहे विश्वविद्यालय में बुनियादी सुविधाओं और फैकल्टी का अभाव है। सच तो यह है कि राज्य बनने के बाद सरकार ने विश्वविद्यालय खोलने की घोषनाएं तो की लेकिन इसके बाद वह इन्हें भूल गई। बगैर संसाधन व सुविधाओं के विश्वविद्यालय कैसे संचालित हो रहीहै यह आसानी से समझा जा सकता है।
छत्तीसगढ़ में राज्य गठन के पहले चार विश्वविद्यालय थे जो अब बढ़कर 14 हो गये हैं। राज्य गठन के पहले से स्थापित विश्वविद्यालयों की स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी। स्टॉफ की कमी और उधार की फैकल्टी से चल रहे विश्वविद्यालय में संसाधन व सुविधाएं बढ़ाने की बजाय जिस पैमाने पर विश्वविद्यालय बनाए गए उस पर सवाल उठना स्वाभाविक है।
सूत्रों की माने तो विश्वविद्यालय की स्थापना को लेकर छत्तीसगढ़ चर्चा में है यहां विश्वविद्यालयों की खस्ता हाल से बदनामी अलग हो रही है। प्रदेश में हर साल विश्वविद्यालय खोलने की घोषणा का सच यह है कि कई विश्वविद्यालयों के पास अपने खुद का भवन तक नहीं है। तो कई विश्वविद्यालय स्टॉफ की कमी से बेहाल है। अधिकतर विश्वविद्यालय के पास गिनी चुनी फैकल्टी वह भी उधार की है इनकी हालत सुधारने की बजाय सरकार का रवैया यह है कि वह नये-नये विश्वविद्यालय खोलते चले जा रही है। हालत यह है कि कई विश्वविद्यालय तो उधार या किराये के चंद कमरे वाले भवनों पर चल रहा है।
सूत्रों की माने तो कई विश्वविद्यालयों में स्टॉफ की इतनी कमी है कि 80 से 85 फीसदी पद रिक्त है न शिक्षकों का पता है और न ही लिपिकों का पता है कुछ स्टॉफ जो काम भी कर रहे है वे या तो संविदा के है या प्रतिनियुक्ति से आये हैं।
बताया जाता है कि प्राध्यापकों की कमी को लेकर राज्यपाल द्वारा लगातार नाराजगी जताई जा रही है लेकिन इस पर पहल ही नहंीं हो रही है। शिक्षा के स्तर को लेकर पहले ही बदनाम छत्तीसगढ़ के विश्वविद्यालयों की इस हाल की चर्चा बाहर के राज्यों तक जा पहुंची है और अब तो डिग्री को लेकर भी गंभीर सवाल उठाये जा रहे हैं।
ज्ञात हो कि सौ से उपर निजी विश्वविद्यालय को लेकर चर्चा में आये छत्तसीसगढ़ में सरकारी विश्वविद्यालयों की जिस पैमाने में घोषणा की गई है वह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है।
सरकारी विश्वविद्यालयों का हाल
राज्य के गठन के पहले
विश्वविद्यालय    वर्तमान स्थिति    स्थापना वर्ष
पं. रविवि रायपुर    अधिकतर पद खाली    1 मई 1964
इंदिरा कला एवं संगीत विवि
गुरु घासीदास विवि बिलासपुर        60 फीसदी पद खाली    16 जून 1983
इंदिरा गांधी कृषि विवि रायपुर    50 फीसदी पद खाली    20 जून 1987
राज्य निर्माण के बाद
हिदायतुल्ला विधि विवि रायपुर    40 फीसदी पद खाली    जून 2003
पं. सुंदरलाल शर्मा मुफ्त विवि बिलासपुर    85 फीसदी पद खाली    29 मार्च 2005
कुशाभाऊ ठाकरे पत्रकारिता विवि रायपुर    50 फीसदी पद खाली    16 अप्रैल 2005
विवेकानंद तकनीकि विवि भिलाई    95 फीसदी पद खाली    16 अप्रैल 2005
बस्तर विवि जगदलपुर    85 फीसदी पद खाली    2 सित. 2008
सरगुजा विवि अंबिकापुर    85 फीसदी पद खाली    4 अक्टू. 2008
आयुष विवि रायपुर    95 फीसदी पद खाली    अक्टू. 2008
बिलासपुर विवि बिलासपुर    95 फीसदी पद खाली    12 फरवरी 2012
कामधेनु विवि दुर्ग        30 फीसदी पद खाली    11 अप्रैल 2012
खेल विश्व विद्यालय    -,,-    -,,-
खैरागढ़    पचास फीसदी पद खाली    14 अक्टू. 1956

सोमवार, 3 मार्च 2014

कोयला बना काल


जीवनदायनी हसदेव नदी राख से पट रही
कोरबा देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में
हर साल मर रहे सैकड़ों लोग, हर साल बर्बाद हो रही खेती
छत्तीसगढ़ सहित पूरे देश में बिजलीघरों ने आफत खड़ा कर दिया है। बिजलीघरों के प्रदूषण से स्थिति बेहद गंभीर होती जा रही है। इसके चलते असामयिक मौत के आंकड़े तो बढ़े ही है अस्थमा, श्वसन रोग और ह्दय रोग के मामलों में असाधारण ईजाफा हुआ है। कोयला भंडार की बदौलत खड़े किये जा रहे ताप बिजलीघरों से निकलने वाली राख से खेती तो बरबाद हो ही रही है यहां रहने वालों पर भी शामत आई है।
कोयला भंडारों के दोहन और इससे स्थापित बिजली घरों को लेकर ग्रीनपीस नामक सर्वे कंपनियों की रिपोर्ट न केवल चौंकाने वाली है बल्कि विकास के नाम पर किये जा रहे अंधानुकरण की कलई खोलने के लिए काफी है। छत्तीसगढ़ का पॉवर हब माने जाने वाले कोरबा ने बिजली उत्पादन के क्षेत्र में किस कीमत पर गौरव हासिल कर रहा है यह कम चौकाने वाला नहीं है। देश के सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में कोरबा का नाम चौथे-पांचवे नम्बर पर आ चुका है। यहां सात पॉवर प्लांट से 6 हजार मेगावाट से अधिक विद्युत उत्पादन होता है और प्रतिदिन यहां से 45 हजार मिट्रीक टन से अधिक राख उत्सर्जित होती है। राख का भंडारण राखड़ बांध में किया जा रहा है जिसकी वजह से इसके आसपास की जमीन तो बंजर हो ही रही है इसके चिमनियों से निकलने वाले धुंए की वजह से वायु प्रदूषण भी चरम पर है। यही नहीं कोरबा की जीवनदायिनी मानी जाने वाली हसदेव बागो नदी भी राख से पटने लगी है। जबकि छत्तीसगढ़ सरकार ने कोयला उत्पादन के क्षेत्र में अभी तीन दर्जन से अधिक कंपनियों से अनुबंध कर रखे हैं जिनमें उत्पादन होना बाकी है। ग्रीन पीस सहित अन्य सर्वे कंपनियों की रिपोर्ट पर नजर डालें तो ताप बिजली घरों की वजह से आम लोगों सिर्फ गंभीर बीमारियों के शिकार बस नहीं हो रहे हैं बल्कि यह तबाही मौतो के बढ़ते आंकड़े तक जा पहुंचा है। सर्वे के मुताबिक छत्तीसगढ़ के बिजली घरों के कोयले से निकलने वाली राख में अति सूक्ष्म कणों की साईज 4 से 5 माइक्रोन है जिसकी वजह से यह अधिकाधिक क्षेत्र में तेजी से फैलती है। यही नहीं कोयले की राख से पीएस-10 जैसे खतरनाक तत्वों के अलावा सल्फर डाई आक्साईड नाइट्रोजन आक्साईड और पारे की मात्रा भी अधिक रूप से घुली होती है। यही वजह है कि इसके चलते गंभीर बीमारियों के मामले तो बढ़ ही रहे है मौत के आंकड़े भी बढ़े है। सर्वे के अनुमान के मुताबिक बिजलीघरों के कोयले की राख से हर साल दस हजार से अधिक लोग असामयिक मौत मर रहे है जबकि गंभीर बीमारियों के आंकड़े इससे कहीं बहुत अधिक है। हालांकि सरकारी महकमा का दावा है कि प्रदूषण को नियंत्रित करने के समुचित उपाय किये गए हैं एक भी बिजलीघर बगैर अनापत्ति प्रमाणपत्र के नहीं चलाए जा रहे हैं और उत्सर्जन की सीमा तय है।
बहरहाल ताप बिजलीघरों के प्रदूषण से आम लोगों के लिए काल साबित होते पॉवर प्लाटों को नियंत्रित नहीं किया गया और प्रदूषण रोकने के समुचित इंतजाम नहीं किये गए तो आने वाले दिनों में यह समस्या गंभीर बन जायेगी।