मंगलवार, 23 मार्च 2010

घोटालेबाजों का जमाना,महाधिवक्ता है सुराना

आरएसएस का संस्कार या सुराना का प्रभाव...
यह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संस्कार है या भारतीय जनता पार्टी का कारनामा है यह तो आम जनता तय करेगी लेकिन प्रदेश के महाधिवक्ता के पद पर जिस देवराज सुराना को बिठाया गया है उनके ही नहीं उनके परिवार जनों के खिलाफ लगभग दर्जनभर से अधिक मामले हैं। मंदिर की जमीन से लेकर आदिवासियों की जमीन हथियाने के अलावा अपने जनसंघी प्रभाव का उपयोग कर काम करवाने वाले व्यक्ति को सरकार कैसे महाधिवक्ता बना दी यह तो वही जाने लेकिन ऐसे व्यक्ति के महाधिवक्ता बनने से क्या कुछ हो रहा होगा सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है।
वैसे तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की छाया में रहे देवराज सुराना राजधानीवासियों के लिए अपरिचित नाम नहीं है। राजधानी वासियों के बीच उनकी पहचान जनसंघी के अलावा एक वकील की भी है लेकिन अब हम अपने पाठकों को बताना चाहते हैं कि जनसंघ के सेवाभाव के पीछे देवराज सुराना और उनके परिजनों का कारनामा कितना भयावह है कि ऐसे व्यक्ति को महाधिवक्ता जैसे जिम्मेदार पद पर बिठाना कितना घातक हो सकता है। देवराज सुराना और उनके पुत्रद्वय आनंद सुराना, सुरेन्द्र सुराना, पुत्रवधु श्रीमती चेतना सुराना, दामाद विजयचंद सुराना यानी परिवार के अमूमन सभी लोगों पर मंदिर की जमीन, आदिवासियों की जमीन सहित अन्य आपराधिक प्रकरण दर्ज हैं।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि देवराज सुराना को महाधिवक्ता बनाने सरकार ने इस घपलेबाजी को नजरअंदाज तो किया ही है संवैधानिक नियमों की भी अनदेखी की गई है। संविधान के अनुच्छेद 165(1) के अनुसार प्रत्येक राय का रायपाल उसी व्यक्ति को महाधिवक्ता बनाता है जो उच्च न्यायालय का न्यायाधीश नियुक्त होने के लिए अर्हित होता है। ऐसे में 82 साल के व्यक्ति को महाधिवक्ता बनाना स्पष्ट करता है कि किस तरह से आरएसएस या भाजपा के प्रभाव में देवराज सुराना को महाधिवक्ता बनाया गया है। जबकि नियमानुसार 62 साल से अधिक उम्र का व्यक्ति उच्च न्यायालय का न्यायाधीश होने का पात्र नहीं है।
देवराज सुराना को महाधिवक्ता बनाने में आरएसएस या भाजपा की भूमिका की चर्चा बाद में की जाएगी। यहां हम उनके व उनके परिजनों के कृत्यों पर प्रकाश डालेंगे तथा हम अपने पाठकों को यह भी बताएंगे कि किस तरह से देवराज सुराना के परिवार की नानेश बिल्डर्स से अपने प्रभाव का इस्तेमाल किया और कैसे कलेक्टर से लेकर प्रशासनिक अधिकारियों ने उनके प्रभाव में अनैतिक कार्य किया। दरअसल देवराज सुराना और उनके परिवार तब विवाद में आए जब इनकी कंपनी नानेश बिल्डर्स से प्राईवेट लिमिटेड ने गोपियापारा स्थित श्री हनुमान मंदिर की भाठागांव स्थित बेशकिमती जमीन को खरीदा। कहा जाता है कि इस जमीन की फर्जी तरीके से दो रजिस्ट्री कराई गई। इसमें भारतभूषण नामक फर्जी सर्वराकार से दस्तखत कराए गए। इस फर्जी रजिस्ट्री की जानकारी होने पर जब हिन्दू महासभा ने आपत्ति की तो जोगी शासन काल में सन् 2001 में इस पर रोक लगा दी गई। इसके बाद जैसे ही भाजपा की सरकार सत्ता में आई देवराज सुराना पर अपने प्रभाव में इस विक्रय पत्रों को 17-3-04 को पंजीयन करा लिया। इस भूमि को क्रय करने के लिए देवराज सुराना के खाते से दो लाख देवराज सिंह सुराना एचयूएफ के खाते से दो लाख 51 हजार से निकालकर 8 मार्च 2001 को नानेश बिल्डर्स के खाते में जमा किए गए।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि 2001 में तत्कालीन कलेक्टर ने हिन्दू महासभा की शिकायत पर की गई जांच रपट में यह लिखा है कि यह भूमि श्री हनुमान मंदिर प्रबंधक कलेक्टर रायपुर के नाम दर्ज होने के कारण विक्रय योग्य नहीं है। जांच प्रतिवेदन में मुख्यालय उपपंजीयक एवं तत्कालीन तहसीलदार रायपुर के विरुध्द कार्यवाही किया जाना बताया गया है एवं जिला पंजीयक रायपुर को लिखा है कि भविष्य में अग्रिम आदेश तक कोई रजिस्ट्री ना किया जाए।
बताया जाता है कि 2004 में अपने प्रभाव पर इस जमीन की रजिस्ट्री कराने के बाद जब विवाद बढ़ता दिखा तो नानेश बिल्डर्स ने यह जमीन रवि वासवानी और सुशील अग्रवाल रामसागरपारा को बेच दी। इस पर जब हिन्दू महासभा ने पुन: आपत्ति की तो तहसीलदार ने नामांतरण रोक दिया है और जब मामला उलझता दिखा तो विक्रय की गई जमीन का नानेश बिल्डर्स ने आश्चर्यजनक रुप से अपने नाम पर डायवर्सन करा लिया। यानी जमीन बेचने के बाद किस तरह से डायवर्सन की कार्रवाई की गई होगी समझा जा सकता है। जबकि अब भी भू-अभिलेखों में सुशील अग्रवाल एवं रवि वासवानी वगैरह का नाम भूमि स्वामी के रुप में दर्ज है। इतना सब कुछ होने के बाद भी इन्हें महाधिवक्ता कैसे बनाया गया यह समझा जा सकता है।

उद्योगपतियों की सरकार

छत्तीसगढ सरकार क्या आम लोगों की सरकार है? यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि छत्तीसगढ में कुछ भी ठीक नहीं चल रहा है। सब तरफ राम नाम की लूट मची है। सरकार में बैठे मंत्री से लेकर अधिकारी मनमानी पर उतारू है यहां तक कि विधानसभा में भी प्रश्नों के जवाब ठीक से नहीं दिए जा रहे हैं और सारा खेल एक सोची समझी रणनीति के तहत चल रहा है ताकि उद्योगपतियों को अधिकधिक लाभ मिले।
सरकार की स्थिति तो गृहमंत्री ननकीराम कंवर के अलग-अलग समय पर दिए दो बयानों से लगाया जा सकता है पहला बयान गृहमंत्री ने मुख्यमंत्री के गृह जिले में जाकर पुलिस कप्तान को निकम्मा और कलेक्टर को दलाल कहा। यह किस परिप्रेक्ष्य में कहा गया यह बताने की जरूरत नहीं है लेकिन विधानसभा में उनका यह कहना कि पुलिस वाले दस हजार रुपया महिना लेकर शराब वालों के लिए काम करते हैं यह सरकार के लिए डूब मरने वाली बात है। इतना ही नहीं है पूरा मामला। दरअसल राज्य बनने के बाद यहां की प्रचुर धन संपदा को लुटने में सरकार ने जिस तरह से उद्योगपतियों को सहयोग किया है वैसा आजादी के बाद किसी भी प्रदेश में नहीं हुआ होगा। जिंदल से लेकर बालको और अल्ट्राटेक से लेकर दूसरे उद्योगपतियों की मनमानी से आए दिन अखबार रंगे पड़े हैं। यहां तक कि बालको में हुई चिमनी कांड भी ऐसी जमीन पर हुई जो बालको ने कब्जा कर रखी है। शायद यहीं वजह है कि अजीत प्रमोद कुमार जोगी यह सवाल उठाते रहे हैं कि आखिर सरकार अनिल अग्रवाल से डरती क्यों हैं।
दो चार सौ फुट जमीन पर कब्जा कर अपना आशियाना बनाने वालो पर बुलडोजर चलाने वाली सरकार उद्योगों द्वारा अवैध कब्जे की गई हजारों एकड़ जमीन को लेकर क्यों खामोश है। क्या इसके एवज में मुख्यमंत्री से लेकर अन्य मंत्री व सरकारी अधिकारी को लाखों रुपए दिए गए हैं। यह एक ऐसा सवाल है जिसका जवाब सरकार को देना ही होगा कि वह उद्योगपतियों की मनमानी पर क्या इसलिए चुप है क्योंकि वहां से उन्हें पैसे मिल रहे हैं? आम लोगों के हितों की रक्षा के लिए बैठी सरकार को क्या यह नहीं पता है कि उद्योगपतियों की मनमानी से आम आदमी प्रदूषण की वजह से बीमार हो रहा है और उनके गुण्डे आम लोगों को पीट रहे हैं।
क्या सरकार को खबर है कि उसके दर्जनभर से अधिक आईएएस अधिकारियों ने मौली श्री विहार में अपने बंगलों को इन्हीं उद्योगपतियों को लाखों रुपए किराए पर दे रखा है। एक साधारण आदमी भी समझ सकता है कि कोई किसी के 15-20 हजार किराये वाली जगह को एक लाख रुपए किराये में क्यों ले रहा है फिर यह बात सरकार के समझ में क्यों नहीं आ रहा है। क्या ऐसा नहीं है कि इन उद्योगपतियों ने प्रदेश के इन आईएएस अधिकारियों को ओब्लाईज् कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं। उद्योगों को जिस पैमाने पर जमीन दी जा रही है और उन्हें जमीन कब्जा करने की छूट दी जा रही है क्या यह किसी अंधेरगर्दी से कम है। गरीबों के नाम पर दिए जाने वाले चावल क्या राईस मिलरों व धन्ना सेठों के गोदाम में नहीं जा रहा है। चौतरफा भ्रष्टाचार ने छत्तीसगढ क़ी वित्तीय स्थिति को डगमगा दिया है और सरकार ने इस पर अंकुश नहीं लगाया तो इसके दुखद परिणाम आना तय है।

क्या पैसा खिलाकर जाति प्रमाण पत्र बनाया गया है...



छत्तीसगढ में सत्ता के बल पर अधिकारियों से अनैतिक कार्य कराया जा रहा है। वामन राव लाखे वार्ड के पार्षद विजेता मन्नु यादव को पिछड़ी जाति का प्रमाण पत्र दिलाने में तो ऐसी ही भूमिका नजर आ रही है और ऐसा नहीं है तो अधिकारी पैसा खाकर किसी को भी जाति प्रमाण पत्र दे रहे हैं।
प्राप्त जानकारी के अनुसार भारतीय दूरसंचार विभाग में सामान्य वर्ग से टेलीफोन मैकेनीक के पद पर कार्य कर रहे दयालदास मोहरे की पुत्री विजेता यादव को पार्षद चुनाव लड़ने तीन दिन में पिछड़ी जाति का प्रमाण पत्र जारी कर दिया गया। चूंकि विजेता ने प्रेम विवाह मन्नु यादव से किया है और उसे भाजपा ने टिकिट दी थी। इसलिए सारा खेल आनन-फानन में हुआ।
इस मामले का सबसे रोचक पहलू तो यह है कि विजेता के भाई सुनील को जाति प्रमाण पत्र के लिए दिया आवेदन यह कहकर खारिज किया गया कि मोहारे जाति को छत्तीसगढ़ में पिछड़ी जाति का कोई अधिकार नहीं दिया गया है। यह बात सुप्रीमकोर्ट ने भी तय कर दिया है कि प्रेम विवाह के बाद भी युवती की जाति नहीं बदलेगी। इस नियम के बाद भी यहां विजेता यादव को किस बिना पर पिछड़े वर्ग का जाति प्रमाण पत्र जारी किया गया यह आसानी से समझा जा सकता है। बहरहाल इस मामले में कांग्रेस के पराजित प्रत्याशी ने याचिका दायर भी कर दी है और देखना है कि सत्ता के गलियारे में इसकी क्या प्रतिक्रिया होती है।