रविवार, 20 दिसंबर 2020

मौत से बड़ी होती है भूख

हजार बार सोचना पड़ेगा

अपनी खेती के बदले

तुम्हारा प्रस्ताव!

तुम्हारे हर प्रस्ताव को

कई कई बार गौर किया

और समझने की कोशिश की

तुम्हारे समझाने के तरीके

पर भी गौर किया।

आंदोलन के सिवाय और

क्या बचा है हमारे पास,

आपदा से घिरे लोग

कब मृत्यु से डरते हैं?

क्योंकि मौत से बड़ी

होती है भूख

तब वास्तविकता का

अनुभव अलग होता है

जो वास्तविक है।

दर असल तुम मेरी जगह

हो ही नहीं,

मेरी जगह होते तो

देखते, कैसे बिक जाते

है मेरी उपज

समर्थन मूल्य के बिना।

तुम्हे बेचना पड़ता

समर्थन मूल्य से कम कीमत

पर अपनी उपज

तब तुम देखते

पढ़ाई छूटते बच्चे,

मिट्टी में सने

हाथ-पांव ही नहीं मिल

कोस भर दूर से

दो पैसे बचाने के लिए

जाते बाजार घिसाते पांव।

तुम्हारे प्रस्ताव पर

मैं कैसे समझ

सकता हूं।

ये दर्द है किसानों का। लेकिन सरकार को यह दर्द कभी नहीं दिखने वाला है और न ही वह समझने तैयार है। ये सच है कि जब कोरोना की विपदा आई तब सिर्फ धान ही सहारा था,. लोगों ने जब लॉकडाउन में सब कुछ बंद कर रखा था, यहां तक कि धार्मि स्थल भी बंद हो चुके थे तब इन्हीं किसानों की बदौलत सब कुछ चल रहा था।

किसानों के आंदोलन को लेकर जो लोग सरकार की तरफदारी कर रहे हैं उन्हें सोचना होगा कि आखिर सरकार समर्थन मूल्य पर कानून क्यों नहीं बनाती। सिर्फ एक कानून से किसानों की हालत सुधर सकती है।

जिन तीन कानूनों का विरोध हो रहा है वह कानून वास्तविकता की धरातल से परे है। पूंजीवाद का वास्तविक चेहरा है और इसमें न किसानों का भला होने वाला है और न ही देश का ही भला होगा। हां, इस कानून को वापस लेने से सत्ता की रईसी पर फर्क पड़ेगा। इसकी रईसी को बरकरार रखने के लिए आवश्यक पूंजी जुटाने में तकलीफें आयेंगी लेकिन किसानों का भला, कतई नहीं होने वाला है।