मंगलवार, 29 दिसंबर 2020

तब लोकतंत्र का पाठ और ज़रूरी हो जाता है

तब लोकतंत्र का पाठ           और जरूरी हो जाता है...

किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह का बवाल खड़ा हुआ है उसके बाद सत्ता के अडिय़ल रुख को लेकर कई तरह के सवाल खड़ा होने लगा है, सत्ता और उनसे जुड़े लोगों ने आंदोलन को बदनाम करने की जो रणनीति अपनाई वह पूरी तरह असफल हो गई और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि किसान और भड़क गये। अडानी-अंबानी के बहिष्कार के साथ ही अब जिस तरह से आंदोलन का रुख जा रहा है वह देश के लिए चिंता का सबब बनता जा रहा है।

निजीकरण के प्रति सरकार की बढ़ती रूचि की एकमात्र वजह सत्ता की रईसी को बरकरार रखने के अलावा कुछ नहीं है। ऐसे में सवाल यह नहीं है कि किसान आंदोलन का परिणाम क्या होगा? बल्कि सवाल यह है कि यदि कृषि जैसे क्षेत्रों में भी इस तरह के कानून आ जाए तो किसानों का भला कैसे हो पायेगा? जबकि आज भी किसानो को अपनी उपज समर्थन मूल्य से कम में बेचना पड़ रहा है। जबकि इन्हीं अन्नदाताओं के भरोसे देश मजबूत हुआ है।

भले ही सत्ता और उनसे जुड़े लोग यह तथ्य न माने कि किसानों की वजह से ही भारत की समृति और आत्मनिर्भरता कायम है लेकिन सच यही है। किसानों ने हमेशा ही इस देश को आत्मनिर्भर बनाने में खूब मेहनत की है।

याद कीजिए वह दौर जब कम उपज की वजह से अमेरिका ने अनाज देने के नाम पर दादागिरी की थी तब इन्हीं किसानों के हरित क्रांति कर देश को अनाज के उत्पादन में न केवल आत्मनिर्भर किया बल्कि निर्यात के माध्यम से विदेशी मुद्रा भी दिलाई। श्वेत क्रांति से लेकर सहकारिता में किसानों की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। जब भी देश में संकट आया है, इन्हीं किसानों ने सबसे अग्रणी भूमिका निभाई है।

लेकिन हैरान करने वाली बात तो यह है कि सरकार कभी सोच ही नहीं सकती कि किसानों के हालात क्यों खराब है जबकि कृषि से जुड़े उद्योग हो या बीमा कंपनियां रातो रात अमीर हो जाते हैं, खाद बीज दवा बेचने वाली कंपनी अरबों कमा लेती है।

सच तो यही है कि जब तक किसानों की उपज का एक-एक दावा समर्थन मूल्य पर नहीं बिकेगा तब तक किसानों की आर्थिक स्थिति सुधर ही नहीं सकती।

ऐसे में प्रधानमंत्री जब लोकतंत्र की पाठ की बात करते है तो उन्हें अपनी पार्टी और अपने सांसद और विधायकों की तरफ झाकनी चाहिए कि कितने बड़े-बड़े अपराधी जमा हो गये हैं। उन्हें खुद की सुरक्षा में होने वाले खर्च की तरफ देखनी चाहिए जो रोज एक करोड़ रुपये खर्च किये जा रहे हैं।

खुद की सुरक्षा में हर रोज करोड़ों रुपये खर्च करने वाला यदि किसानों को रोज का 17 रुपये देने के बाद उसे सम्मान कहे तो लोकतंत्र का सबक याद करने की किसे जरूरत है। अपराधियों के भरोसे जब सत्ता चलती है, पार्टियां चलती है तो लोकतंत्र का सबक तो याद दिलाना ही पड़ेगा।

संवैधानिक संस्थाओं पर जब सत्ता की नकेल कसते चली जाएगी तो लोकतंत्र क्या सिर्फ नाम का नहीं रह जायेगा। तब भला लोकतंत्र का पाठ को लेकर तंज कसकर तालियां भी बटोरी जायेगी और पूंजीपतियों की गोद में बैठकर चुनाव भी जीते जायेंगे।

ऐसे में लोकतंत्र के लिए शबीना अदिम का यह शेर जरूरी सबक है...

यही बात खुद समझना,

यही बात आम करना।

जो गुरूर में हो डूबा,

उसे मत सलाम करना।