मंगलवार, 9 फ़रवरी 2021

मन की बात...


क्या हम सचमुच उस दौर में जी रहे हैं जहां नेता को कोई काम करना आता हो या न आता हो बोलना आना चाहिए और जो अपनी बातों से मोह ले वही राज करेगा? यह सवाल इसलिए उठाये जा रहे हैं क्योंकि संसद में किसान आंदोलन को लेकर जिस तरह की बातें हुई उसके बाद तो इस बात का कोई मतलब ही नहीं रह जाता कि किसान आखिर आंदोलन क्यों कर रहे हैं और न ही इस बात का मतलब ही रह गया है कि राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद से इतर भी इस देश के लोगों की अपनी जरूरतें हैं।

पूरी दुनिया का आप आकलन कर ले ऐसा आंदोलन कहीं नहीं मिलेगा जहां दो दर्जन से अधिक आंदोलनकारी किसानों ने खुदकुशी की हो और आंदोलन के दौरान करीब दो सौ किसानों की जान चली गई हो लेकिन जब सत्ता यह कहे कि इस आंदोलन का कोई मतलब नहीं है और प्रधानमंत्री जब कहते हैं कि किसान सिर्फ आंदोलन करने के लिए आंदोलन कर रहे हैं तो इसका क्या मतलब है?

क्या इस बात को नजरअंदाज कर देनी चाहिए कि सभी राज्यों में किसानों की उपज की खरीदी किस तरह से न्यूनतम दर पर हो रही है। या हम प्रधानमंत्री की बात को मान ले कि एमएसपी बंद नहींं होगी?

ऐसे में क्या इस बात का आकलन नहीं होना चाहिए कि क्या किसानों की उपज की कितनी फसल एमएसपी पर खरीदी जा रही है और कितने व्यापारी एमएसपी पर खरीदी कर रहे हैं लेकिन जब पूरे देश को राष्ट्रवाद और हिन्दूवाद की लाठी से हांका जा सकता है तब इस बात से सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता कि गैस बिजली पेट्रोल की कीमत कितनी बढ़ रही है और न ही इस बात का ही फर्क पड़ता है कि राशन की कीमत कितनी बढ़ रही है!

ऐसे में फिर सवाल यह उठता है कि क्या जो महंगाई या अपनी दूसरी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहे हैं उनके लिए नया रास्ता क्या है क्योंकि किसानों की बढ़ती मौत के आंकड़े भी जब सत्ता को न डिगा सके तो दूसरा उपाय क्या होना चाहिए?

सबसे बड़ी दिक्कत तो यह है कि किसानों के आंदोलन को लेकर विपक्षी दलों की भूमिका भी स्पष्ट नहीं है और कार्पोरेट जगत से मिलने वाले चंदा की लालच में वे उन बातों का न ठीक से विरोध कर पा रहे हैं और न ही किसानों का ठीक से समर्थन करते हुए साथ खड़े हैं।

ऐसे में 26 जनवरी के बाद अब तक हुए पंचायतों की भीड़ को देखना होगा कि वे आंदोलन के माध्यम से राजनीति की दिशा को कैसे बदलेंगे!