शुक्रवार, 26 फ़रवरी 2010

भ्रष्टाचार को लोकाचार कह कर सभी विभागों में रेट चार्ट रख दे

छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद दूसरी बार नगरीय निकायों के चुनाव हुए। इस चुनाव में कांग्रेस और भाजपा ने बेशर्मी से पैसे बहाये। जनप्रतिनिधि बनने के लिए टिकिट से लेकर चुनाव जीतने की होड़ में कांग्रेसी और भाजपाईयों ने लोकाचार की सारी सीमाएं लांघ डाली। टिकिट के लिए तो गाली गलौज मारपीट हुई ही बड़े नेताओं को अपमानित तक होना पड़ा। जनसेवा के लिए पार्टी कार्यकर्ताओं में इतना जोश था कि वे मरने-मारने पर उतारू हो गए। यह सब अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है।
टिकिट के बाद तो चुनाव जीतने कई प्रत्याशियों ने लाखों खर्च कर डाले राजधानी में ही मतदाताओं को खुलेआम प्रलोभन दिया गया। ऐसा कोई वार्ड नहीं था जहां शराब की नदियां नहीं बहाई गई हो। कार्यकर्ता चुनाव कार्यालय में जुआं खेलते शराब पीते रहे और आम आदमी सब कुछ देखते सुनते खामोशी ओढ़े रखा।
कांग्रेस और भाजपा जैसी प्रमुख पार्टियां जब चुनाव जीतने इस तरह के हथकंडे अपना रही हो तब भला चुनाव जीतने के बाद वह कैसे भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन और जनसेवा का काम करेगी यह समझा जा सकता है। जबकि जो लोग लाखों खर्च कर चुनाव जीतने की स्थिति में हैं वे लोग अभी से खर्च किए गए रकम की वसूली का रुपरेखा तैयार करने लग गए है।
कोई माने या न माने अब तो राजनीति पूरी तरह से व्यवसाय बन चुकी है और चुनाव लड़ने वाले इसे व्यवसायिक इन्वेस्टमेंट के तहत रकम खर्च करता है और चुनाव जीतने के बाद इसकी वसूली में लग जाता है। और जो पार्टियां भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन की बात करता है वह अंधेरगर्दी के सिवाय कुछ नहीं है।
अब तो राजनैतिक पार्टियां खासकर कांग्रेस और भाजपा को भ्रष्टाचार के बारे में बात ही नहीं करनी चाहिए बल्कि छत्तीसगढ़ में बैठी भाजपा सरकार को चाहिए कि वह भ्रष्टाचार को लोकाचार कह कर सभी विभागों में रेट चार्ट रख दे। इसकी शुरुआत वह चाहे तो नगरीय निकायों से शुरु कर सकती है। वह एक रेट चार्ट बना दे कि नक्शा पास कराने के लिए 15 दिन में एक राशि तय कर दे। जन्म प्रमाण पत्र के लिए इतनी राशि, मृत्यु प्रमाण पत्र के लिए इतनी राशि, ले आऊट के लिए इतनी राशि, सफाई के लिए, नल कनेक्शन के लिए और इसी तरह से अन्य कार्यों के लिए एक निश्चित राशि तय कर दे ताकि यहां काम के लिए आने वाला आदमी निर्धारित फीस के अलावा लोकाचार के लिए राशि दे और कम से कम काम हो जाए। इसके कई फायदे हैं फाईल जल्दी निपटेगा क्योंकि अफसरों को भी मालूम रहेगा कि जितनी फाईल निपटेगा उतनी राशि उसे शाम को अपनी जेब में लेकर जाना है।
इस तरह की बातें कहने का मतलब कतई यह नहीं है कि मैं भ्रष्टाचार का समर्थन कर रहा हूं लेकिन कांग्रेस और भाजपा में नगरीय निकाय के चुनाव को लेकर जनसेवा के लिए जिस तरह की होड़ मची है और लाखों रुपए चुनाव में खर्च किए गए उससे तो कम से कम भ्रष्टाचार को लेकर इनसे कोई उम्मीद करना बेमानी होगी।
यह बात मैं इसलिए भी कह रहा हूं क्योंकि भ्रष्टाचार आज लोकाचार हो गया है और लेने वाले व देने वालों में संकोच नहीं होगा तो समय भी बचेगा।
आज छत्तीसगढ में भ्रष्टाचार अपनी गहरी जड़े जमा चुका है। प्रशासनिक अधिकारियों से लेकर मंत्रियों के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं और सरकार इन आरोपों को राजनीति कहकर खारिज कर रही है यह अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है।

कृषि जमीनों की बरबादी पर आमादा सरकार

एक तरफ देश मंहगाई की चपेट में हैं। उत्पादन कम होने की वजह से आम आदमी को महंगाई की त्रासदी झेलनी पड़ रही है। जोत का रकबा बढ़ाने नए-नए तरीके निकाले जा रहे हैं और दूसरी ओर छत्तीसगढ़ सरकार विकास के नाम पर कृषि जमीन को बरबाद कर रही है। कृषि जमीनों को कौड़ी के मोल अधिग्रहित करना अंधेरगर्दी नहीं है तो और क्या है।
बस्तर में उद्योग लगाने पर आमदा सरकार वहां के किसानों-आदिवासियों के साथ जो सलूक कर रही है वह अंधेरगर्दी नहीं है तो और क्या है। हम उद्योग के विरोधी नहीं है लेकिन जिस तरह से कृषि जमीनों पर उद्योग लगाई जा रही है और किसानों से जबरिया जमीनें ली जा रही है वह गलत है। नगरनार इस्पात संयंत्र को लेकर पूरे प्रशासनिक अमले को झोंक दिया गया है। किसानों को डरा धमका कर जमीने ली जा रही है।
यही हाल नई राजधानी के निर्माण को लेकर है। जहां की जमीनों का बाजार भाव 25-30 लाख रुपया एकड़ है वहां सरकार सिर्फ 5-7 लाख रुपया मुआवजा दे रही है। जो किसान अपनी जमीनें नहीं बेचना चाह रहे हैं उनसे जबरदस्ती की जा रही है। आखिर सरकार राजधानी किसके लिए बना रही है। सरकारी कर्मचारियों और नेताओं को अधिकाधिक सुविधा उपलब्ध कराने कृषि जमीनों की बरबादी से आम लोगों को क्या हासिल होने वाला है।
अब तो सरकार ने अंधेरगर्दी की सारी हदें पार करना शुरू कर कमल विहार योजना ला रही है। इस योजना से हजारों एकड़ कृषि जमीन बरबाद हो जायेगी और फिर उत्पादन घटने का दुष्पपरिणाम पूरा देश भुगतेगा। लगता है सरकार को महंगाई से कोई लेना देना नहीं है नहीं तो वह विकास के लिए कृषि भूमि को बरबाद करने की बजाए कोई और तरीका ढूंढती।
एक जमाना था जब छत्तीसगढ़ को धान के कटोरे के रुप में विश्व प्रसिध्दि मिला था लेकिन औद्योगिक विकास को लेकर सरकार की अंधेरगर्दी ने कृषि का रकबा समेट दिया है और आगे भी वह कृषि भूमि को बरबाद करने पर तुली है। उरला, सिलतरा, मंदिरहसौद क्षेत्र में उद्योगों में तो कृषि जमीन गई और अब इसके प्रदूषण से खेती की जमीनें बंजर हो रही है।
हिरमी-रवान, बलौदाबाजार क्षेत्र में सीमेंट उद्योगों के प्रदूषण से कृषि जमीने बरबाद हो रही है और लगातार उत्पादन कम हो रहा है। जिसके चलते चावल का मूल्य आसमान छूने लगा है। सब्जियों के दाम तो आम आदमी के पहुंच के बाहर है और इसके बाद भी सरकार नगरनार, नई राजधानी या कमल विहार जैसी योजनाओं को पूरा करने सरकारी दमन का रास्ता अख्तियार कर रही है तो यह अंधेरगर्दी के सिवाय कुछ नहीं है।
छत्तीसगढ़ राज्य को कई लोग अभिशप्त कहने लगे हैं तो इसकी वजह सरकार का आम आदमी के प्रति रवैया है। सरकारी जमीनों, खदानों और वन संपदाओं को कौड़ी के मोल बेचने में आमदा सरकार की नजर अब कृषि भूमि पर है। इसके दो फायदे मिलते हैं पहला उद्योगों को कौड़ी के मोल जमीन दिलाने कमीशन ले लो और फिर निर्माण में अपनी ठेकेदारी कर लो। दो-दो तरफ से मिल रहे इस कमीशन की वजह से ही सरकार निर्माण को ही विकास का नारा देते नहीं थकती।
अब तो सरकार ने सरकारी जमीनों का बंदरबाट करना शुरु कर दिया है। आश्चर्य का विषय तो यह है कि सरकार ऐसे लोगों को सरकारी जमीन कौड़ी के मोल दे रही है जो पहले से ही करोड़पति और अरबपति है। ये लोग जहां चाहे जमीन खरीद सकते हैं इनके पास पैसों की कमी नहीं है। लेकिन मोटे कमीशन पर इन्हें जमीन दी जा रही है और आम आदमी के लिए अपना आशियाना बनाना कठिन हो रहा है। यह सरकारी अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है।इधर छत्तीसगढ़ के किसान आंदोलित हैं। भाजपा ने चुनाव जीतने के लिए किसानों को 270 रुपए बोनस और मुफ्त में बिजली देने की बात कही थी लेकिन साल भर बाद भी सरकार अपने वादे को नहीं पूरा कर रही है। चुनाव जीतने झूठा घोषणा करना अंधेरगर्दी नहीं तो और क्या है। पहले ही अकाल और सरकारी दमन से अपनी उपज गंवा चुके किसान आंदोलन नहीं तो और क्या करें। ऐसे में कहीं हिंसक घटनाएं हो जाए तो इसकी जवाबदारी किसी होगी। लेकिन हाल के सालों में सरकार लोगों का ध्यान तभी रखती है जब वे हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। इस प्रशासनिक रवैये को बदलना होगा अन्यथा सरकार की मुसीबतें बढ़ेगी।