शुक्रवार, 16 अप्रैल 2021

संवेदना, दायित्व, अधिकार...

 

इस देश ने कई बवंडर देखें है, यह कोरोना का बवंडर भी थम जायेगा? लेकिन सत्ता की जनमानस के प्रति उपेक्षा याद रहेगी! याद तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ताली-थाली, दीप प्रज्जवलन और टीका उत्सव भी याद रहेगा। आपदा को अवसर में बदलने की सीख तो कई व्यापारी अभी से ही याद कर रहे हैं। ऐसे समय में संवेदना शून्य सरकार और उसके दायित्व को लेकर सवाल खड़ा करना कितना उचित है?

हैरानी तो इस बा की है कि जो लोग कल तक सत्ता की रईसी के लिए लगातार बेचे जा रहे सार्वजनिक उपक्रम और सरकारी संस्थानों के निजीकरण को लेकर सत्ता के साथ खड़े थे वे भी निजी अस्पतालों की कमाई को लूट रहे हैं। हालांकि यह मौका निजीकरण के विरोध का नहीं है लेकिन जो लोग निजीकरण के समर्थक हैं उनके लिए निजी अस्पताल और निजी स्कूल की इस दौर में भी कमाई चेतावनी है।

दरअसल आज भी लोगों को अपने अधिकार का पता ही नहीं है, लोकतंत्र में सरकारें क्यों बनाई जाती है यह वे जानते ही नहीं है, क्योंकि पिछले कई दशकों से उनके दिमाग में यही भरा गया कि सरकार मंदिर नहीं बनवा रही है, अल्पसंख्यकों को ज्यादा तवज्जों दे रही है, आरक्षण के नाम पर सवर्ण समाज का हक और प्रतिभा का गला घोंटा जा रहा है।

जबकि लोकतंत्र में सरकार इसलिए बनाई जाती है ताकि वह आम लोगों के मूलभूत सुविधाओं का ध्यान रखें, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधा अधिकाधिक लोगों को मिले। आपदा के समय किसी को कोई तकलीफ न हो, चोरी, लूट और अन्य अपराध से लोग सुरक्षित जीवन जी सके। टैक्स का बोझ न हो अऔर हर आदमी सुख पूर्वक जीवन जीये, सबको काम मिले।

लेकिन ऐसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि न सरकारों ने जनता को उनका अधिकार समझाया और न ही सत्ता ने अपने दायित्व को ही पूरा किया। जो समझदार थे, नामी-गिरामी थे, पैसे वाले थे उनके गले में पट्टा डाल दिया गया ताकि वे किसी एक दल के होकर रह जाए और अपने दल की राक्षसी प्रवृत्ति पर भी खामोश रहे। लोकतंत्र में सत्ता महत्वपूर्ण नहीं होता और न ही धर्म जाति महत्वपूर्ण होता है लेकिन सत्ता में बैठने का  लोभ ने इसे हवा दी। और इस हवा के साथ लोग बहते चले गए? उन्हें लगा कि उनका दायित्व सिर्फ अपनी धर्म और जाति की श्रेष्ठता ही है।

ही वजह है कि गांधी और अम्बेडकर की तारीफ करने पर कुछ लोगों के पेट में दर्द होने लगा? उन्हें बताया गया कि हमारा ध्वज का रंग कुछ और है, संविधान गलत है। धर्म नहीं रहेगा तो देश का क्या मतलब!

लेकिन इतिहास गवाह है जिस देश ने भी धर्म अधिक महत्व दिया वह देश न तो ठीक से तरक्की कर पाया और न ही वहां लोकतंत्र ही बच सका। बात कोरोना के बवंडर से शुरु हुई थी इसलिए इस पर ही बात होनी चाहिए। लेकिन इस देवभूमि में जिस तरह लाशें गिर रही है उसे लेकर अब गुस्सा ही है, लगता है सरकार अब भी अपनी जिम्मेदारी से भाग रही है। वह अब भी आपदा में अवसर तलाश रही है क्योंकि चुनाव में हजारों की भीड़ और कुंभ में लाखों की भीड़ में वह अपना निजी फायदा देख रही है। तब सवाल यही है कि कौन अपने अधिकार बोध को जागृत करे। और संवेदना शून्य सरकार पर प्रहार करे।