बुधवार, 4 अगस्त 2010

बोया पेड़ बबूल का तो आम ...

इस देश को आजादी 15 अगस्त 1947 को मिला लेकिन आम लोगों को आजादी का सुख आज तक नहीं मिला। फिर स्वतंत्रता दिवस आ रहा है। स्कूलों में झंडे फहराये जायेंगे और हमारे देश के नेता वहीं भाषण पढ़ेंगे जो अफसरों द्वारा लिख कर दी जायेगी और फिर सब लोग आजादी के मायने भूल जायेंगे।
सिर्फ अंग्रेजों की गुलामी से निजात को असली आजादी मान लेने की भयंकर भूल आज गांव-गांव में दिख रहा है। क्या सरकार के पास ऐसे आंकड़े है जिससे पता चले कि कितने गांवों में शिक्षा, चिकित्सा सुविधा और पीने के लिए स्वच्छ जल वहां उपलब्ध करा पाई है। शायद नहीं। इसलिए वह इस मामले में सरकारी भाषा का उपयोग कर प्रतिशत में सब कुछ बताती है। लेकिन कितने गांवों में सड़क और बिजली नहीं पहुंची है ये आंकड़े उसके पास है।
दरअसल विकास के मायने बदल गये हैं। विकास को सड़क और बिजली से तौला गया और लोग शिक्षा, चिकित्सा सुविधा और पानी से वंचित होते चले गये। जबकि भारत की भौगौलिक संरचना चीख-चीख कर कह रही है कि पानी के बगैर गांव और उसके लोग मर जायेंगे। शिक्षा और चिकित्सा सुविधा के अभाव में पीड़ियां बरबाद हो जायेगी लेकिन इसकी चिंता न तो वेतन भोगी नेताओं को है और न ही अधिकारियों को ही है के तो सड़के बनाना चाहते हैं ताकि उनका विकास हो वे बिजली लगवाना चाहते है ताकि कूलर-एसी की सुविधा उन्हें मिलती रहे।
आजादी के 60 सालों में निर्माण के नाम पर अरबों-खरबों का भ्रष्टाचार हुआ और यदि कोई पकडाया भी तो उसे बचाने की कोशिश हुई। विधानसभा से लेकर लोकसभा में प्रश्न करने और नहीं करने के नाम पर पैसे खाये गए। कार्रवाई भी हुई पर क्या प्रदीप गांधी से लेकर कुशवाहा तक के पेंशन बंद हुए। नहीं। क्यों? क्योंकि वेतन लेते-लेते आदमखोर बन चुके जमात ने ऐसी व्यवस्था बना रखी है कि इससे उनका अहित न हो आम जनता मरती है तो मर जाए।
सब को याद होगा जब छत्तीसगढ़ को अलग राय बनाने की बात हुई तो अजीत प्रमोद कुमार जोगी ने कहा था कि अमीर धरती के गरीब लोगों के हितों के लिए पेड़ के नीचे विधानसभा लगा लेंगे लेकिन हुआ क्या? कुछ ही दिन में राजधानी निर्माण की योजना चल पड़ी। भाजपाई भी चिखते रहे नई राजधानी की जरूरत नहीं है। पैसे की बरबादी है। पर जैसे ही सत्ता भाजपा के हाथ लगी उसने भी राजधानी बनाने का काम शुरू कर दिया? क्या कोई बता पायेगा कि नई राजधानी सिर्फ नेताओं और अधिकारियों के लिए नहीं बन रही है तो किसके लिए बन रही है। क्या किसानों की खेती जमीन जबरिया नहीं अधिग्रहित की जा रही है? क्या वहां के बाजार दर पर मुआवजा दिया जा रहा है? यह ऐसे सवाल है जो साबित करते हैं कि आम आदमी आज भी वास्तविक आजादी से कितनी दूर है। नेता और अधिकारी किस तरह से मिल बांटकर आजादी का हर महिने के पहली तारीख को जश्न मान रहे हैं। नेता-अधिकारी बेशक पहली तारीख को जश्न मनाये लेकिन आम लोगों को भी इसमें शामिल करें उन्हें बुनियादी सुविधाएं तो पहले दो फिर दूसरों की सुविधाओं का ध्यान रखो। लेकिन आजादी मिलते ही अपने लिए सब कुछ पा लेने की रणनीति ने आम आदमी के लिए सिर्फ और सिर्फ बबूल बोने का काम किया है।